। । श्रीभ्रीगौरगदाधरौ विजयेताम्। ।
श्रीमन्रभागवतम्
श्रीहरिदास शास्त्री
| सङ्गणकसंस्करणं दासाभासेन हरिपार्षददासेन कृतम् |
६ । श्रीश्रीगौरगदाधरौ विजयेताम्। । श्रीपन्रभागवतम्
भ्रीनीलकण्ठ सूरि सङ्गृहीतम्
ऋग्वेद में श्रीश्रीगौर-कृष्ण लीला
श्रीधाम वृन्दावन वास्तव्येन न्याय वैशेषिक शास्तरि, नव्य न्यायाचार्य, काव्य, व्याकरण, साङ्कय, मीमांसा, वेदान्त, तक, तर्क, न्याय, वैष्णवदुर्शनतीर्थ, | ऋ | श्रीहरिदास शास्त्रिणा सम्पादितम्।
सदग्रन्थ प्रकाशक :- श्रीहरिदास शास्त्री श्रीगदाधरगौरहरि प्रेस, श्रीहरिदास निवास, पुरानी कालीदह, वृन्दावन, प्रथुरा, (उत्तर प्रदेश) । श्रीचैतन्याब्द-५२८
| सङ्गणकसंस्करणं दासाभासेन हरिपार्षददासेन कृतम् |
प्रकाशक :- श्रीहरिदास शास्त्री
संस्थापकाध्यक्ष :- श्रीहरिदास शास्त्री गोयेवा संस्थान
श्रीहरिदास निवास, पुरानी कालीदह, वृन्दावन, मथुरा, (उत्तर प्रदेश) ।
प्रकाशन तिथि : श्रीलगदाधर पण्डित गोस्वामी चरण का
जन्मोत्सव वैशाखी अमावस्या कृष्ण पश्च, सम्वत् २०७०, श्रीगराङ्ाब्द ५२८
प्रथम संस्करण
॥ श्रीश्रीगोरगदाधरौ विजयेताम्॥
प्राक्कथन
यह ग्रन्थ मन्त्र भागवत नाम से प्रसिद्ध है। वेद से २५० मन्त्रौ का संकलन इसमे हुआ हे। इन मन्त्रो मे श्री गौराङ्गदेव एवं श्रीकृष्ण कौ लीलाओं का वर्णन हुआ है। आदि में श्री गौराङ्गदेव का वर्णन हुआ है । मन्त्र भागवत में चार काण्ड हँ- गोकुल काण्ड, वृन्दावन काण्ड, अक्रूर काण्ड, मथुरा काण्ड । इन चार काण्डौ में श्रीमदभागवतीय श्रीकृष्ण लीलाओं का मार्मिक वर्णन हुआ हे । इस ग्रन्थ के संकलनकर््ता का स्वयं के द्वारा परिचय इस प्रकार है-
इति श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणमर्य्यादाधुरन्धरचतुर्धरवंशावतंस गोविन्दसूरिसूनोः श्रीनीलकण्ठस्य कृतौ सोद्धूतमन्त्रभागवत व्याख्यायां मन्त्रहस्य प्रकाशिकायां मथुराकाण्डश्चतर्थः॥
श्री नीलकण्ठ सूरि नामक विद्वद् वर्य ग्रन्थ के संकलनकर्ता है । इसमे मन्त्र रहस्य प्रकाशिका नामक जो व्याख्या हे, पण्डितवर्य्य कौ हे । श्री व्यासदेव कृत अष्टादश पुराणों कं मध्य में सुप्रसिद्ध पुराण श्रीमद्भागवत है। जिनका विवरण इस प्रकार है-- श्रीमदभागवत कं द्वादश स्कन्ध के९३वे अध्याय के१८वें श्लोक मेँ वर्णित है-
श्रीमद्भागवतं पुराणममलं यद्वैष्णवानां प्रियं
यस्मिन् पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते ।
तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नेष्कर्म्यमाविष्कृतं
तच्छृण्वन् विपठन विचारणपरो भक्तया विमुच्येन्नरः ॥
यह श्रीमद्भागवत सर्वथा निर्दोष है, भगवान् के प्यारे भक्त वैष्णवों का यह अत्यन्त प्रिय है। इस पुराण मे जीवन्मुक्त परमहंसो के सर्वश्रेष्ठ अद्वितीय एवं माया के लेश से रहित ज्ञान का गान किया गया हे । इस ग्रन्थ कौ सबसे बडी विशेषता यह है कि इसका नैष्कर्म्य अर्थात् कर्म कौ आत्यन्तिका
ख) श्रीसन््रभागवतम्
निवृत्ति भी ज्ञान वैराग्य एवं भक्ति से युक्त टै, जिसको एकता अनुकृलता शब्द से कहते हैँ । जो इसका श्रवण, पठन ओर मनन करने लगता है उसे भगवान् को एकता अनुकूलता रूप भक्ति प्राप्त हो जाती है, ओर वह मुक्त हो जाता हे!
कस्मै येन विभासितोऽयमतुलो ज्ञान प्रदीपाय पुरा
तदूपेण च नारदाय मुनये कृष्णाय तदूपिणा ॥
योगीन्द्राय तदात्मनाथ भगवद्राताय कारुण्यत-
स्तच्छुद्धं विमलं विशोकममृतं सत्यं परं धीमहि॥
भागवत १२।१३।९९
यह श्रीमद्भागवत् भगवत्तत्वज्ञान का एक उत्तम प्रकाशक है । इसकी तुलना में ओर कोई भी पुराण नहीं है, इसे सबसे पहले स्वयं भगवान् नारायण ने ब्रह्माजी के लिए प्रकट किया था। फिर उन्होने ही ब्रह्माजी के रूप से देवर्षि नारद को उपदेश किया, ओर नारदजी के रूप से भगवान् श्रीकृष्ण दवैपायन व्यास को। तदनन्तर उन्होने ही व्यास रूप से योगीन्द्र शुकदेव जी को ओर श्री शुकदेव जी के रूप से अत्यन्त करुणावश राजर्षिं परीक्षित को उपदेश दिया। वे भगवान् परम शुद्ध एवं माया मल से रहित हँ । शोक ओर मृत्यु उनके पास नही फरक सकते। हम सव उन्दी परम सत्य स्वरूप परमेश्वर का ध्यान करते है। निगमकल्पतरोर्गलितं फलं, शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्। पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ॥ भा. १।१।३
यह श्रीमद्भागवत वेद रूप कल्पवृक्ष का पका हुआ फलदहेै। श्री शुकदेव रूप तोते के मुख का सम्बन्ध हो जाने से यह परमानन्दमयी सुधा से परिपूर्ण हो गया है । इस फल मे छिलका गुठली आदि त्याज्य अंश नहीं है । यह मूत्तिमान् रस है । जब तक शरीर मे चेतना रहे, तब तक इस दिव्य भगवद्रस का निरन्तर बारम्बार पान करते रहो, यह प्रथ्वी पर ही सुलभ है । श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किंवापरैरीर्वरः। सद्यो हद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रुषुभिस्तत्श्चणात्॥ भा. ९।९।२१
महामुनि व्यासदेव के द्वारा इस श्रीमद्भागवत महापुराण मेँ मोक्ष पर्य्यन्त फल कौ कामना से रहित परम धर्म का निरूपण हुआ है। इसमें
प्राक्कथन (५
शुद्धान्तःकरण मनुष्यो के जानने योग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्मा का निरूपण हुआ टै, जो तीनों तापो का जड से नाश करने बाली ओर परम कल्याण देने वाली है। अब ओर किसी साधन या शाख से क्या प्रयोजन है ? जिस समय भी सुकृती पुरुष इसकं श्रवण कौ इच्छ करते हँ ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके हदय मे आकर बन्दी बन जाते हँ ।
श्रीमदभागवत के ११।२१।३५-४३ में उक्त है-
वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे।
परोक्षवादा ऋषयः परोक्षं च मम प्रियम् ॥३५॥
शब्दब्रह्म सुदु धं प्राणेद्दरियमनोमयम्।
अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुदरवत्॥३६॥
मयोपवृहितं भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना।
भूतेषु घोषरूपेण बिसेषुर्णेव लक्ष्यते ॥३७॥
यथोर्णनाभिर्हदयापुणामुद्रमते मुखात्।
आकाशाद् घोषवान् प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा ॥३८॥
छन्दोमयोऽमृतमयः सहस्रपदवीं प्रभुः ।
ओङ्काराद् व्यञ्ञितस्पर्शस्वरेष्मान्तःस्थभूषिताम् ॥२९॥
विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः।
अनन्तपारां बृहतीं सृजत्याक्षिपते स्वयम् ॥४०॥
गायत्युष्णिगनुष्टुप च बृहती पडक्तरेव च।
त्रिष्टुब्जगत्यतिच्छन्दो ह्यत्यष्स्यतिजगद् विराट् ॥४९॥
किं विघत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत्।
इत्यस्या हदयं लोके नान्यो मद् वेद कश्चन ॥४२॥
मां विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोद्यते त्वहम् ।
एतावान् सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम्।
मायामात्रमनृद्यान्ते प्रतिषिध्य प्रसीदति ॥४३॥
श्रीकृष्ण कहते है-- उद्धवजी ! वेदों मे तीन काण्ड है, कर्म उपासना ओर ज्ञान, इन तीनों काण्डौ के द्वारा प्रतिपादित विषय हे, ब्रह्य ओर आत्मा कौ एकता अनुकूलता। सभी मन्त्र ओर मन्त्रद्ष्टा ऋषि इस विषय को खोलकर
६) श्रीमन््रभागवतम्
नही, गुप्तभाव से बतलाते ह ओर मुद्ये भी इस बात को गुप्तरूप से कहना ही अभीष्ट है। (क्योकि सब लोक इसकं अधिकारी नहीं है । अन्तःकरण शुद्ध होने से बात समञ्च मे आती हे) ॥३५॥
वेदों का नाम है शब्द ब्रह्म । वे मेरी मूर्तिं है । इसी से उनका रहस्य समञ्चना अत्यन्त कठिन है । वह शब्द ब्रह्म, परा, पश्यन्ती ओर मध्यमा वाणी के रूपमे प्राण, मन ओर इन्द्रियमय है! समुद्र के समान सीमा रहित ओर गहरा है। उसकौ थाह लगाना अत्यन्त कठिन है । (इसी से जैमिनि आदि बडे-बडे विद्वान् भी उसके तातूपर्य्य का ठीक- ठीक निर्णय नहीं कर पाते) ॥३६॥
उद्धव ! मे अनन्त शक्ति सम्पन्न एवं अनन्त स्वयं ब्रह्म हूँ । मैने ही वेद वाणी का विस्तार किया है। जसे कमल नाल मे पतला सा सूत होता है, वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियों के अन्तःकरण में अनाहतनाद के रूप में प्रकट होती हे ॥३७॥
भगवान् हिरण्यगर्भं स्वयं वेद मूत्तिं एवं अमृतमय है । प्राण ओर स्वयं अनाहत शब्द के द्वारा ही उनको अभिव्यक्ति हुई है। जैसे मकड़ी अपने हदय से मुख द्वारा जाला उगलती ओर फिर निगल लेती है, वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णो का संकल्प करने वाले मन रूप निमित्त कारण कै द्वारा हदयाकाश से अनन्त अपार अनेको मार्गो वाली वैखरी रूप वेदवाणी को स्वयं ही प्रकट करते रहते ह । ओर फिर उसे अपने मे लीन कर लेते ह । वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकार के द्वारा अभिव्यक्त स्पर्शं “क"' से लेकर “म" तक २५ स्वर “अ से ओ" तक ९। उष्म 'शषसह' ओर अन्तःस्थ "यर ल व" इन वर्णो से विभूषित है । उसमे एेसे छन्द टै, जिनमे उत्तरोत्तर चार-चार वर्णं बढ़ते जाते हैँ । ओर उनके द्वारा विचित्र भाषा कं रूप में वह विस्तृत हुई है ॥ ३८-४०॥
चार चार छन्दं मे से क ये है- गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप, बृहती, पक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिच्छन्द. अत्यष्टि, अतिजगती ओर विराट् ॥४९॥
वह वेद वाणी कर्म्मकाण्ड मे क्या विधान करती है, उपासना काण्ड मे किन प्रतीतियों का अनुवाद करके उसमे अनेकों प्रकार के विकल्प करती है । उन बातों कौ इस सम्बन्ध मेँ श्रुति के रहस्य को मेरे अतिरिक्त ओर कोई नहीं जानता ॥४२॥
प्राक्कथन ( ७
मँ तुम्हे स्पष्ट बतला देता हूँ, सभी श्रुतियोँ कर्मकाण्ड मे मेरा ही विधान करती है, उपासना काण्ड मे उपास्य देवताओं के रूपमे वेमेराही वर्णन करती है, ओर ज्ञान काण्ड मे मेरा ही विधान करती है, उपासना काण्ड मे उपास्य देवताओं के रूप में वे मेरा ही अन्य वस्तुओं का आरोप करके उनका निषेध कर देती ह । सम्पूर्णं श्ुतियों का बस, इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुञ्चमें भेद का आरोप करती है । माया मात्र कहकर उसका अनुवाद करती है, ओर अन्त मे मुञ्मे ही शान्त हो जाती है। ओर केवल अधिष्ठान रूप से मेँ ही रह जाता हूँ ॥४२॥
वेद संहिता का विभाग
मनुष्यो में स्मृति का ह्यस होने पर द्वापर युग के अन्त मे भगवान् श्रीकृष्ण द्वैपायन रूप मे अवतीर्ण होकर वेद का विभाग करके वेद व्यास नाम से प्रसिद्ध हुए थे। अपने चार शिष्यो को निम्नोक्तरूप से वेद विभाग कर दिये ये
पैल वैशम्पायन जेमिनी आङ्धिरस
ऋक् संहिता यजुः संहिता साम संहिता अथर्व संहिता
ऋग्वेद संहिता मेँ स्तव स्तुति पूर्णं छन्दोमय देवता कौ उपासना है । पतञ्जलि एवं श्रीमद्भागवत के अनुसार ऋगवेद की इक्कीस शाखाएं थीं । सम्प्रति पौँच शाखाएं उपलब्ध है । उसमे मण्डल हँ १०, सूक्त है १०२८ । मन्त्र है १०५८०। शब्द १५३८२६ अक्षर ४२२०००।
पहले से आठ मण्डल तक देवता स्त्रोत, अष्टम मे बालखिल्य सूक्त, नवम मे सोम स्तोत्र है। गायत्री मन्त्र ३।६२।१० मेँ हे। समाधि मन्त्र १०।१८ सूक्त ओर अथर्व वेद मे १८ काण्ड मे वर्णित है ।
पुरुष सूक्त १०।९०।१-१६ ऋक् मे हे। अथर्व- १९।६।९
सामवेद मे ६१७। शुक्ल यर्जुवेद में ३१।१। तै. आ. ३।१२।१
ऋग्वेद में गोर कृष्ण लीला वर्णन परक मन्त्र समूह
मण्डल सूक्त मन्त्र ऋषिः देवता छन्दः १ १० १,२ मधुछन्दा वैश्वामित्रः इन्द्रः अनुष्टुप १ १६ ५, मेधातिथि काण्वः इन्द्रः गौर गायत्री १ २२ १७ मेधातिथि काण्वः वामनदेवः गायत्री १ त १९.२९ ^. ~ विष्णुः + १ २८ ४, ८ आन्जीगर्तिं शुनःशेफः इन्द्रः अनुष्टुप-गायत्री १ २९ ५ ० ५ पक्तिः १ ३२ ७,८,११ हिरण्यस्तूप आद्धिरसः '' त्रिष्टुप् १ ३५ २ भ सविता 0 १ ६६ पराशरः शाक्त्यः अग्निः द्विपदा विराट् ९ ६७ ३,६ ५ अग्निः ॥ १.. 4३२. कक्षीवान् दैर्धतमसः उषाः त्रिष्टुप् १ १५२ १ दीर्घतमा उचथ्य: मित्रा वरुणौ ` १ १५४ १-२,६ '' ^" विष्णुः ५ १ १५६ ३,४ ८ १ 1 जगती ९. द ~ विश्वेदेवाः त्रिष्टुप् १२-२२, २७, २८, २३२, ३६, '' जगती २८, २९, ४१, ४६, ४७ १ १६६ १ अगस्त्यो मेत्रावरुणी मरुतः जगती ३. 33. गाथिनो विश्वामित्रः नदीः त्रिष्टुप् ड ५४ १४,१५, १९-२२ प्रजापतिर्वैश्वामित्रः विश्वेदेवाः '' ३ ५५ १-१२ विरहे '' आक्षेप '' विश्वेदेवाः "' ४ ७ ९,१० वामदेवो गौतमः अग्निः ४ ४ १८ ११ र ॥ इन्द्रः !'
१०) श्रीमन््रभागवतम्
मण्डल सूक्त मन्त्र ऋषिः देवता छन्दः
४ ५१ १-२ (ष उषा +
४ ५८ २ + अग्निः गौर "'
५ ६ ८,९ वसुश्रुतआत्रेयः अग्निः पक्तिः
५ ७ ५,६ इषञत्रेयः ५५ अनुष्टुप् ५ ४८ ३-५ प्रतिभानुरात्रेयः विश्वेदेवाः जगती
५ ५२ १७ श्यावाश्व आत्रेयः मरुतः पंक्तिः
६ २८ १, २-४, ८बार्हस्पत्यो भारद्वाजः गावः त्रिष्टुप् आदि ६ ३९ ४ ॥ ' इन्रः ५
७ १९ १९ मेत्रावरुणिः वसिष्ठः अग्निः त्रिष्टुप्
७ 2३७ ६ प विश्वेदेवाः `
७ ५९ ७ ५: मरुतः ४
७ ६० ७, ४ मित्रावरुणौ '
८ ४ ३ देवातिथिः काण्वः इन्द्रः गौरः प्रगाथ बृहती ८ ४० ६ नाभाकः काण्वः इन्द्राग्नी महापक्तिः ८ ४१ ५-८ न वरुणः १
८ ४५ २४ त्रिशोकः काण्वः इन्द्रः गौरः गायत्री
८ ७४ ५,६ विरूप आङ्धिरसः अग्निः +
इ ८. 8 उशना काव्यः पवमान सोमः त्रिष्टुप् १० ४८ १० वैकुण्ठ इन्द्रः इन्द्रः ॥
१० ५४ ३ बृहदुक्थो वामदेवाः इन्द्रः +
१० ५१९ ६ सोचीको अग्निः गौरदेवाः '
१० ९५ १४ एेलः पुरूरवाः उर्वसी र
१० ९७ १३ आथर्वणोभिषग् ओषधयः अनुष्टुप् १० १२७ २ कुशिकः सोभरः रात्रीः गायत्री १९० १६५ ३ नैऋत कपोतः विश्वेदेवाः त्रिष्टुप् १० १६६ १ ऋषभो वैराजः सपत्नघ्नम् अनुष्टुप्
ऋक्मन्त्र
ओं सेमं नः स्तोमम् १ ओं वयं नाम प्रत्रवामा ४ ओं यथा गौरो ८ ओं इह त्वा गोप ८ ओं अग्नेः पूर्वे १० पदं देवस्य ६ घृतस्य नाम
तमु स्तोतारं ह सत्यं ज्ञानमनन्तं १ तस्मात् स्युर्देवता ३ यत् किञ्चिद् दैवतो
ऋचां दशतयी
ऋगा रूढानि
अविरोधात् ६ अर्थवाद ७ तनेमिमृभवो १।१९ ८ तस्मे नूनमभि१।२ ८ यस्मिन् विश्वानि १।३ ८ इन्द्र मित्र १।४ १ कृष्णं नियानं १।५ १
आ कृष्णेन रजस्य १।६ १ यत् कृष्णो रूपं १।७ उत माता महिष १।८ ४
१६ ५५८
१
१५६ 4:
७५ ७५ ४९ १६४ १६४
२५
१८
सूचीपत्र
मण्डल सूक्त मन्त्र
५
नारायणोपनिषद् १२
२
१ 18,
१९, २० समग्र वेदों मे गोपाल कृष्ण के लीला को दर्शन करें ।
९९
४ देववाचक वेद मन्त्र श्रीकृष्णलीला वाचक है । ४ ऋकमन्त्र समूह कृष्णलीला स्तवपरक है। ५ ऋग्वेदीय मन्त्र समूह ही चारौ वेदो मे विस्तृत हुए है ।
नमस्कार मङ्गलाचरण स्तुति का निर्देश
ब्रह्य गोपाल ही स्तवनीय सर्वाश्रय परमेश्वर सूर्य्यमण्डलवर््ती अन्तर्यामी कृष्ण
सर्वान्तर्यामी कृष्ण अवतार का कारण
१२ ) श्रीमन्रभागवतम्
सप्तार्धगर्भा भुवनस्य १।९, १९ १।९६४ ३६ य ई चकार १।९० १ १।१६४ ६२
कृष्णं तएम १।११ ४ ७ ९
गोकल काण्ड मन्त्र काण्ड मण्डल सूक्त मन्त्र विष्णुं स्तोमासः १।१२ ३ ४ शय सस्वश्चिद्धि तन्व॒ १।१३ ५९ ७ इमे दिवो १।१४ ६० ७ यद् गोपावद् १।१५ ६० ८ इद मुत्यत् पुर १।१६ १ अस्थुरु चित्रा १।१७ २ उच्छन्तीरद्य १।९१८ ३ अपाङ् प्राङेति १।१९
~< ०८ ० ० © ल € ~^ ~
पृथुरथो दक्षिणाया ९।२० १९ १२३ १ हेति पक्षिणी १।२१ १०५ १६५ ३ साक यक्षमप्रपत १।२२ १० ९७ ९३ नवानो अग्न १।२२ ५ ६ ८ उभे सुश्चन्द्र ९1४. ~ -& ~ अवस्म यस्य १।२५ ५ ७ ५ यं मर्त्यः पुरु १।२६ ५ ७ ६ अयं रोचयत् १।२७ & ३९ ४ यत्र मन्थां ९।२८.. ‹ २८ -४ तानो अद्य १।२९ १ २८ ८ कडउनुते १।३० १० ५४ ३
देवकी का सप्तगर्भं श्रीकृष्ण ही स्वयं भगवान्
माताके गर्भम आविर्भाव
लीला जननी का स्तव देवस्तुति नन्दालय को गमन यशोदा को गोदी मे नन्दोत्सव व्रजवासी का प्रेम बाल्य लीला शकट भञ्जन पूतनावध तृणावर्तं वध गव्यार्थी गोपगण माखन चोरी माखन चोरी का प्रकार पकड गये दामबन्धन यमलार्जुन भञ्चन विश्वरूप दर्शन
सूचीपत्र ( १३ वृन्दावन काण्ड सुदेवो अद्य २।१९१ ९० ९५ १४ उत्पात भयसे वृन्दावन गमन सुयवसाद् २।२ १ १६४ १० गोवत्स चारण दासपत्नी २।३ १ ३२ ११ कालियदमन अपादहस्तो २।४ १९ ३२ ७ कालियशिरमेंनृत्य नदं न भिन्नं २।५ १ ३२ ८ कालिय वर्जन समिन्द्र गर्दभं २।६ १५ २९ ५ धेनुकासुर वध यदि जानामि २।७ १९ ३ २९१ प्रलम्बासुर का आना ऋचो अक्षरे २।८ १९ १६४ ३९ बलराम का भ्रम विष्टम्भो दिवो २।९ ९ ८९ ६ प्रलम्बासुर वध हिं कृण्वती २।१० १९ १६४ २७ वत्सहरण गोरी मिमे २।१९ १ ९६४ २८ वत्सवबालक रूप धारण युक्ता माता २।१२ १९ १६४ ८ ब्रह्ममोहन ये अर्व्च २।९३ १ १६४ १९ अन्यगणका भी मोह यस्मिन् वृक्षे २।१४ १ १६४ २२ वत्सर यापन आ ग्रावभिः २।१५ ५ ४८ ३ गोवर्धन धारण तामस्य रीतिं २।१६ ५ ४८ ४ सप्तरात धारण तमस्य राजा २।१७ १ १५६ ४ गोवर्धन यज्ञ तां वां वस्तूनि २।१८ १९ १५४ ६ इन्द्रकौ प्रार्थना ऋषभं मा २।१९ १० १६६ १ सुरभी के साथ इन्द्र का आगमन
आ गावो २।२० ६ २८ १६ कृष्णाभिषेक इन्द्र यज्वने २।२१९ ६ २८ २ इन्द्र के प्रति उपदेश नता नशन्ति २।२२ ६ २८ ३ त्रजकामङ्कल नता अर्वा २।२३ ६ २८ ४ केशीवध, दावानल पान हस्ते दधानो २।२८४ १ ६७ ३ + ५
१४
स जिह्वया सदयो जातस्य उपेदमुप प्रणेमस्मिन् अजोन्षां गोरीर्मिमाय उर्वप्रा अमर्त्या सेनेव सृष्टामं गायन्ति त्वा यतूसानोः साकञ्जानां अतारिषुर्भरता सिय सतीस्तां अवः परेण पर अवः परेण
ये अर्वाञ्च
द्रा सुपर्णा यत्रा सुपर्णा
देवानां दूतः
शृण्वन्तु नो वृषणः
सदा सुगः स्वदस्व हव्या उषसः पूर्वा मोषूणो अत्र विमे पुरुत्रा समानो राजा
श्रीपन्त्रभागवतम्
४ ४८ २।२९६ ठ ७ २।९७ ६ २८ २।२८ ९० ४८ ९. ६७ २।३० २ १६४ २।३९१९ १० १२७ २।३२ १ ६६ २।३३ १ १० २।३४ १ १० २।३५ ९ १६४ २।३६ २ ३२ २।३७ १ श २।३८ १ शद २।२३९ १ शद ९ [३५.. ९ श६्४ २।३९ १ शर २।४० १ ९६४ अक्रूर काण्डः २३।१ २ ध्र ३।२ २ ५ २।३ २ ध्र २ (र्ठ २ + ह 1 ३।५ २ ५५ २३।६ ३ ८५ २३७ २ ५५ २३।८ २ ५५
दावानल पान
खीर कौ भोति भक्षण वृषभासुर का आना वृषभासुर का बध अघासुर बध
वख हरण महारासलीला
परकोय भाव वंशीध्वनि माधुरी गोवर्धन शख म वशीध्वनि बलदेव व कृष्णतत्त्व गोपी अभिसार व्रजदेवी का स्वरूप रासक्रोडा का तातुपर्य शाख तातूपर्य्य
मथुरा लीला
वृन्दावन लीला श्रवणीय चरम साधुओं के लिए ब्रजलीला श्रवणीय
देवदूत
देवगण विघ्न नहीं करेगे शुभयात्रा
निमन्त्रण
विलाप
18, † १
18,
सूचीपत्र ( १५ आक्षित् पूर्वा ३।९ ३ ५५ ५ ^" शयुः परस्ताद् २३।१० ३ ५५ ६ ! द्विमाता होता 4. शूरस्येव युध्यतो ३।१२ ३ ५५ ८ ^" निवेवेति ३।१३ ३ ५५ ९ !' विष्णुर्गोपा ३।१४ ३ ५४ १० !' नाना चक्राते ३।१५ ३ ५५ ११ विलाप माताचयत्र ३।१६ २३ ५५ २२ !' अन्यस्या वत्सं २/९. 3 44 28 . ~“ पद्या वस्ते ३1१४. 3. 4. 24. पदे इव निहिते ३।१९ ३ ५५ १५ '! आ धेनवो ३।२० ३ ५५ १६ ''! यदन्यासु वृषभो ३।२१९ ३ ५५ १७ '' वीरस्यनु श्वश्व्यं ३।२२ ३ ५५ १८ !! देवस्त्वष्टा सविता २३।२३ ३ ५५ १९ '! मही समैरत् ३।२४ २ ५५ २० !' इमाञ्च नः ३।२५ ३२ ५५ २९ ! निष्विध्वरीस्ते ३।२६ ३ ५५ २२ '' सप्तमे सप्त ३।२७ ५ ५२ १७ भगवद् दर्शन विष्णोर्नूक २।२८ ९ १८४ १ षडक्षर मन्त्र प्रतद् विष्णुः स्तवते ३।२९ १५ १५४ २ बीजमन्त्र प्र विष्णवे शूषम् ३।३० ९ १५४ ३ हदय मन्त्र आस्य जानन्तो ३।३० १९ १५६ ३ श्रीकृष्ण मन्त्र माहात्म्य मथुरा काण्ड युवं वस्राणि ४।१९१ १९ १५२ १ कृष्ण बलराम का मथुरा प्रवेश इन्द्रो विश्वैः ४।२ ३ ५४ १५ कसवध
१६ )
यशस्करं बलवन्तं यो धर्ता
य आस्वत्क अपि वृश्च वासयसीव
मानो अग्ने उत्समुद्रान्
स समुद्रो
४।२ ॥.8॥1 ठ | ४।६ ४७ ४।८ ४।९ 21९०
1
श्रीमन््रभागवतम् ५
१९ २७
राजाधिपति कृष्ण देव स्तुति
द्वारकापुरी अवस्थान पारिजात हरण द्रौपदी की लाज रक्षा द्रोपदी कृत स्तुति जलकेलि
स्वर्ग गमन।
॥ श्रीश्रीगौरगदाधरौ विजयेताम्॥ ऋग्वेद गें श्रीश्रीगोरलीला
सेमं नः स्तोममागहि उपेदं सवनं सुतम्। गौरो न तृषितः पिब ॥ (ऋषि मेधातिथिः काण्वः। इन्द्रः देवता । गायत्री छन्दः । १।१६। ५)
सायणभाष्यम्- हे इन्द्र स त्वं नोऽस्मदीयमिमं स्तोमं स्तुति प्रत्यागहि आगच्छ। आगमने हेतुरुच्यते- उप देवयजनसमीपे सुतम् अभिषुत सोमयुक्तमिदम् इदानीमनुष्ठीयमानं सवनं प्रातःसवनादिरूपं कर्मवर्तते । तस्माद् गौरो न गौरमृगाड चन्द्र इव तृषितः सन्निमं सोमं पिब ।
व्याख्यानुवाद- हे परमेश्वर श्रीगोरचन्द्र ! आप हमारी स्तुति के समीप म आने की कृपा करं । देव यजन नित्यकृत्य सत्कर्म के समीप मे आए। श्रीश्री गौरचन्द्र रूप में प्रसिद्ध आप हमारे श्रीनाम यज्ञादि भक्ति अनुष्ठान के समीप मे आकर तृषित अर्थात् सूर््यरश्मि सम्मिलनाकांक्षि चन्द्र कौ भाति हमारे विशुद्ध सत्व भाव के साथ मिलकर संकीर्तन रस का आस्वादन करें|
कहने का तात्पर्य यह है कि चन्द्र जिस प्रकार सूर्यकिरण सम्बन्ध का परित्याग कभी भी नहीं करता है, हे देव } गोरचन्द्र! आप भी उस प्रकार हमारे साथ चिर सम्बन्ध युक्त होकर अवस्थान करे ।
श्रीमद्भागवत के १।१।३ मे उक्त है-
निगमकल्पतोर्गलितं फलं, शुकमुखादमृतद्रवसयुतम्।
पिबत भागवतं रसमालयं, मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ॥१॥
भागवतरसस् सुधिवृन्द । यह श्रीमदभागवत वेदरूप कल्पतरु का सुपक्व फल है, श्री शुकदेव रूप तोते कं मुख का सम्बन्ध हो जाने से यह परमानन्दमयी सुधा से परिपूर्णं हो गया है। कारण तोते का काया हुमा फल अधिक मीठ होता है। इस फल मेँ छिलका, गुटली आदि का त्याज्य अंश तनिक भी नर्ही है । यह
१८ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
मूर्तिमान् रस है। जब तक शरीर मे चेतना रहे, तब तक इस दिव्य भगवद्रस का निरन्तर पान करते रहो। यह रस पृथिवी पर ही सुलभ हे।
वयम् नाम प्रत्रवामा घृतस्या, अस्मिन् यत्ते धारयामा नमोभिः।
उप ब्रह्मा शृणवच्छस्यमानं, चतुःशृद्खोऽवमीद् गौर एतत्॥ (ऋषिः वामदेवो गौतमः। अग्निः सूर्य्यो वा आपो वा गावो वा घृतस्तुतिर्वा। त्रिष्टुप् छन्दः) (म. ४।५८।२)
भाष्यम्- ओम् वयं नामेत्यादि । ' चतुः शद्ध :' चत्वारः अद्गादयः शुङ्गाः लक्षणानि यस्य सः साङ्गोपाङ्गस्त्रपार्षदः ' गोरः ' राधाभावद्युति- सुवलितः श्रीगौराद्कः यथा "एतत् ब्रह्य ' नामरूपगुणलीलामयं श्रीकृष्णाख्यं श्रीहरिनामात्मक वा "अवमीत्" वान्तवान् ~ श्रीचैतन्यमुखोदगीर्णा हरे कृष्णेति मन्त्रकाः इति। तथा (वयं नमोभिः! नमस्कारः युक्ताः सन्तः * अस्मिन्" कलौ " यज्ञे' सङ्कीर्तनाख्ये घृतस्य ' हविः स्वरूपस्य परब्रह्मणः तत् नाम धारयामा ' । चित्ते धारयामः, ' प्रब्रवामा ' प्रत्रवामः- सर्वदा उच्चारयामः च। स अस्माभिः “शस्यमानं ' कोरत्यमानं तत् “उप शृणुवत् उपशृणुयात् ॥ (मः ४।५८।२)
व्याख्यानुवाद- कलियुग मे सङ्कीर्तन रूप यज्ञ में घृताहुति स्वरूप परब्रह्म का नाम - हरेकृष्ण आदि का हम सब धारण स्मरण करेगे । कीर्तन, श्रवण करेगे । उक्त हरेकृष्णेति नाम राधाभावद्युतिसुवलित श्रीगौरांग सपरिकर (चतुःशृद्ध) चतुरङ्ग सेना साङ्ग उपाङ्ग अस्त्र व पार्षद वेष्टित होकर ब्रह्म के नाम रूप गुण लीलामय श्रीहरिनाम का उच्च स्वर से कीर्तन किये है।
हम सब उन नाम का आश्रय सब प्रकार से ग्रहण करके, अथवा तत्त्व महिमा को न जानकर भी केवल प्रणतिसमूह के द्वारा ही श्रीनामाश्रय करके रहगे।
श्रीरूपगोस्वामिकृत लघुभागवतामृत में उक्त है-
श्रीचैतन्यमुखोदगीर्णा हरेकृष्णेति वर्णका । मज्जयन्तो जगतुप्रेम्नि विजयन्तां तदाह्या ॥
श्रीनामाष्टक में उक्त है-
निखिलश्रुतिमौलिरत्नमाला-दयुतिनिराजितपादपङ्कजान्तः।
अयि मुक्तकुलैरुपास्यमानं परितस्तां हरिनाम संश्रयामि ॥१॥
श्रीगौर लीला ( १९
श्रीमदभागवत महापुराण के ११।५।३२ में उक्त है- कृष्णवर्णं त्विषाऽकृष्णं साङ्खोपाङ्कास्त्रपार्षदम्। यज्ञैः सङ्कर्तनप्रायर्यजन्ति हि सुमेधसः॥
यथा गौरो अपाकृतं तृष्यन् एत्यवेरिणम्।
आपित्वे नः प्रपित्वे तूयमा गहि, कण्वेषु सुसचा पिब ॥३॥
देवातिथिः काण्वः ऋषिः। इन्द्रः । प्रगाथः-- विषमा वृहती समा च।
(मः ८।४।२ ऋक् । साम २५२। निरुक्त ३।२०)
सायणभाष्यम्- गोरो गौरमृगः तृष्यन् पिपासन् अपा अद्भिः उदकैः। व्यत्ययेनैकवचनं। कृतं सम्पूर्णत्व कृतं इरिणं निस्तृणं तराकदेशं यथा येन प्रकारेण अवैति अवगच्छति। अवशब्दः अभिशब्दस्यार्थे। अभिमुखः सन् शीघ्रं गच्छति। तथा अपित्वे बन्धुत्वे प्रपित्वे प्राप्ते सति हे इन्द्र ! त्वं नो अस्मान् तूयं क्षिप्रनामेतत् शीघ्रम् आगहि आगच्छ । आगत्य च कण्वेषु कण्वपुत्रेषु अस्मासु सचा सह एकयतनेनैव विद्यमानं सर्वं सोम सु सुष्टु पिब।
व्याख्यानुवाद- गौरवर्ण मृग जिस प्रकार तृषार्त होकर तृणहीन नदी के तट मे बालुकामय प्रदेश को अतिक्रमण करके जल कौ ओर शीघ्र धावित होता है, उस प्रकार अशरणगण बन्धु श्रीगोरहरि आप परमेश्वर होने पर भी अगति को गति देने वाले आप सत्वर आकर सोमरस का पान करो, अर्थात् भक्तिरसपान सतृष्ण होकर करो। श्रीगीता मे आपने स्वयं ही कहा हे (९/२६) - “पत्र पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्तया प्रयच्छति । तदहं भक्तयुपहतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥" भक्तिरस मिश्रित उपहार का भोजन पान यत के साथ सख्य भाव से करो। “भक्तिरेवेनं नयति, भक्तिरेवैनं दर्शयति। भक्तिवशः पुरुषः भक्तिरेव भूयसी ॥ श्रीचैतन्यभागवत के (२।९) अध्याय मेँ महाभाव प्रकाश प्रकरण मे इसका विशेष विवरण है।
इह त्वा गोपरीणसा महे मदन्तु राधसे। सरो गौरो यथा पिब ॥४॥ (त्रिशोकः काण्वः ऋषिः । इन्द्रः। गायत्री छन्द ः। ऋक् मः ८।४५।२४, साम ७३३, अथर्व २०।२२।२)
२० ) श्रीमन्रभागवतम्
सायणभाष्यम्- हे इन्दर! त्वा त्वामिह यज्ञे गोपरीणसा गव्येन पयसा संमिश्रितेन सामेन महे महते राधसे धनाय मदन्तु मनुष्या मादयन्तु । त्वञ्च तं सोमं यथा गौरो मृगः सरः पिबति तथा पिब ॥४॥ व्याख्यानुवाद- हे गौरचन्द्र! भक्तवृन्द आपको इस श्रीनामयज्ञरूप महोत्सव मे गव्य दुग्ध मिश्रित प्रीतिरस क द्वारा महाभाव प्रकाश में महा आराधना के हारा मत्त करे । आप भी उस प्रणय रस मिश्रित प्रेमरस का पान सतृष्ण होकर उस प्रकार करे जिस प्रकार मृग सरोवर मे तृषित होकर जलपान करता है। श्रीचैतन्यभागवत के मध्य खण्ड के नवम अध्याय का महाभाव प्रकाश प्रकरण इस प्रकार है- परम प्रकाश वैकुण्ठेर चूडामणि । किद्ु देह खाई, प्रभु चाहेन आपनि॥ हस्तपाते प्रभु, देखे सर्वभक्तगण। ये ये मत देय सब करेन भोजन ॥ कह देह कदल केह दिव्य मुद्ग । केह दधि क्षीर वा नवनी केह दुग्ध ॥ प्रभुर श्रीहस्ते सब देइ भक्तगण। अमायाय महाप्रभु करेन भोजन ॥ (सात प्रहरिया प्रकरण) ॥४॥
अग्नेः पूर्वे भ्रातरो अर्थमेतं रथीवाध्वानमन्वावरी वुः । तस्माद् भिया वरुण दूरमायं गौरो न क्षेप्नोरविजे ज्याया ॥५॥ (सोचीकोऽग्निः ऋषिः । देवाः । त्रिष्टुप् छन्दः । म: १०।५१।६) सायणभाष्यम्- अनया अग्निः स्वपलायन निमित्तमाह-- हे देवाः अग्नेः मम पूर्व पर्वमुतूपन्ना भ्रातरो भूपति रभुवनपति भूतानां पतिरिति । त्रयो अग्रजाः। एतमर्थं हविर्वहनाख्यं अर्थं अन्वावरीवुः अनुक्रमेण वृतवन्तः। तत्र वृणेते यङ्लुगन्तात् लुडि लुक् बहुलम् छन्दसित्युक्तम्। आवरणे दृष्टान्तः- रथीव अध्वानं, अध्वानं यथा रथी वृणोति तद्रत्। ते भ्रातरः तथा कुर्वन्तो मृताः। तस्मान् मरणात् भिया हे वरुण! दूरं देशमायम्। क्षप्नोः इषुक्षपतर्धनुषो ज्यायाः सकाशात्। गौरो न अविजे गोरमृग इव, सयथा विभेति चलति वा तद्रद् अविजे अकम्पे। ओविजी भय चलनयोः अनुदात्तेत्। तौतादिकः तस्य लङि उत्तमे रूपम्। “"वेदाहमेकं पुरुषं महान्तम्, आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वातिमृत्युमेति, नान्यः पन्था विद्यते अयनाय ॥ यस्मात् परं नापरमन्ति किञ्चित् यस्मान्नानीयो न ज्यायोऽस्ति
श्रीगौर लीला ( २१
कश्चित् वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येक स्तेनेदं पूर्ण पुरुषेण सर्वम्॥ महान् प्रभु पुरुषः सत्त्वस्येष प्रवर्तकः । सुनिर्मलामिमां प्राप्तिमीशानो ज्योतिरव्ययः ॥ इति श्वेताश्वतरश्रुतेः (३।८, ९, १२,) ॥५॥
व्याख्यानुवाद- इस मन्त्र मँ अग्निदिव जलाधि वरूणदेव को सम्बोधन करके कह रहे है- मेँ मेरे पूर्वतन ब्रह्मादि भाई सबको मोत को देखकर मौत से भयभीत होकर बहुदेश भ्रमण करने के बाद मृत्यु के हाथ के बाहर श्रीगौरहरि के चरण आश्रय किया हूँ। श्रीगोरहरि के चरण आश्रय ग्रहण करनेसेही निर्भय हुआ जाता है।
“ब्रह्मणोऽपि भयं मत्तः द्विपराद्ध परायुषः" दो परार्द्धं परमायु वाले ब्रह्मा का भी मृत्युभय है, कारण “आब्रह्मभुवनाछ्लेकाः पुनरावर्तिनोऽर्ज्जुन ।" कालक्रम से ब्रह्मा का निवास स्थान सत्यलोक का भी परिवर्तन होता है।
ध्रुव श्रीहरिचरण प्राप्त कर मत्युभय रहित होकर मौत के शिर पर पग धरकर ध्रुव लोक मे जाककर स्थिर हो गये है, किन्तु मेरा निस्तार नहीं है । यज्ञेश्वर श्रीहरि के यज्ञ को आहति के होमद्रव्य होकर प्रत्येक देवता को देने से यजमान को कामना पुत्ति होती े। पूर्णाहुति के समय “अग्ने त्वं समुद्र गच्छ" अग्नि तुम अब समुद्र को चले जाओ" कहने पर मृत्युभय से भीत होकर हे समुद्राधिपति वरुणदेव तुम्हरे आश्रय मे रहता हू। पुनर्वार यजमान के बुलाने पर अधीन होकर लौकिक वैदिक कार्यो मँ संलग्न रहता हू। भृगु मुनि ही सबसे पहले मेरे गुण को जानकर मुञ्चको लौकिक वैदिक कामकाज मे लगा चुके ह (सामवेद) । अब मे श्रीगौरहरि के श्रीचरण आश्रय कर उनके द्वारा व्यवस्थापित संकीर्तन यज्ञ मे ' अग्नर्वाग् भूत्वा मुखं प्राविशत्" वाक्यरूप धारण करके भक्तवृन्द के मुख मे प्रवेश कर श्रीनाम संकर्तन यज्ञ मे “जय श्रीराधागोविन्द , श्रीराधागोविन्द, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे" इत्यादि नामरस सुधा का पान निरन्तर करते हुए मृत्यु से नहीं डरता हू। मँ दक्षिणदिक् के यमालय को नहीं जाङुगा, पश्चिम दिक् के वरुणालय को भी नहीं जाऊंगा । गौरदेश मे ही र्हुगा।
निरमल गौर प्रेमरस सिञ्चन पूरल सब मन आश। सो प्रभु चरणाम्बुजे रति नाहि होओल रोयत वेष्णवदास ॥ इति श्रीवैष्णवदासानुदास
ऋग्वेद में श्रीहरिनाम सङ्खीरत्तन यज्ञ का विवरण
ओं पदं देवस्य नमसा व्यन्तः, श्रवस्यवश्रव आपननमृक्तम्। नामानि चिदहधिरे यज्ञियानि, भद्रायान्ते रणयन्त संदृष्टौ ओं तत्सत्॥ (ऋक् ६।१।४, तै. आ. ३।६।१०।२, नि. ४।९९)
अनुवाद - "देवस्य ' परमपूज्य लीलामय आपके ' पदं ' स्वरूप को अथवा श्रीचरणकमल को, अथवा श्रीनामात्मक शब्द को ' नमसा ' नमस्कार के द्वारा ' व्यन्त" अनेक प्रकार से व्यक्तकारी हम सब ' संदृष्टौ रणयन्त' उसको निर्णय करने मे विवादरत है, अथवा परस्पर कोर्तनरत होकर सम्यक् निर्णय होने पर "अन्ते" उनपर निष्ठा प्राप्तकर ! भद्राय" आत्ममङ्गल के लिए ' संदृष्टौ ' आपके साक्षात् दर्शन के लिए ' यज्ञियानि चितनामानि' यज्ञोपयोगी आपके चिन्मय नाम समूह का ही "दधिरे ' निश्चित रूप से आश्रय किये है । अवश्रवे! चारो ओर से श्रीनाम ध्वनि के सुनने पर ' श्रवसि ' श्रवण कीर्तन मे ' आपन्नानां! यशगानकारी भक्तवृन्द का "मुक्तम् ' चित्तदर्पण माज्जित होता है एवं उससे जगत् पावनी शक्ति मिलती है। ' ओं तत् सत्' कारण श्रीभगवन्नाम ही परब्रह्म स्वरूप है, नाम एवं नामी अभिन्न हे । चिर सत्य यह माहात्म्य विशेष है ।
घतस्य नाम गुह्यं यदस्ति जिह्वा देवानाममृतस्य नाभिः। वयं नाम प्रत्रवाम घुतेनास्मिन् यज्ञे धारयाम नमोभिः॥ (नारायणोपनिषत् १२)
ˆ घृतस्य नाम" स्वप्रकाश रसराज व महाभावस्वरूप श्रीभगवान् के युगल नित्यसिद्धनाम "यत् गुह्यं अस्ति" जिनका वर्णन समस्त शाखो मे गृह रहस्य रूप में है, ' तं देवानां जिह्वा ' वह नाम समूह भक्तवृन्द कौ जीभ मुंहमें स्थित नाम का आस्वाद ग्रहणकारी रसना, नाम के साथ तन्मयता को प्राप्त
ऋग्वेद में श्रीहरिनाम सङ्खीरत्तन यज्ञ ( २३
होती है, ओर "अमृतस्य नाधिः' मोक्ष का केन्द्र ह । * वयं ' हम सब "घृतेन!
स्नेह अनुराग के साथ (नाम प्रत्रवाम) श्रीहरिनाम संकर्तन करेगे। (अस्मिन्
यज्ञे) इस संकीर्तन यज्ञ मे (नमोभिः धारयामः) असंख्य प्रणति एवं शरणागति
के साथ श्रीहरिनाम का आश्रय ग्रहण करेगे
ओं तमु स्तोतारं पूर्व्वं यथाविद् ऋतस्य गर्भं जनुषा पिपर्तन ।
ओं आस्य जानन्तो नाम चिद् विवक्तन महस्ते विष्णवे सुमति भजामहे ॥ (ऋक् १।१५६।३)
" ओं" आश्चर्य मे पडकर निश्चित रूप मे कह रहा हू ' तं" वह प्रसिद्ध भगवान् श्रीकृष्ण का ' स्तोतारः" स्तव करं । किस प्रकार स्तव करेगे ? "यथाविद ' जिस प्रकार जानते ह उसी प्रकार, उनका स्तव करने के लिए कुछ भी नियम नहीं है। किस रूप का ? "पूर्व ' पुरातन अवतारी रूप का, ' ऋतस्य गर्भ" वेद् का तातुपर्य्य रूप अन्तर्निहित ब्रह्म का सार स्वरूप सच्चिदानन्द विग्रह श्रीगोविन्ददेव का। इसके बाद “जनुषा पिपर्तन ' जन्मों को सार्थक करे । अथवा उन स्वच्छन्द लीलामय परमपूज्य को मत्स्यादि अवतार के साथ परिपूर्णरूप से वर्णन करं । ओर भी कहता हू ' अस्य नाम ' अनन्ताद्धुत महिमा प्रकटकारी उन परमेश्वर के नाम का भी ^आ विवक्तन" संकीर्तन करं। 'जानन्तः' हे सुधी व्यक्तिवन्द । श्रीनाम का अवधारण सब प्रकार से करें । ' विष्णो" हे विष्णु ! हम सब आपका स्तव करने मे एवं तत्व जानने मेँ अक्षम रै, केवल 'ते' तुम्हारे " सुमतिं भजामहे" सहज साध्य पराविद्यावधू जीवनस्वरूप नाम का ही भजन करेगे। उन श्रीनाम का स्वरूप क्या हे 2 * चित्" ज्ञानस्वरूप, महः" सर्ववेद, सर्वसाधन, सर्वसाध्य, सर्वजगत् प्रकाशक परमानन्द ब्रह्म स्वरूप है । अतएव “नाम विवक्तन ' श्रीहरिनाम कीर्तन करते करते ' नाम यजामहे ' श्रीहरिनाम काही भजन करेगे। कारण श्रीहरिनाम ही एकमात्र साध्य, साधन व भजनीय है।
भगवत् तत्तव प्रकाशक शार समूह दो प्रकार से विभक्त है--
(९) श्रीशिव- आगम-- कल्प, यामल, रहस्य, पञ्चरात्र, तन्त्र, संहिता, तन्त्रभागवत ।
(२) श्रीब्रह्या- निगम-- वेद, स्मृति, पुराण, श्रीमदभागवत ।
॥ श्रीश्रीगौरगदाधरौ विजयेताम्॥ ॥ श्रीश्रीमन््रभागवतम्॥
उपक्रमणिक्ा
सत्यं ज्ञानमनन्तं यत्तद्विष्णोः परमं पदम्। प्राप्तुं मन्त्रेषु गोपाल-विष्णोः कर्माणि पश्यतः ॥९॥
ऋक् १।२२।१९,२०
ननु सत्यादिलक्षणमखण्डैकरसं विष्णोः परमं पदं पदनीयं स्वरूपं चेन्निरवद्यम्, तत्र विद्यावत् विषयाणि कर्माणि न सम्भवन्ति । नितरां विक्रियापराणां मन्त्राणां ततप्रकाशन मन्त्राणां ततूप्रकाशन परत्वं न तु मान्त्रकर्मावगत्या परमपदप्राप्तिः सम्भवतीत्ययोगोऽयं नियोग इति चेत्, सत्यम्। सन्ति परमात्मनः पञ्चरूपाणि, भू बीजाडक.र तर फलोपमानि- शुद्ध, शबल सूत्र विराड् विष्णु देवता सज्ञानि। तत्र भूमेर्बीजादय इव शुद्धाच्छबलादयो नातिरिच्यन्ते। तथा विपक्षे परिणतानेक बीजगर्भ फलमिव विराजित विष्णुरनेकशवलगर्भोऽस्ति। स च कारणत्वात् मूर्तत्वात् चानेक ब्रह्माण्डाश्रयो धरोद्धरणादि अनेक कर्माश्रयश्च, तस्यकंसाम च गेयस्य रूपम्। विभ्रदिमामविन्दत् गुहेत्यादि श्रुतिभ्यः। "अथ य एषोन्तरादित्यो हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते हिरण्यश्मश्ुर्हिरण्यकेशः'* इत्यादिना प्रागुक्तस्य इयमेवर्गग्निः साम वागेव प्राणः सामेति च । पृथिव्यादि प्रपञ्च ऋक् सामे गेष्णौ अङ्क ष्टौ पर्वणी यस्य वराहस्य इमां पृथिवीमित्यादि पदनामर्थः सोऽयं विष्णुनित्यसिद्ध ईश्वरः । अन्ये तु तदाराधन सिद्धाः इन्द्राद्या ईश्वराः शलाटव इव फलभावं प्राप्ताः। अपक्व ते च सर्वे सर्वेश्वर इति श्रुयत् श्रुयन्ते। एते एव समाः सर्वे अनन्ता इति। तत्र बहूनां सर्वेश्वरत्वासम्भवादेक एवायं गोत्वादिवज्जलचन्द्रवत् वा प्रति दैवतं परिसमाप्त इति स्वधर्भीरिव देवताधर्मैरपि स्तूयते । उपहितेषु प्रतिविम्बेषु उपाधिधर्मी अन्वय
उपक्रमणिका ( २५
दर्शनात्। न तूपाध्यभिमानिनी देवता स्वधर्मैरिव ब्रह्मधर्मः स्तोतुं शक्या, उपाधा- तुपहित धर्मान्वये तत्तत् स्वरूपलोपप्रसङ्गात्। गच्छतीव घटाकाशो घटे गच्छति इत्युच्यते घटाकाशस्य नैस्पश्यं घटेऽस्तीति तु दुर्वचम्। यथा चाहुः समारोप्यस्य रूपेण विषयो रूपवान् भवेत्। विषयस्य तु रूपेण समारोप्यं न रूपवत् इति। अयमत्रसंग्रहः- एकं कस्मिन् यथादशे प्रसादो मुकुरान्तः । सहितो दृश्यते देवेष्वेवं लोकः सुरान्तरे : ॥१॥
अनुवाद - जो सत्य, ज्ञान, अनन्त स्वरूप है, वह ही भगवान् श्रीविष्णु का प्रम पद है, उस परमपद प्राप्ति के लिये निखिल मन्त्र मे गोपाल विष्णु के अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण कं कर्मनिचय अर्थात् लीला-माहात्म्य का दर्शन करो।
यदि कहो कि, सत्यादिलक्षणयुक्त अखण्डैकरस विष्णु के परम पद को पदनीय रूप से ग्रहण करने से दोष नहीं होगा, किन्तु उसमें विद्यावत् कर्म समूह का रहना सम्भव नहीं है ओर मन्त्र समूह यज्ञादि क्रियापर रै, उन कर्म प्रकाशक मन्त्र समूह का करम प्रकाशकत्व सिद्ध होता हे किन्तु मन्त्र सम्बन्धीय कर्मावगति के द्वारा परमपद प्राप्ति कौ सम्भावना नहीं है, अतः पूर्वोक्त पद प्रयोग करना नितान्त अयुक्त है ।
एसी आशङ्का नहीं हो सकती है। उक्त पद प्रयोग सुसङ्गत है। भूमि, बीज अङ्कुर तरु ओर फलों की भति परमात्मा के भी शुद्ध, शबल, सूत्र, विराट, विष्णु देवता नामक पाँच रूप हैँ। उसमें से भूमि से बीजादि जिस प्रकार अतिरिक्त अथवा सम्बन्धातीत रूप से विवेचित नहीं होता हे तद्रूप शुद्ध से शबलादि का भी अतिरिक्त बोध नहीं होता है। अतः वादी के उत्तर मेँ कहा जाता है कि सुपक्व अनेक बीजगर्भं फल कौ भति विराट विष्णु भी अनेक शबल गर्भ ह। आप कार्य कारण रूप मेँ निखिल ब्रह्माण्ड का आश्रय, एवं पृथिवी उद्धार प्रभृति अनेक कर्मो का आश्रयस्वरूप है । ऋक् साम उनके ही गेय रूप है । आप निखिल विश्व का भर्ता एवं ज्ञाता है । श्रुति वाक्य से इसे भी जाना जाता ठे।
अनन्तर आदित्य मण्डल में जो हिरण्मय पुरुष दृष्ट होता है, उनके केश श्मश्रु हिरण्यमय ज्योतिर्मय रै, श्रुतिवाक्य में पूर्वोक्त परम पुरुष का बोध
२६) श्रीमन्रभागवतम्
होता है । ऋग्वेद तेजः स्वरूप एवं सामवेद उनका वाक्य एवं प्राणस्वरूप हे। जिन वराहदेव के अङ्कुष्ठ पर्वद्रय पृथिव्यादि प्रपञ्च है, यह साम ऋक् वेद मे वर्णित दै, वह आप विष्णु नित्यसिद्ध परमेश्वर है । इन्द्रादि ईश्वर उनके साधनसिद्ध है, अपक्व फल कौ भोति केवल फलभाव प्राप्तमात्र
श्रुति मे सबको सर्वेश्वर कहा गया है ' ते च सर्व सर्वेश्वराः' अतः सब देवता सर्वेश्वर ह ? उत्तर-- अनेक सर्वेश्वर होना सम्भव न्ह है, गोत्व जलचन्द्रवत् सबके प्रतिनिधिरूप एक ही सर्वेश्वर है, एक चन्द्र अनेक जगह प्रतिबिम्बित होता दै, विष्णु भी देवताओं में प्रतिविम्बितं होकर अद्वितीय सर्वेश्वररूप मे विराजित द । इस प्रकार स्वधर्म की भति देवताधर्मं के द्वारा भी आप संस्तुत होते है । कारण उपस्थित प्रतिविम्ब मे भी उपाधि धर्म का सम्बन्ध दृष्ट होता है, किन्तु उपाधि मे उपहित धर्म का अन्वय होने से भी स्वरूप का लोप होता है अतः देवतागण ब्रह्म धर्म के द्वारा स्तुत नहीं हेते रै, अर्थात् ओपाधिक धर्मं विशिष्ट कहकर उनको ब्रह्म कहकर स्तव नहीं किया जाता हे। तभी गतिशील के न्याय "घटाकाश घट मेँ गमन कर रहा है' कहने से जिस प्रकार घट मे घटाकाश का कोई सम्पर्क नही है ठेसा कहना असंगत हे। अतः देवतागण के साथ भगवान् का सम्पर्क मात्र रै। समारोप्य के कारण विषय रूपवान् होता है । विषय रूप से नहीं । एक दर्पण में जिस प्रकार निर्मलता दृष्ट होती है, अन्यान्य दर्पण मे भी उस प्रकार नैर्मल्य दृष्ट होता दै। इससे लोक भिनन-भिन देवतागण के साथ समस्त देवतागण मे ही एक ही श्रीभगवान् के विम्बानुविम्ब का दर्शन करते है ॥१॥
तस्मात् स्युर्देवताः सर्वाः प्रत्येकं विश्वयोनयः। अन्योन्य योनयश्चैव यथा यास्कमुनीरिताः॥२॥ अनुवाद- इसलिये यास्क मुनि ने बोला- निखिल देवता के प्रत्येक देवता ही विश्वयोनि है, अर्थात् विश्व कौ उत्पत्ति के कारण दै । एवं अन्यान्य योनि है, अर्थात् परस्पर कौ उत्पत्ति का कारण हे ॥२॥
यत् किञ्चित् दैवतो मन्त्रो विष्णु लीलोपवृहितः। वैष्णवः स यतो विष्णुः सर्वदेवतनामभूत् ॥२॥
उपक्रमणिका ( २७
ऋचां दशतयीस्थानां प्रायः शास्त्रेषु संग्रहः। स्तुतशाख््रनयात् सर्व स्तुतौ शास्त्रं प्रतिष्ठितम् ॥४॥
दशमण्डलान्यवयवा यस्याः सा दशतयी वहवृ चः सन्ति। तासां तत्रस्थानामृचां शास्त्रेषु अप्रगीतमन्त्रसाध्येषु देवता स्तवनेषु प्रायेण विनियोगोऽस्ति। वाचस्तोमाख्ये सर्वासामप्युचां शास्त्रेषु विनियोगदर्शनात्, यावतीः कामयेत् तावतीः शसेदिति, स्तुतेति, त्रिविधा मन््राः-- क्रियास्मारका यागकारका देवतास्तावकाश्चेति, तत्रेषेत्वेति शाखामाच्छिनत्ति उर्जत्वेत्यनुमार््टति श्रौत विनियोगात् ॥
इषेत्वादयो मन्त्राः शाखाच्छेदनादीनां क्रियाणां स्मारका इति करणमन्त्राः इत्युच्यन्ते ॥ अतएवावघातादिकाद् दृष्टार्थतयाग्नयेऽनुब्रीहि अग्नि यज, ये यजामहे अग्नि नमित् यज्ञकं यष्टव्यदेवतासङ्कीर्तने पठ्यमाना अगिनमूर्द्धा भुवोर्यज्स्येत्यादयस्ते पत्लीक्रियास्मारकाः। उदाहत शब्दैरेव तस्याः स्मृतत्वात् संस्कारकाः एव, एवं चैतन् मन््रपाठ पूर्वकं कृतो यागः संस्कृतः सन् अपूर्व जनने समर्यो भवति, तद् यथा तेनैते मन्त्रा या गाङ्गभूता अप्यवद्यातादिवन्- नादृष्टार्थाः। अपि तु प्रोक्षणीयादिवददृष्टार्था एव, ये तु आच्यैः वते वृष्टेः स्तुवते प्र उ गशंसतीत्यादि विधिविहिताः गीतमन्त्र साध्यस्तवनरूपा स्तोत्र शास्रार्थाः, तेऽपि तत् क्रियाद्गभुताः अपि स्वतन्त्राः। यथागन्यादीनां प्रणामपूर्वार्थत्वेऽपि मिथो नाङ्गाङ्खिभावः एवं सोमयाग स्तोत्र शास्त्राणामपि समुचितानामेकफलार्थत्वेऽपि मिथो नाङ्गाङ्खिभावः प्रयाजदर्शपूर्णमासवत्॥ तथा च सूत्रम्- अपिवा श्रुति संयोगात् प्रकरणे स्तौति शंसति क्रियासती विदध्यातामिति, तदेतदाह- स्तुत शाखनयात् सर्व स्तुतौ शाच्ं प्रतिष्ठितमिति ॥४॥
अनुवाद-देवता विषयक मन्त्र समृह-भगवान् श्रीविष्णु कौ लीला सूचक एवं परिपोषक है, वैष्णव-अर्थात् विष्णु विषयक है । कारण, एकमात्र भगवान् विष्णु हौ सब देवता के नाम से विभूषित होते टै ॥३॥
जो दशमण्डल विशिष्ट है, उसे दशतयी कहते है । सुतरां वह शब्द ऋग्वेद का ही सूचक है। इस ऋग्वेद मे अनेक ऋक् है । शास्र, अर्थात् अप्रगीत मन्त्र साध्य देवता स्तवन में प्रायशः उसका विनियोग होता है । कारण वाचस्तोमाख्य सूक्त मे जो ऋक् है, वे सन ऋक् ही देवता स्तवन में विनियुक्त
4 श्रीमन््रभागवतम्
है। भावत् का मना करोगे, तावत स्तुति करनी होगी । मन्त्र समूह त्रिविध है। क्रिया स्मारक, यागकारक, देवतास्तावक, जेसे “इषे त्वा" शाखाङेदन का मन्त्र है, “उद्धं त्वा" शाखा संनमन का धूलि अपसारण का मन्त्र है । इस श्रौत मन्त्र विनियोग से प्रतीत होता है कि “इषेत्वादि" मन्त्र शाखा छेदनादि क्रिया का स्मारक होने से करण मन्त्र से अभिहित होता हे।
याज्ञिक समूह आलस्य वशतः धान्यादि के स्थान मे तण्डुत अवघात के समय मन्त्र पाठ न होने पर भी मन्त्र समूह का प्रयोग दृष्ट होता है । अग्नाय अनु ब्रुहि। आग्नेयज, ये यजामहे अग्नि एवं सामं यहो यज्ा्द देवता सङ्कीर्तन मे जो मन्त्र पठित है “अग्निर्मूर्धा भूवोर्यज्ञस्य" अग्नि ही भू यज्ञ के मस्तक स्वरूप है, इत्यादि मन्त्र समूह पत्नी क्रिया स्मारक है। उदाहत शब्द समूह हारा उक्त क्रिया समूह स्मृति पथ मेँ जागरूक होती है, अतः वे सब संस्कारक तुल्य ह ।
इस मन्त्र पाठपूर्वक अनुष्ठित याग संस्कृत होकर अपूर्व फल प्रदान मे समर्थं है, इससे बोध होता है कि- यह सब मन्त्र यज्ञाद्कभूत होने पर भी अवघातादि के समान अदृष्टर्थ व्यञ्जक नहीं है। परन्तु प्रोक्षणीयादिवत् अदृष्टार्थक हे। जिस शब्द का अर्थ प्रत्यक्षसिद्ध है, उसे दृष्टार्थक-सिद्धार्थक कहते है। एवं जिसका अर्थं अदृश्य अर्थात् दर्शन विषयी भूत नहीं है, उसका नाम अदृष्टार्थक अर्थ का विध्यर्थक है।
“आजेः वते वृष्टेः स्तुवते" “प्र उ ग शंसति" इत्यादि विधि विहित गीतमन्त्र साध्य स्तवन ही स्तोत्र है, एवं अप्रगीत मन्त्र साध्य स्तवन ही शाखार्थं वाचक है, उक्त स्तोत्र समृह शाख क्रियाङ्गभूत होने पर भी स्वतन्त्र है। जिस प्रकार, अग्नि देवादि का प्रणाम यज्ञीय विधि रूप मे गृहीत होने पर भी परद्याव अङ्गाङ्गि भाव विशिष्ट नही हे, एवं सोम याग में स्तोत्र भी शाख मन्त्र समूह के एक फलोदेश में प्रयोग होने पर भी प्रयाज दर्शपूर्णमास याग के समान उसके परस्पर अङ्गाद्धि भाव नहीं हे। इसमें सूत्र है। “अपिवा श्रुति संयोगात् प्रकरणे स्तौति शंसति क्रियासतो विदध्यातामिति" अर्थात् श्रुति के साथ संयोग होने से स्वस्वप्रकरण में स्तुति एवं शाख - किसी एक प्रधान क्रिया का विधायक होते हि । “अपि, वा" शब्द स्तुत, शार शब्द कौ देवता, प्रकाश रूप संस्कार कर्मत्व हारा व्यावर्त है। एतज्जन्य ही कथित हे, “स्तुत शाख्रनयात् सर्व स्तुतौ शाखं
उपक्रमणिका ( २९
प्रतिष्ठितम्। अर्थात् स्तुत एवं शाखनोति के निमित्त ही उक्त मन्त्र समूह संगृहीत है, एवं स्तुति में ही शास्र प्रतिष्ठित है, सोमयाग एवं अग्निष्टोम याग ये द्वादश प्रकार शास्र मन्त्र हे । प्र उ ग उसके अन्यतम रै । शास्र मन्त्र के पूर्वमे स्तोत्र मन्त्र का पाठ करने का विधान है ॥४॥
ऋगारूढानि सामानि तुर्या वेदोऽपि ऋगमयः। यजुष्यगनुगान्येव सर्व्वस्तुत्यो जनार्दनः ॥५॥ अविरोधादपूर्वधाद् देवता निग्रहादिकम्। मनत्रार्थवाद प्रामाण्यान् मनुते वादरायणः॥६ ॥
अविरोधादिति-- विरोधे गुणवादः स्याद् अनुवादो ऽवधारिते। भूतार्थवादस्तद्धानाद् अर्थवादस्रिधा मतः॥ यजमानः प्रस्तरः इत्यादिर्हि गुणकादवत्, यजमानः प्रस्तर इति गुणवादमात्रो गुणात् प्रतीयमानस्य यजमान प्रस्तरयोरभेदस्य प्रत्यक्षतो विरोधात्। अग्निर्हिमस्य भेषजम् इत्यादिरनुवाद :। तदर्थस्य लोकेऽ वधृतत्वात्। मेधातिथि कथगयनं मेषो भवेंशेजाहारेत्यादि विरोधानुवादयोरभावाद् भूतार्थवादोऽयम् । विग्रहो हविषां भोग एेश्वर्ययञ्च प्रसनता, फलप्रदातत्वमपि विभूतिः परमेश्वरे इति, पञ्चकं विग्रहादिकम्। जगन्माता दक्षिणमिन्द्र हस्तं अदीदिन्र प्रस्थिते मा हवीषि । इद्रादिव इन्द्र ई पृथिव्याः तस्मादिन्द्रः स्तूयमाः प्रोतो मनसा हिरण्यरथः ददाविति ॥६॥
अनुवाद्- ऋक् मन्त्र समूह सनििविष्ट होने से सामवेद एवं चतुर्थ अथर्ववेद भी ऋटमय यजुः ऋक्वेदक ही अनुगत है, अतएव भगवान् जनार्दन सकल वेद के द्वारा स्तुत हैँ ॥५ ॥
अविरोध एवं अपूर्वत्व हेतु व्यासदेव देवता विग्रहादि मे मनत्रर्थवाद प्रामाण्य का निश्चय किए है ॥६ ॥
अर्थवाद त्रिविध, विरोध में गुणवाद, अवधारण मेँ अनुवाद, उसके अभाव से भूतार्थवाद हे, यजमान प्रस्तर, यह गुणवाद है, कारण गुण से प्रतीयमान -यजमान के साथ प्रस्तर के अभेद् का प्रत्यक्ष विरोध दृष्ट होता है, अग्नि हिम कौ ओषध है, यह अनुवाद है, कारण इसका अर्थनोध सहज रूप से होता है । मेधातिथि कथगयनं मेषे भवेशे जाहार" इत्यादि वाक्य मेँ गुणवाद
३० ) श्रीमत्रभागवतम्
=-= एवं अनुवाद का अभाव हेतु वह भूतार्थवाद है । परमेश्वर मे विग्रहादि पञ्चविभूति विराजित है । यथा विग्रह, हवि का भोग, एेश्वर्य्य प्रसन्नता फल दातृत्व है। इसमे श्रुति प्रमाण इस प्रकार ठै, यथा जगन्माता दक्षिणमिन्द्र हस्तं अदीदिद््र प्रस्थिते मा हषींषि"" इत्यादि। अर्थात् जगन्माता दक्षिणा को इन्दर के हस्त मे प्रदान करगे । इन्द्र प्रस्थान करने से होम न करे । इन्द्र ही स्वर्ग हे, इन्द्रही पृथिव्यादि लोक है, एतज्जन्य इन्द्र स्तूयमान होते हे, वह प्रसन मन से हिरण्य रथ प्रदान करते ह ॥६॥
अर्थवाद समुन्नीत विधिमुख्याद् विधे्बली । श्रुतं ह्यश्वेष्टिरुत्सुज्य कर्तारं कल्पमृच्छति ॥७॥
अर्थवादेति। प्रजापतिर्वरुणायाश्वमानयेत्। स स्वां देवतां प्रार्थयते सपर्य्यदीयते स एतं वारुणं चतुष्कपालमपश्यत्। इत्यर्थवादपदश्रवणे अश्वदातुर्वारुणीष्टिः प्रतीयते । यावतोऽश्वान् प्रतिगृह्णीयात् तावतो वारुणां श्चतुष्कशालान् निर्वपेत् इति विधिवशात् प्रतिगृहीतुः सा प्रतीयते । तत्रासंजात विरोधात् अर्थवादा श्रुतसंजातविरोधित्वात् विधिवाक्यमेव यावतोऽश्वान् परतिग्राहेदिति परेणानेन पूर्वोक्तोपक्रान्तेनैकवाक्यता नीयत इति सिद्धान्तः ॥७॥
अनुवाद- अर्थवाद समुन्ीत विधि-मुख्यविधि कौ अपेक्षा से बलवती होती दै। कारण श्रुति में दृष्ट होता है कि अश्वेष्टि याग, कल्प कर्ता को अर्थात् यज्ञीय विधिकर्ता को अतिक्रम करता हे।
प्रजापति वरुण के अश्व को लाए थे! वह दिक् देवता की प्रार्थना किए थे एवं पूजा किए थे। उससे वरुण को चतुष्कपाल अर्थात् मण्डप रक्षक रूप मे दर्शन किए थे। इस अर्थवाद वाक्य को सुनकर अर्थदाता कौ वारुणीष्टि कौ प्रतीति होती हे! यावत् अश्व समूह का प्रतिग्रह करेगे, तावत् वारुण गण को चतुष्कपाल रूपमे निर्वपण अर्थात् यज्ञ मे उनके उदेश्य से हविर्दान करं । इस विधि से प्रतिग्राही कौ उक्त अश्वेष्टि प्रतीति होती है । इसमे विरोध उपस्थित न हेन से अर्थवाद के ऊपर भी श्रुति सञ्चात विरोध वाक्य होने पर भी यह विधि वाक्य हे। यावतोऽस्वान् प्रतिग्राहदित्यादि, इस परवत्ती विधि वाक्य के साथ पूर्वोक्तं उपक्रान्त विषय कौ एकवाक्यता अवश्य ग्रहणीय दै, यह दी सिद्धान्त हे ॥७॥
उपक्रमणिका ( ३१
महाभाग्यादेवताया इत्युपक्रम्य प्रकृति सार्वनाम््याच्चेतरेतर जन्मानो भवन्तीतरेतर प्रकृतय इति यास्कः। यो देवानां नामधा एक एव । अतिते्दक्षौ अजायत दक्षणददितिः। परोतिश्रुतयश्चैतमर्थं दर्शयन्ति। तस्मात् सिद्धं सर्वेषां मन्त्राणां विष्णुपरत्वम्। क्रियापरत्वं तेषामुपचारात्। तद्गत ब्रह्मलिङ्कानां क्रियाङ्खे सामञ्जस्येनान्वयायोगात्।
तथाहि, अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्, होतारं रलधातममित्यत्र मन्त्रे क एकस्यैवागन स्तुतिकर्मणः यज्ञ परति पुरोहितम् इत्यनेनाहवनीयादिरूपेण अधिकरणत्वं दे वमित्यनेन सम्प्रदानत्वमृत्विजमित्यनेन करणकारकत्वं होतारमित्यनेन कर्तृकारकत्वं रत्नधातममित्यनेन फलदातृत्वं चोक्तम्, नचैतत् विशेषणजात सामञ्जसेन ज्वलने तदभिमानिन्यल्पेश्वरे वा सम्भवति। न हि सर्वस्मिन् यज्ञे सम्प्रदानत्वं मुख्यं फलप्रदत्वं वा मुख्यमीश्वरमुक्त्वान्यस्यास्ि, तथा होतारम् ऋत्विजमिति सामानाधिकरण्य होतारमित्यनर्थकं स्यात्। तैनैव च होतुरपि लाभात् होतृपदं यजमानपरमेवेत्युचितम्, ततश्च सार्वात्म्य- धर्मेणानुग्राहकत्वधर्मेण चान्नयुपाधिकोमुख्य ईश्वरः एवात्र स्तुवो भवति मुख्यया वृत्त्या । एवमदिति द्यौरदितिरन्तरिक्षमित्यादावप्यदित्यादि विग्रहोपाधिकस्य ब्रह्मण एव सार्वत्म्यं सिद्धमेव कौरत्तते । नत्वभूतमदिति स्तुतयर्थमुपन्यस्यते यजमानः प्रस्तर इत्यादि अर्थवादवत्। अन्यथा मन््रणामर्थवादानां चाविशेषापत्तिरिति दिक्॥
अनुवाद- यास्क कहते है, - जो सर्वनाम वाच्य है, उन परम पुरुष से ही महाभागा देवतागण कौ एवं इतरेतर निखिल जीव की सृष्टि हूर हे। वह परम पुरुष ही देवगणो के नाम ध्येय रूप मे एक हैँ । जिस प्रकार अदिति से दक्ष उत्पन हए ह, सुतरां दक्ष से अदिति परा है। उस प्रकार श्रुतिगण भी उस प्रकार अर्थं प्रदर्शन करती हैँ, उन सबके क्रिया परत्व ओपचारिक अर्थात् व्यवहारिक मात्र है । क्योकि उक्त मन््रगत ब्रह्मलिङ्ग की क्रिया के अङ्ग में सामञ्जस्य रूप मे अन्वय अथवा सम्बन्ध योग दृष्ट नहीं होता हे। यथा अग्निमीले पुरोहितम् यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारम् रत्न धातमम्। इस मन्त्रम अग्नि कौ स्तुति कर्मं अधिकरणत्व हे । मन्त्र दानत्व, करणत्व कर्तृत्व फल दानत्व कथित दे, यह प्रति पुरोहितं इस वाक्य में हवनीयादि रूप मे अधिकरणत्व, "रेवं" वाक्य से सम्प्रदानत्व, ऋत्विजं, वाक्य से करणकारकलत्व, “तोतारं" वाक्य से
३२) श्रीपन््रभागवतम्
(1 कर्तृकरकत्व एवं रत्न धातमम् वाक्य से फल दातृत्व सूचित हे। यह सब विरोषण सामञ्ञस्य के सहित अनल किन्वा अभिमानी सामान्य ईश्वर मेँ सम्भव नहीं है। कारण- सकल यज्ञ मे अग्नि का सम्प्रदानत्व-अथवा मुख्य फल प्रदत्व नहीं हे, परन्तु मुख्य ईश्वर होने से दूसरे का है । होता, ऋत्विक् वाक्य द्वय के सामानाधिकरण में “होता” पद अनर्थक हो जाता है । वस्तुतः सा नहीं है। तद् द्वारा होता का लाभ होता है, अतः इस स्थल मँ होतृ पद, यजमान पर होना सङ्गत है, अतएव मुख्य वृत्ति से सार्वात्म्य धर्म, अनुग्राहकत्व धर्म के द्वारा अग्नि उपाधिक मुख्य परमेश्वर ही स्तुत होते हँ । इस प्रकार अवितिर्योरदिति रञ्जयि क्षमिति आदित्यादि विग्रहोपाधिक ब्रह्म कौ सर्वात्मता सिद्ध होती है, फलतः अर्थवाद के समान “यजमानः प्रस्तरः” इत्यादि वर्तमान अदिति कौ स्तुति की जाती है इस प्रकार अर्थ नहीं हो सकता है । अन्य प्रकार अर्थवेत्ताओं को उसमें विशेष आपत्ति नहीं हे।
एवमप्याधानगते विशेष सौविष्टकृत्यां संयाज्यायां विनियुक्तो मन्त्रः बराह्यणविद्धिरग्निदेवतापरतयेव व्याख्यातः कर्मसमृद्धयर्थम्। तत्र च नासङ्कोचेन विशेषणानामन्वय इत्यर्थं एव विदां कूर्वन्तु। एवं इषेत्वेति मन्तरेपि इषे इतीष्यमाणार्थं लाभार्थत्वेति प्रतिपादिकांशेन तत् प्रदानसमर्थं चेतनमुपश्षिपति । द्वितीया विभक्तया तस्य उत्ाद्यत्वविकार्य्यत्व संस्कार्य्यत्वलक्षणकर्मत्वा- सम्भवादाप्यात्वमेवोच्यते। तत्रेष्यमाणभेदादभेदाच्चेत्ययमर्थं: प्रतीयेत हे कैवल्यग्रद त्वां कैवल्यार्थं कण्ठगत विस्मृतचामीकरवत् अज्ञानमात्रापगमेना - वाप्तवान् आप्तवानीति वाहे सार्बात्म्यप्रद त्वां सार्वत्मयार्थं नदीसमुद्रवत् परिच्छेदाभिमान त्यागादाप्नवानीति वा हे सारूप्यप्रद त्वां सारूप्ार्थं कोरभूङ्गवत् ध्यानेनापवानिति वा हे स्वर्गप्रद त्वां स्वर्गार्थं कर्मणा ग्रामवदाप्नवानीति वा यत् कृष्णो रूपम्।
अनुवाद- इस प्रकार आधान गत यागविशेष सौविष्ट कृति संयाज्याय जो मन्त्र विनियुक्त होता है, ब्राह्मण विद्गण कर्म समृद्धि के निमित्त उस मन्त्र की व्याख्या अग्नि देवता रूप ये कौ है। किन्तु उसमे निःसङ्कौच से जो विशेषण का संकोच किया गया है, इस प्रकार समञ्लना नहीं चाहिये । ' इषेत्वा '
उपक्रमणिका ( ३३
इस मन्त्र में “इषे” इस वाक्य में इष्यमाण अर्थ लाभ होता है, वह प्रातिपादिकांश मे तत् प्रदान समर्थ वेतन को उदेख करता है, द्वितीया विभक्ति के द्वारा उस चेतन का उत्पाद्यत्व, विकार्य्यत्व, संस्कार्य्यत्व लक्षण कर्मत्व कौ असम्भावना हेतु केवल प्राप्यत्व का ही कथन हुआ है, इससे दृष्यमाण का भेदाभेद से इस प्रकार अर्थंकाबोधहोतारै।
यथा- हे कैवल्यप्रद ! आपको केवल कैवल्य के निमित्त कण्ठगत विस्मृत सुवर्णपदक के समान कभी भी प्राप्त कर नहीं सकते, किन्तु अज्ञान अपसारित होने से ही आप प्राप्त होते है । किम्वा हे सा्वत्म्यप्रद ! नदी जिस प्रकार समुद्र मे मिलित होने से उसमे परिच्छेद बुद्धि नहीं रहती है, उस प्रकार सर्वान्तर्य्यामी रूप मे आपको प्राप्त करने के निमित्त परिच्छेदाभिमान त्याग होने से ही आप प्राप्त होते है। किम्वा हे सारूप्यप्रद ! कौर जिस प्रकार भृङ्ग का ध्यान करते करते भुङ्ख सारूप्य लाभ करता है, उस प्रकार सारूप्य प्राप्ति के निमित्त आपका ध्यान ही एकमात्र कारण है। अथवा हे स्वर्गप्रद ! स्वर्ग प्राप्ति के निमित्त कर्मके द्वारा ही आप ग्राम के समान प्राप्त होते हो अथवा आप ही कृष्णस्वरूप हो।
इत्यत्र वक्ष्यमाणरीत्या हे शाखे शाखावच्छिन परमेश्वर त्वां शाखारूपं इषेन्नायच्छेदनक्रियाशाप्नवानीति वा । तत्र पूर्वपूृवपिक्षया उत्तरोत्तरोर्थ जघन्य इति स्व सवेद्यम्। अथापि इषेत्वेति शाखामाच्छिनत्तीति अननं वा इष इति च ब्राह्मण विदः हे शाखे त्वां अननाय च्छिनत्तीत्यतः परोक्षवृत््या व्याचक्षते कर्मसमृद्धयर्थम्। न तावता मन्त्रः स्वारसिकमर्थं जहाति। न हि कदाचन- स्तरसीत्यैन्द्र्या गार्हपत्यमुपतिष्ठते इत्यादाविन्द्रपदस्य लक्षणया कर्मकाले गार्हपत्योपस्थापकत्वेऽपि ऋच ेन््रीत्वं विहन्यते, देन्दरत्यस्यानर्थकयापत्तेः। तस्मान् मन्त्राणां स्वारसिकमीश्वरपरत्वम्। सर्वे वेदा यत्पदमामनन्तीति ्रुतेस्तत्सम्मतम्। क्रियापरत्वं तु विनियोगवशाज्जघन्य प्रवृत््येति सिद्धम्। स एवम्भूतो विष्णुः परमकारुणिको नामभिः कर्मभिश्चास्मदादिभिरार्तैराहूयमानः स्तूयमानश्च सस्य विश्वरूपमर्ज्जुनादिभ्य इवेतरेभ्योप्याविष्करोति | तद्द्वारा च वैष्णवं परमं पदं सत्यादिलक्षणं आत्मीयं प्रापयतीति युक्ततरीयं नियोगो यन्मन्त्रषु
३४ ) श्रीमन्रभागवतम्
विष्णोः कर्माणि पश्यतेति । तस्यैवं फलोपमस्य विष्णोर्नमस्यत्वं स्तुत्यत्वं च विरूपदृष्टो मन्त्रावाहतुः।
अनुवाद- इस स्थल मे वक्ष्यमाण रीति के अनुसार-हे शाखे! हे शाखावच्छिन परमेश्वर ! शाखारूपी आपकी प्राप्ति छेदन क्रिया से ही होती है। अतएव पूर्व पूर्वं अर्थं कौ अपेक्षा उत्तरोत्तर अर्थं जो जघन्य है, यह स्वतः ज्लात होता है। अनन्तर “इषेत्वा” इस मन्त्र का अर्थ, शाखा का छेदन सम्यक् रूपसे करता हूँं। शाखा का छेदन क्यों करता हूँ 2 उत्तर में ब्राह्मण विद्गण कहते है, अन ही इष है, सुतरां हे शाखे! तुम्हे अनन के निमित्त छेदन करता हूँ। अतएव कर्म समृद्धि के निमित्त परोक्ष वृत्ति से इस प्रकार कथित हुआ है। किन्तु उस हेतु मन्त्र का स्वारसिक अर्थ कौ हानि नही हूर हे, अर्थात् स्वकौय रस तातूपर्य्याधिक अधिक हानि नहीं हुई है, एवं कदाच उसका व्यतिक्रम नही होता है। “देनद्रीकर्तृक गार्हपत्य अधिष्ठित" इत्यादि मन्त्र मेँ “इन्द्र" पद की लक्षणावृत्ति से कर्मकाल मे गार्हपत्य में उपस्थापन संघटित होने से, ऋक्मे एेनदरीत्व विनष्ट हो जाता है, सुतरां तव 'एेनद्र' अनर्थक रूप मे आपत्तिजनक हो जाता है। अतः मन्त्र समूह का स्वारसिक - ईश्वर परत्व होना मुख्य रूप से उचित है । कारणश्ुति कहती हे, सर्वेवेदा यतूपदमामनन्तीति। अर्थात् निखिल उन भगवान् के परमपद का आमनन करती हँ । यह ही सर्वसम्मत है। एवं विनियोग वशतः, मन्त्र का क्रिया परत्व होना जो जघन्य प्रवृत्ति है, वह सूचित हई । एवम्भूत परम कारुणिक भगवान् विष्णु, नाम-एवं कर्म समूह के द्वारा हमारे समान आर्तजन के द्वारा आहूयमान एवं स्तूयमान होते है । आपने जिस प्रकार अर्जुन प्रभृति को विश्वरूप प्रदर्शन किया था, उस प्रकार उन सबको निज सत्यादि लक्षणयुक्तं सर्वोत्तम वैष्णवपद प्रदान कर अत्यन्त निजजन करते है । अतएव “विष्णोः कर्माणि पश्यतः" यह वाक्य प्रयोग अतीव युक्ति युक्त है। एतज्जन्य मङ्गलाचरण रूप मे यहाँ पर उन फलोपम श्रीश्री विष्णु का नमस्कार एवं स्तुति वाचक रूप मे विरूप दृष्ट मन्त्र भी अध्याहत हो रहा दै ।
ॐ नमो भगवते श्रीनन्दसुताय ।
श्रीमन््रभागवतम्
श्रीगोकुलकाण्डः
मद्धःलाचरणम्
हरिः ॐ। तं नेमिमृभवो यथाऽऽनमस्व सहूतिभिः। नेदीयो यज्ञमद्धिरः॥९॥
(ऋग्वेद संहितायां ६।५।२४ अष्टक । अध्याय। वर्ग, ८।७५।५ मण्डल। सूक्त । मन्त्र)
तं नेमिमिति। हे अङद्धिरः तं परमेश्वरं ऋभवो देवा यथा आनमन्ति एवं त्वमपि आनमस्व। सहूतिभिः समानेरयोग्यिराहवान भो भगवन्नमस्त इत्येवं भावयेदित्यर्थः। नेदीयो नेदीयं “सुपांसुलुगिति सुपो लुक्" । सन्तिहितमन्तर्यामिणमित्यर्थः। तथा च मन्त्रान्तरं अस्ति “ज्यायान् कणीयस उपारे ' इति उपारे समीपे। कौदृशं तम्। नेमि संसारचक्रस्य कालचक्रस्य वा आद्यन्तशून्यस्यापि नेमिमिव नेमिं परिधिभूतम्। अत्र फलोपमस्य परिच्छेदकत्वे नेम्यादि दृष्टान्तः। वृक्षोपमस्य त्वाकाशवत्सर्वगतश्च नित्य इत्यादि दृष्टान्तेऽनुरूप इति बोध्यम्। पुनः कीदृशम्। यज्ञं हविरातिथ्यं निरूप्यते " सोमे राजन्यगते " इत्युपक्रम्य ' वैष्णवो भवति ' विष्णुर्वै यज्ञ स्तस्मा एतदधविरातिथ्यं निरूप्य इत्युपसंहारात् सोमाभिमानिनं यज्ञापरनामानं विष्णुम्। तेन यावान् सौम्यो मन्त्रः स सर्वोपि वैष्णव इति गम्यते ॥१॥
अनुवाद- हे अद्धिर ! ' तं' उन परमेश्वर को “ऋभवः” देवगण, जिस प्रकार, ' आनमन्ति" सम्यक् रूप से प्रणाम करते है, उस प्रकार तुम भी “सहूतिभिः”
३६ ) श्रीमन््रभागवतम्
= समान वा योग्य आह्वान के सहित अर्थात् हे भगवन्! आपको नमस्कार ' इस प्रकार भावना के साथ उन “नेदीयां' सनिहित अन्त्य्यामी पुरुष को “आनमस्व'' सम्यक रूप से नमस्कार करो। वह “नेमिः' संसार चक्र, काल चक्र के आद्यन्त शून्य नेमिस्वरूप अर्थात् परिधि स्वरूप ह । यहाँ फलोपमेय परिच्छेद प्रदर्शन के निमित्त नेम्यादि दुष्टान्त ईहै। वह आकाशवत् सर्वगत एवं नित्य हे, यह दृष्टान्त के भी अनुरूप है। आप “यज्ञः” दहै । यज्ञ हवि का आतिथ्य रूप से निरूपित हे। “सोमे राजन्य गते" इस प्रकार उपक्रम के द्वारा “वैष्णवो भवति विष्णुर्वै यज्ञस्तसम एतद्धविरातिथ्यं' इस प्रकार उपसंहार होने से सोपाभिमानी यज्ञ का अपर नाम ही विष्णुहै, अतएव यह प्रतिपन हभ हैकि- यावत् सौम्य-मन््र हे अर्थत् सोम सम्बन्धीय जितने मन्त्र है समस्त ही वैष्णव मन्त्र है, अर्थात् विष्णु सम्बन्धी मन्त्र है ॥९॥
तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूपनित्यया । वृष्णे चोदस्व सुष्टुतिम् ॥२॥ ( ऋग्वेद ६५।२५/८ ।७५।६) तस्मा इति। तस्मै यज्ञापरनाम्ने विष्णवे नूनं निश्चितं अभिद्यवे द्योः अव्याकृताकाशस्य जगत्कारणस्य बीजोपमस्य अभितो वर्तमानाय फलोपमाय भो विरूप नित्यया वाचा अपौरुषवेदरूपया सरस्वत्या सुष्टुतिं शोभना स्तुति चोदयस्व प्रेयस्व । कीदृशाय तस्मै । वृष्णे- अभिमत फल वर्षिणे ॥२॥ अनुवाद-- ठे “विरूप !'' हे मोहान्ध ! जो "“ नूनं '' निश्चित ही, “* अभिद्यव '' अव्याकृत आकाश के अर्थात् जगत् कारण के बीज स्वरूप के सर्वतोभाव में वर्तमान फल सदृश है "तस्मै वृष्णे" जिनका अपर नाम यज्ञ है, उन अभिमत फलवर्षणकारी विष्णु के निकट “नित्ययावाचा" अपौरुषेय वेदरूपा सरस्वती के द्वारा “ सुष्टुतिं" शोभना स्तुति “चोदयस्व प्रेरण करो ॥२॥
यस्मिन् विश्वानि काव्या चक्रे नाभिरिव श्चिता। त्रितं जूती सपर्यत व्रजे गावो न संयुजे ॥ युजे अश्वा अयुक्षत नभन्तामन्यके समे ॥२॥ ऋग्वेद ६।३।२७/८।४१ ।६
श्रीगोकुल काण्डः ( ३७
अथ पौरुषेयीणामपि वाचामयमेव स्तुत्य इत्याह । यस्मिनिति, यस्मिन्नीश्वरे विश्वा विश्वानि सर्वाणि काव्या काव्यानि व्यास-वाल्मीकि- प्रभृतिभिः कृतानि भारतरामायणादीनि श्रिता श्रितानि पर्य्यवसन्नानि । एतेषां प्रतिकल्पं वर्णानुपूर्वीभेदेऽपि अर्थतो भेदाभावात् नित्यत्वमभिप्रेत्योक्तं वेदेऽपि यस्मिन् काव्यानि श्चितानीति। तत्र दृष्टान्तः। चक्रे नाभिरिवेति। यथा नाभिश्चक्रस्यैकदेशं व्याप्नोति एवं काव्यानि एनं लेशत एव वर्णयन्तीत्यर्थः। तमेतं त्रितं त्रयाणां गुणानां तनितारं मायाया अपि द्रष्टारं जुती जृत्या मत्या। ध्यानेनेति यावत्। “धृतिर्मतिर्मनीषा जुतिः स्मृतिः सङ्कल्प" इति धीवृत्तिषु जूतिशब्दस्य पाठात् ॥ सपर्य्यत पूजयत ॥ कम् ? येन व्रजे गोकुले गावः प्रसिद्धाः न-शब्द इवार्थे । संयुजे समिति एकीभावं न युज्यत इति संयुक् तस्मै पित्रे। स हि जातकर्मणि ' आत्मा वै पुत्रनामासीति ' मन्त्रं पठन्नभेदाध्यासेन पुत्र स्पृशति । पितुः प्रियार्थं यथा गोकुले गावो रक्षिता एवं युजे सख्ये अरज्जुनप्रियार्थं अश्वान् तस्यैव रथे तुरगान् अयुक्षत योजितवान्। अर्ज्जुनस्य सारथ्यं कृतवानित्यर्थः। उभयत्र प्रयोजनं नभन्तामन्यके सम इति। कुत्सिता अन्यके दुःशत्रवः समे नभन्तां हिस्यन्तामिति, ' मा भुवननन्यके सर्वे ' इति यास्कः। अत्र युजे संयुजे पदाभ्यां अर्ज्जुननन्दावेव गृहीतुं युक्तौ । पुराणेतिहासप्रामाण्यात् व्रजादि पदान्तर- समभिव्याहाराच्चेति सहदया एव विदां कूर्वन्तु। अत्र ' काव्याश्चिता ' इत्यात्वं “जूती ' इति पूर्व सवर्णदीर्घश्च विभक्ते: सुपां सुलुगित्यनेनैव ॥३॥
अनुवाद - अतः पर आप अपौरुषेय वाक्य के स्तुत्य है, अर्थात् ऋषि वाक्य के भी स्तुत्य है, इस मन्त्र से उसका विवरण कहते हे । यस्मिन् ' जिस परमेश्वर मे "“ विश्वा ' निखिल विश्व, एवं काव्यनिचय, अर्थात् व्यास वाल्मीकि प्रभृति कृत भारतरामायणादि ' श्रिता ' पर्य्यवसित हँ । कल्प कल्पमें उक्त ग्रन्थो में वर्णानुपूर्वी भेद होने से भी अर्थगत भेद न होने से वह नित्य है, इस अभिप्राय से कथित हुआ है कि वेद मेँ भी उदिखित काव्यादि सन्निविष्ट हे । जिस प्रकार नाभि, चक्र के एक देश मे रहती है, उस प्रकार पुराणादि काव्य समूह भी उनकी लेशमात्र वर्णना करते रहते टँ । आप “त्रितं” सत्व रज तम गुणत्रय का विस्तारक एवं माया के भी खष्टा है । उनको ' जूती ' ध्यान, अथवा मन से '' सपर्य्यत ' ' पूजा करो । धीवृत्ति मे जूती शब्द का उख होने से अर्थात्
२८ ) श्रीमन््रभागवतम्
जूती शब्द से धृति, मति, मनीषा, स्मृति ओर सङ्कल्प का बोध होता है, अतः यहाँ जूती शब्द द्वारा ध्यान से अथवा मन से इस प्रकार अर्थं गृहीत हुआ है। उनसे ही “"व्रजे'' गोकुल मे “गावः” गो समूह को ख्याति हई है। एवं ' संयुजे! पिता, जातकर्म के समय पुत्र का स्पर्शं " आत्मा वे पुत्र नामासीति" मन्त्र से करते है, तथापि इससे अभेद अध्यास होने पर भी पुत्र के साथ एकीभाव नहीं होता है, उस गोकुल में पिता नन्द के प्रिय कार्य के लिए जिस प्रकार गोपालन कर्म किये थे, उस प्रकार “युजे” सख्ये वा सख्य निबन्धन अर्ज्जुन को आनन्दित करने के निमित्त अश्वान्''अश्वगण को उनके रथ में '* आयुक्षत ' ' युक्त किये थे, अर्थात् अर्ज्जुन का सारथ्य ग्रहण किए थे। यास्क कहते हैँ- नभन्तामन्यके सम” वाक्य उभय स्थल मे ही प्रयोज्य हे । अर्थात् सबको हिसा न करे, किन्तु कुतूसित समूह की हिंसा करे । सुतरां यहाँ पर “ युजे" ओर संयुजे पदद्रय से अर्जुन ओर नन्दराज अर्थग्रहण असद्खत नही हे। पुराण इतिहासादि ग्रन्थ में इसका यथेष्ट प्रमाण है, आनुसङ्गिक ^" व्रजादि '' पद उक्तार्थं का द्योतक है, सहदय सुधीवर्ग उसकी विवेचना करेगे ॥३॥
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथोदिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति अग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ॥। ४ ॥ (ऋग्वेद २।३।२२/१।१६४।४६) यो नमस्यः स्तुत्यः सर्वाश्रयश्च तस्य स्वरूपं अस्य वामीये सूक्ते मन्त्रहयेन दर्शयति । न्द्रं मित्रमिति। यदिदं सदेव सौम्येदमग्र आसीदिति! (छन्दोग्योपनिषद) वेदान्तप्रसिद्धम्। एकमद्ितीयं सत् तदेव विप्राः विद्वांसः बहुधा बहु प्रकारेण वदन्ति कथयन्ति तमेवेन्द्रं मित्रादिरूपं चाहुः । यश्च सुपर्णो गरुत्मान् दिव्यो द्योतमानः तं तथाग्न्यादीश्च तमेवाहुः। अत्र आहुर्वदन्ती 'त्यभ्यासो ऽर्थस्य भूयस्त्वं द्योतयति। अहो दर्शनीया अहो दर्शनीयेतिवत्॥४॥ अनुवाद -- जो नमस्य, स्तुत्य ओर सर्वाश्रय है, उनका स्वरूप इस वामीय सुक्तोक्त मन्त्रदय में प्रदर्शित हो रहा है । छान्दोग्य उपनिषद मेँ उक्त है, यदिदं सदेव सौम्येदमग्र आसीदिति अर्थात् यह जो परिदृश्यमान जगत् यह सत्
श्रीगोकूल काण्डः ( ३९
हे। हे सौम्य! सृष्टि के पहले भी यह विद्यमान था। वेदान्त प्रसिद्ध "एकं ' अद्वितीयं ' सत्" वस्तु को 'विप्राः' विज्ञव्यक्तिगण ' बहुधा ' बहु प्रकार से कहते है । उनको इद्र, मित्र, वरुण अग्नि नाम से अभिहित करते है । अथ ' पुनश्च आप" दिव्यं द्योतमान, सुपर्ण, गरुत्मान् हँ एवं उनको ही अग्नि, यम मातरिश्वा शब्द से कहते है । यहाँ ' आहुः वदन्ति" वाक्य का अभ्यास अर्थात् द्विरुक्ति दोषावह नहीं है, किन्तु * अहो दर्शनीय ! अहो दर्शनीय !' इस प्रकार दृढ़ता, हर्ष, विस्मय भाव प्रकाश के समान अर्थ का अनेकत्व प्रकाश हुआ हे ॥४॥
कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णां अपोवसाना दिवमुतुपतन्ति। त आववृत्रन्त् सदनादूतस्यादिद्घुतेन पृथिवीव्युद्यते ॥५॥
(ऋग्वेद संहितायां १।१६४।४७, अथर्व ६।२२।१, तै. ३।१।११८, निरुक्त ७।२८)
कृष्णमिति। यदेवं सर्वदेवतारूपं सत् तदेव कृष्णं सूर्य्यमण्डलान्तवर्चि। कृषिर्भूवाचकः शब्दो णश्च निर्वृति वाचकः। तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्य- भिधीयते। 'यदेतदातित्यस्य शुक्लं भाः रैव ऋगथ यन्नीलं परः कृष्णं तदवमस्तत्साम, कृष्णं तमरु एशतः पुरोभाः' इति शाच्् प्रसिद्धं सत्यानन्द- स्वरूपं भाः शब्दितं ज्योतिर्गायत्र्यामपि भर्गशब्दोदितं नियानं यान्त्यत्रेति यानं नि हीनं यानमस्य नियानं भूतलस्थायि अनुलक्ष्य सुपर्णाः शोभनपतनाः हरयः यज्ञ भागहराः सन्तो ये दिवमुत्पतन्ति क्षणमपि भूमौ न तिष्ठन्ति, तेऽपि देवा अपोवसानाः पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्तीति श्रुतेरपशब्दिते मानुषैः शरीरैराच्छदिता इत्यर्थः । आववृत्रन् कृष्णं समन्तात् गोपयादवादिरूपेणावृत्य स्थिता इत्यर्थः । वृतु वर्तन ज्ञस्यरन्। ऋतस्य कर्मफलस्य सदनात् भोगस्थानात् स्वर्गात् । एत्येति शेषः। । तदेव सदनं स्तौति! आदित्। अस्मादेव ऋतस्य सदनात् घृतेन जलेन पृथिवी व्युद्यते वृष्टि द्वारा क्लिन्नाक्रियते । स्वर्गवासापेक्षया कृष्णसान्नि यं श्रेय इति मत्वा सर्वे देवाः भूमौ वासमरोचयन्तेत्यर्थः ॥५ ॥
अनुवाद - जो सर्वं देवतारूप सत् रँ, वह ही श्रीकृष्ण, वह ही सूर्य्य मण्डलान्तर्वत्ती गायत्री का ध्येय पदार्थ हँ । ' कृषि" सत्ता वाचक शब्द है "ण! निर्वृति वाचक है, उभय के योग से निष्पन्न कृष्ण शब्द परब्रह्म वाचक है।
४०) श्रीमन्त्रभागवतम्
शाख मेँ उक्त है, जो आदित्य कौ शुक्ल भाः अर्थात् ज्योति दै वह ही ऋक् हँ । एवं जो नील है वह ही परम रहै, वह ही श्रीकृष्ण है, उनका अवम ही साम है। अतएव पुरोभाग में ज्योति स्वरूप श्रीकृष्ण का दर्शन करो । सत्यानन्द स्वरूप भाः शब्दित ज्योति ही गायत्री मे भर्ग शब्द से कथित हे, इस वरणीय भर्गदेव श्रीकृष्ण को “नियानं” धरा मे अवतीर्णं होते देखकर सुपर्णा श्रीकृष्ण के शोभन पक्ष गरुडादि वाहन “हरयः यज्ञभाग ग्रहणकारी साधु पुरुषगण एवं जो “दिवं उत्पतन्ति" केवल स्वर्ग मे निवास करते हे, क्षणकाल भी भूतल मे अवस्थान करने कौ इच्छ नहीं करते हँ “त” वे स्वर्गवासी देवगण भी “अपोवसाना"” मानव शरीर द्वारा आच्छदित हुये थे अर्थात् मानव शरीर परिग्रह किये थे। "अप्" शब्द से जिस पुरुष अथवा मानव का बोध होता हे, उसका प्रमाण “पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्तीति" श्रुति वाक्य है । इस प्रकार ^त' वे सब कर्मफल भोग स्थान स्वगं से मर््यधाम मे आकर “जववृत्तन्" गोप-यादवादि रूप मे श्रीकृष्ण को परिवेष्टन कर अवस्थित हुए थे । “ आदित्" इस भोगस्थान स्वर्गधाम से ही “घृतेन'' जल द्वारा, वृष्टि के द्वारा पृथिवी “व्युद्यते" क्लिन्ना होती हे। सुतरां यद्यपि स्वर्ग से पृथिवी निकृष्ट धाम है, तथापि स्वर्गधाम की अपेक्षा कृष्ण सान्निध्य परम श्रेय दे, इस प्रकार मानकर सकल देवता ही मर््यधाम में निवास करने के अभिलाषी हुये थे ॥५॥
आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्य च। हिरण्मयेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पञ्यन्॥ ६ ॥ (ऋग्वेद संहितायां १।३५।२)
नन्विन्द्रं मित्र सौर्य्याविति द्रयोरप्यनयो मन्त्रयोः सूर्य्य देवत्यत्वं स्मर्य्यते । तत् कथं सूर्य्यान्तर्व्ति ततोऽन्यत् सदभिध कृष्णं वस्तु इत्याशङ्क्याह । आकृष्णेनेति कृष्णेन कृष्णशबव्दितेन रजसा रञ्चकेन ' एष ह्येवानन्दयतीति ' श्रुति प्रसिद्धेन सता हेतुना आवर्तमानः सविता देवो यातीति वदन्त्या को ह्येवान्यात् कः प्राणाद्यदेष आकाश आनन्दो न स्यादिति, श्रुत्यन्तर प्रसिद्ध सवितुश्चालक कृष्णं रजस्ततः पृथगिति दर्शितम्, न च कृष्णेनेति रथेनेत्यस्य विशेषणं सम्भवति। व्यवहितत्वात्, कृष्णं भा इत्युदाहत श्रुत्यन्तर विरोधाच्च । सौर्य्यत्वं त्वचोदिवा-
श्रीगोकूल काण्डः ( ४१
कौर्त्यत्वादोपचारिकम्। लिद्गादर्शनात्। शेषं स्पष्टार्थम् ॥६॥
अनुवाद - यदि कहो कि “इन्द्रं मित्रे" उभय शब्द सूर्य्य वाचक है, तब उक्त मन्तरह्य यें सूर्य्य देवत्व अर्थात् सूर्य्यं देवताभाव ही स्पष्ट है सुतरां वह केसे सूर्य्यान्तवत्तीं होगा, एवं उसमे ' सत् नामधेय कृष्णवस्तु का अवस्थान कसे सम्भव होगा ? इस प्रकार संशय के निरसन हेतु कहते है- ““ कृष्णेन रजसा!" कृष्ण शब्दित रञ्जक द्वारा अर्थात् जो कृष्ण वर्णं धारण कर “एष ह्येवानन्दयातीति"- इस निखिल जगत् को आनन्दित करते रहते हे, उन श्रुति प्रसिद्ध सत् स्वरूप श्रीकृष्ण कर्तृक “आ वर्तमानः" सर्वतोभावेन स्थिर अचञ्चल रूप मे वर्तमान अथवा जो पुनः पुनः आवर्तत होते रहते हँ, उन “सवितादेवः" सूर्यदेव ' मर्््यञ्च' मरणधर्मशील मनुष्यगण को ' अमृतं निवेशयन् ' अमृतत्व में निवेशित कर अथवा “अमृत” शब्द द्वारा देवतागण का बोध होता ठै, सुतरां पुनः पुनः आगमन पूर्वक देवता एवं मनुष्य को निज निज लोक मे अवस्थापित कर एवं “भुवनानि पश्यन्" निखिल लोक को प्रकाशित करते करते अथवा अवलोकन करते करते ' हिरण्मयेन रथेन ' सुवर्ण निग्मित रथ में आरोहण कर आयाति ' हमारे निकरस्थ यज्ञ भूमि मे आगमन करते हे । तैत्तिरीयोपनिषद् में उक्त टै “को ह्येवान्यात् कः प्राण्याद् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्" । अर्थात् वह ब्रह्म यदि आनन्द स्वरूप नहीं होते, तब इस जगत् मे कोन व्यक्ति जीवन धारण करने मे समर्थ होता 2 इससे सविता का चालक श्रीकृष्ण प्रदर्शित हुये हे, परन्तु ' कृष्ण ' पद रथ के विशेषण रूप म प्रयुक्त नहीं हौ सकता है, कारण, उभय शब्द के मध्य में विशेष व्यवधान है, एवं कृष्णता इत्यादि श्रुति वाक्य का भी विरोध होता हे! “ऋचोरदिवा" इस प्रकार कौत्तित होने से इस मन्त्र का सूर्य्यपरत्व ओपचारिक है, अर्थात् उसमे सूर्य्य का आरोप मात्र हुआ हे ॥६॥
यत् कृष्णरूपं कृत्वा प्राविशस्त्वं वनस्पतीन्।
ततस्त्वामेकविशतिधा संभरामि सुसंभूता ॥७॥
(ऋक् का परिचय अज्ञात हे)
अत्रैव मन्त्रान्तरमुदाहरति। यत् कृष्ण इति । हे भगवन्! यत् यस्मात्तव कृष्णः सत्यानन्दस्वरूपोऽपि मायाया रूपं रूपवज्जातीयं वियदादिकं कृत्वा निर्म्माय वनस्पतीन् स्थावरं जङ्गमच्च प्राविश: प्रविष्टवानसि । एतेन ' तत् सृष्ट्वा
४२ श्रीमन्त्रभागवतम्
तदे वानुप्राविशदि ' त्यस्या; (क) श्रुतेरथोँ दर्शितः। यतः प्राविशस्ततो हेतोर्वनस्पतिभ्यः सकाशात् त्वां तदन्तः प्रविष्टं संभरामि चिन्मया एव समिध आचिनोमीत्यर्थः। सुसंभृता सम्यगाभरणवताभावेन । एकविंशतिधेत्येकविंशोऽयं पुरुष इति संख्यासामान्यादिध्मस्याप्यात्मरूपत्वं दर्शितम्! एतेन “ओषधे त्रायस्वैनं शृणोत ग्रावाणः" इत्यचेतने प्रयोजन सम्बन्धोऽपि तत्तदन्तःप्रविष्ट- चेतनाभिप्रायेण नत्वचेतनांशाभिप्रायेण इत्यपि सर्वत्र जेयम् ॥७॥
अनुवाद - इस स्थल मे उदाहरण स्वरूप ओर एक मन्त्र उद्धूत हो रहा है। यथा- हे भगवन्! ' यत्" जिस हेतु ‹ त्वं ' तुम ' कृष्णः' सत्यानन्द स्वरूप होकर भी ' रूपं" माया का रूप अर्थात् जिसका रूप है, उस जातीय अन्तरिक्षादि का “कृत्वा" निर्माण कर “वनस्पतीन् स्थावर जद्कमादि के मध्य मे “प्राविश” अनुप्रविष्ट हे । इस स्थल मे ' तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्” वह संसार के समस्त पदार्थो कौ सृष्टि कर उसमे अनुप्रविष्ट हुआ। इस तैत्तिरीय श्रुति का अर्थ उससे प्रदशित हुआ है। ' ततः' ' तुम", उसमे अनुप्रविष्ट हो। अतः उस वनस्पति समूह के सकाश से ' त्वां" उसके अन्तः प्रविष्ट तुम्हें “सुसंभृता सम्यक् आभरण विशिष्ट भाव से एवं “एक विंशतिधा ' ' एकविंश यह पुरुष है, इस रूप से ' संभरामि ' चिन्मय स्वरूप समिध का संग्रह कर रहा हूं। इस स्थल मेँ “एक विंशतिधा" वाक्य से संख्या सामान्य हेतु यज्ञीय काष्ठ का भी भगवदात्मरूपत्व प्रदर्शित हुआ है। इस प्रकार “ओषधे त्रायस्वैनं ` शृणोत ग्रावाणः” इत्यादि मन्त्र अचेतन कं प्रति प्रयुक्त होने पर भी उसके अन्तः प्रविष्ट चैतन्य के उदेश्य से ही वह प्रयुक्त हुआ है। अचेतांश के उदेश्य से नहीं हे। इस प्रकार रीति का अनुसरण सर्वत्र करें ॥७॥
उत माता महिषमन्ववेनदमीत्वा जहति पुत्रदेवाः। अथाब्रवीदवृत्रमिन्द्रो हनिष्यन् सखे विष्णो वितरं विक्रमस्व ॥८ ॥ ऋ. ४।१८।११ कुतो हेतोर्भगवान् भूमाववततारेत्यत आह । उतमातेति। माता अदितिः। पृथिवीति यावत्। द्योः पिता पृथिवी मातेति मन्त्रवर्णात्। महिषं महान्तं इन्दर अन्ववेनत् अन्वविन्दत् । तस्य हितं स्ववचनं प्रकाशितवती । तदेवाह- अमी
श्रीगोक्छुल काण्डः ( ४३
स इति, हे पुत्र! अमी देवास्त्वा त्वां जहति । गोब्राह्मण यज्ञादीनामसुरै्भुवि भद्धेकृते भागमलभमानाः देवा अरक्षितारं त्यक्षयन्तीति भावः। अत्र इन्द्रो वृत्रं वारयति धर्म्ममिति वृत्रं असुरकुलं हनिष्यन् स्वयमशक्तः सत्निदमाह। सखे इति, हे सखे अन्तर्यामितया परमाप्ततम विष्णो व्यापनशीलवितरं विशेषेण सुतरां क्रमस्व अत्युत्करं पराक्रमं कुर । असुरान् जहीत्यर्थः ॥८॥
अनुवाद- किस हेतु श्रीभगवान् धराधाम मेँ अवतीर्णं हुए थे, इस मन्त्र मेँ वह विवृत हो रहा है। “माता देवमाता अदिति अथवा “द्यौः पिता, पृथिवीमातेति" मन्त्र कौ वर्णनानुसार माता शब्द से पृथिवी का भी बोध होता हे, सुतरां देवमाता अदिति अथवा पृथिवी “महिषं” महिममय “इन्द्रं देवराज इन्दर को “उत” वितकं कर “अन्वरेनत्" निवेदन कौ थीं, अर्थात् इन्दर के कल्याणकर इस प्रकार वाक्य प्रकाश कौ थीं, "हे पुत्र! अमी" असुर समृह, "देवान्" देवगण को एवं ' त्वा" तुम्हे जहाति ' हीन अथवा अकर्म्मण्य कर रहे है । धराधाम में असुरगण गो ब्राह्मण एवं याग यज्ञादि कौ हिंसा करने से देवगण यज्ञाशलाभ मे बञ्चित होकर अरक्षित का अर्थात् आश्रित का परित्याग कर रहे ह । इसमें तुम्हारी अकर्म्मण्यता दौर्बल्य ही प्रकाशित दै। “अथ अनन्तर “इन्द्रः” देवराज “वृत्रं ' धर्मबाधाकारी असुरकुल को “अहनिष्यन्" स्वयं विनष्ट करने मे अशक्त होकर “अब्रवीत्” श्रीभगवान् के निकट इस प्रकार प्रार्थना किए थे- “हे सखे" अन्तर्य्यामी रूप मे परमाप्ततम, अति निजजन, हे विष्णो !, हे विश्वव्यापी भगवन्! “वितरं" विशेष रूप से विक्रम पराक्रम का प्रकाश करो, असुरगण का विनाश करो ॥८ ॥
सप्ताद्धंगर्भा भुवनस्य रेतो विष्णोस्तिष्ठन्ति प्रदिज्ञा विधर्मणि। ते धीतिभिर्मनसा ते विपश्चितः परिभवन्ति विश्वतः ॥९॥ ऋ. १।३।२१/१।१६४।३६ स एवमिनद्रेणाभ्यर्थितो विष्णुर्देवक्या उदरे योगमायाद्रारा पूर्वं सप्त- संख्यान् अरद्धगर्भान् आवेशयदित्याह। सप्तार्धगर्भा इति। कालनेमि पुत्राः षड्गभयख्याः ब्रह्माणमाराध्यामरत्वं प्राप्ता अपि पितामहेन हिरण्यकशिपुना पितामहं परित्यज्य देवपितामहं श्रयन्तो यूयं स्वपितर्हस्तेनैव मरणं प्राप्स्यतेति
४४) श्रीमन्रभागवतम्
शप्ताः ते पाताले शयाना ब्रह्यवरदानात् स्थूलेन शरीरेणाविनष्टा अपि दैत्यशापाल्लिद्गशरीरेणैव वाशिष्टोदाह्यतलवणवत् योगमायाबलेन जन्मान्तरं लेभिरे । तत्र च कसीभूतेन कालनेमिना ते निहता इति हरिवंशे उपाख्यायते । तेन षण्णामरद्धगर्भत्वम्, रामोऽपि देवक्या उदरात् सप्तमगर्भ एव योगमायया निष्कास्य रोहिण्या उदरे निवेशित इति अयमपि अर्दधगर्भ एव । एवं सप्त अर्द्धगर्भा भुवनस्य रेतो भुवनबीजभूतस्य विष्णोः प्रदिश्यत इति प्रदिक् तया प्रदिशा आ्ञाकारिण्या योगमायया हेतुतया विधसम्मिणि विपरीते धर्म अंशेन अमरत्वम॑शेन जन्मादिभाकत्वमित्येवं रूपेषु भूचरेषु अत्यन्त दुष्करेषु तिष्ठन्ति । एतदेवाह, ते इति। ते सप्तगर्भाः विपरिचतो ज्ञानवन्तः धीतिभिः पूर्वेषां देहानां निधानै- रवस्थापनैः परिभवन्ति साकल्येन वर्तन्ते, पुनश्च ते मनसा परिभुवः मनोमात्रेण साधनेन विश्वतः देहेन्द्रियादि साकल्येन सम्पन्नाः सन्तः परिभवन्ति उत्पद्यन्ते पुनरित्यर्थः। अत्र रामविषये मनसेत्युभयत्रान्वितेति। तस्य मातृहयेऽपि मनोमात्रेण प्रवेशात् स्वकर्मजदेहाभावादिति ध्येयम् ॥९॥
अनुवाद -- इस प्रकार इन्द्र द्वारा अभ्य्थित भगवान् विष्णु, देवको के उदर मे योगमाया द्वारा पूर्व मे सप्त संख्यक अर्द्गर्भ को सञ्चारित किये थे। हरिवंश मे इसका एक उपाख्यान है। कालनेमि के पुत्रगण ' षड्गर्भ' नाम से अभिहित दै । उन्होने ब्रह्मा की आराधना से अमरत्व प्राप्त करने पर भी निज पितामह हिरण्यकशिपु से अभिशप्त हुये । पितामह ने कहा- तुम सबने निज पितामह हिरण्यकशिपु मुञ्को छोडकर देव पितामह का शरण ग्रहण किया हे, अतएव तुम सब स्वीय पिता के हाथ से निधन को प्राप्त होओगे । इस प्रकार वे सब पाताल में अवस्थित हुए, स्थूल शरीर भी विनष्ट नहीं हुआ, क्यों ब्रह्मा से वर प्राप्त हुये थे। किन्तु दैत्य शाप के कारण लिङ्ग शरीर से ही वाशिष्ट उदाहत लवण कौ भांति योगमाया द्वारा देवको के गर्भं से उत्पन्न हुये, कालनेमि ने कस रूप से उन सबको मारा, इस हेतु उक्त षड्गर्भ अरद्धगर्भ नाम से अभिहित दै। बलराम भी देवकी के गर्भं से सप्तम गर्भके रूपमे योगमाया द्वारा निष्कासित होकर रोहिणी के गर्भं में निवेशित हुए, अतएव यह भी अर्द्ध गर्भं है । इस प्रकार “सप्ताद्धं गर्भा" सप्त अर्द्धं गर्भं “भुवनस्य रेतः" निखिल भुवन के बीज स्वरूप “विष्णोः" भगवान् विष्णु कौ “प्रदिशा” आज्ञाकारिणी
श्रीगोकुल काण्डः ( ४५
योगमाया द्वारा “विध्मिणि" असुर धर्म का विपरीत धर्म मे अर्थात् देवांश में जन्मादि युक्त होकर धराधाम मे अत्यन्त दुष्कर मनुष्यादि रूप मे अवस्थान करते है । “ते” ये सप्त गर्भ समृह “विपश्चित'' ज्ञानवान् एवं “धीतिभिः” पूर्व देह का निधान- अवस्थापन के द्वारा “परिभवन्ति साकल्य में विराजित हैँ! पुनश्च वे सब “मनसा” मनोमात्र साधना के द्वारा “विश्वतः” देहेन्द्रियादि सर्वावयव सम्पन्न होकर “परिभवन्ति” जन्म ग्रहण किए थे। इस स्थल में राम के विषय मे "मनसा" वाक्य प्रयुक्त हुआ टै, उसका अन्वय उभयत्र ही होगा। स्वकर्म जनित देहाभाव से बलराम का मातृद्रय में प्रवेश केवल मन के द्वारा ही संघटित हुआ था॥९॥
य ई चकार न सो अस्य वेद य ई ददर्शं हिरुगिन्नु तस्मात्। स मातुरय्योनापरिवीतो अन्तर्व्वहु प्रजा निऋतिमाविवे ॥९०॥ ऋग्वेद १।३।२०/१।९६४।३२, अथर्व ९।९१०।१९०, नि. २।८ कृष्णान्नियानमिति भगवतो भू प्रवेश उक्तः तं विशदयति- य ईमिति, योऽयं धीधातुः ई एनं प्रपञ्चं चकार कल्पितवान् सः अस्य एलं प्रपञ्चं न वेद, न हि जडुं मनः स्वकार्य्यं वेदितुमलं मृदिव घटम्। यश्चाहद्कारः ई एनं ददर्श यो द्रष्टृत्वाभिमानी तस्मादपि नु निश्चितं हिरुक् पृथक् इत एव य एवं विधोऽहकारस्यापि साक्षी केवल दृट्मात्रस्वरूपं स मातुर्योना । सुपां सुलुगिति सुपोडा। योनेः गर्भाशयस्य अन्तर्मध्येऽ परिवीतो अर्थात् जरायुनाऽ वेष्टितो भूत्वा निऋतिं भूमि आविवेश। कौदृशः। बहुप्रजाः। अष्टोत्तरशताधिकषोडश- सहस्र््रीषु प्रत्येक दशपुत्रान् एकां कन्यां च प्रतिखियं जनयतः स्पष्टं पुराणेषु बहुप्रजत्वम्। एतच्च ' कृष्णस्तु भगवान् स्वयमि ' त्यस्या: स्मृतेर्मूलम् ॥१०॥ अनुवाद - इतः पूर्वे “कृष्णं नियानमिति" मन्त्र मे जो भगवान् का धरावतरण विषय उक्त है, बह इस मन्त्र मे विशद रूप से विवृत हुआ हे। “य: यह धी धातु रूप “ई" यह निखिल संसार “चकार रचना कौ हे। “सः” वह, “अस्य'' इस जगत् प्रपञ्च का कुछ भी “न वेद" विदित नहीं है । मृत्तिका घर रूप से परिणत होता है, अतः मृत्तिका को घट के विषय मे अवगत होने का प्रयोजन नहीं है, उस प्रकार जड़ भावाच्छ्न मन को स्व कार्य जानने का
द्) श्रीमन्रभागवतम्
प्रयोजन भी नहीं हे। पुनः 'यः' जो अहङ्कार “ई” इस प्रपञ्च का दर्शक थे, अर्थात् दरष्टृत् का अभिमानी थे, “तस्मात्” उससे भी “नु” निश्चय ही, “हिरुक्” पृथक्, अतएव एवम्बिध अहङ्कार का साक्षी एवं केवल दृकूमात्रस्वरूप, “सः” उन भगवान् विष्णु “मातुर्योना” जननी के गर्भाशिय के “अन्तः” अभ्यन्तर मे “अपरिवीतः" जरायु के द्वारा अपरिवेष्टित होकर “निऋतिं” भूतल मे “आविवेश आविर्भूत हुए थे। एवं बह ही “बहुप्रजाः” अष्योत्तरशताधिक षोडश सहस खत्री के मध्य मे प्रत्येक खरी मे दश पुत्र एवं एक कन्या उत्पन्न किए थे। इस प्रकार उनके बहुप्रजत्व का विवरण श्रीभागवत १०।९० में घोषित हे। यह ही ' कृष्णस्तु भगवान् स्वयमिति ' स्मृति का मूल है ॥१०॥
कृष्णं त त्रम रुशतः पुरोभाश्चरिष्ण्वच्चर्वपुषामिदेकम्।
यदप्रवीता दधतेऽगर्भं सद्यश्चिज्जातो भवसीदुदूतः ॥९९॥
ऋग्वेद ३।५।७/४।७।९ कथं पुनमातुर्योनावाविवेशेत्यत आह । कृष्णं त एमेति। हे भूमन्! ते तव रुद्ररूपेण पुरस्िखो रुशतो नाशयतः यद्रा पुरः स्थूलसृक््मकारण देहान् ग्रसत स्त्य स्वरूपस्य य कृष्णं भाः सत्यानन्दचिन्मात्रं रूपं तत्तु ' एम ' प्राप्नुयाम । यस्य तव एकमित्- एकमेव अच्चिः ज्वालावदंशमात्रं समष्टिजीवरूपं वपुषां देहानां अनेकेषु देहेषु चरिष्णु भोक्तृरूपेण वर्तते यत् कृष्णं भाः अप्रवीता नास्ति प्रकर्षेण वीतं गमनं यथेष्ट सञ्चारो यस्याः सा। निरुद्धगतिर्निगड्ग्रस्ता देवकौत्यर्थः। ' कृष्णाय देवकौपुत्रायेति छान्दोग्ये '" देवक्या एव कृष्णमातृत्व दर्शनात् सा स्वगर्भ दधते धारयति । दध धारणे इत्यस्य रूपम् ह प्रसिद्धम्। स त्वं जातो देव जातो गर्भतो बहिराविर्भूतः सन् सद्य इदु सद्य एव चित् निश्चितं खलु दूतो दुनोतीति दूतः मातुः खेदकरो वियोगदुःखप्रदो भवसीत्यर्थः । एतेन देवकौपते वसुदेवस्य गृहे जन्मधृतवानिति सुचितम्। तत्र वैकुण्ठस्य इन्द्रस्य वाक्यम् । ' अह भुवं वसुनः पूर्व्यस्पतिरि 'ति ' प्राश्रावयं शवसा तुर्वसुं यदुमि 'ति च प्रमाणम्। तत्र हरिवशे पूर्वं सोमवशात् ययातेः सकाशात् यस्य यदोः क्रोष्टरादीनारभ्य शूरवसुदेवान्तौ वंश उक्तः, विकट वाक्ये पुनः सूर्य्यवंशात् हर्य्यश्वाज्जातस्य यदोरेव माधवादिक्रमेण वसु-वसुदेवान्तो वंश उक्तः। तत्र
श्रीगोकुल काण्डः ( ४७
यथा ब्रह्मपुत्रस्य वशिष्ठस्य पुनर्जातस्यापि नामरूपयोर्भद : पर्वान्वयात् विच्छेदश्च नासीत्, मित्रावरुणाभ्यां एवं ययातितो हर्यश्वाच्च जातस्य यदोरपि ज्ेयम्। यथा च ब्रह्मपत्रस्यापि सनत्कुमारस्य कार्चिकेयत्ये स्कन्द इति नाममात्रं भिन्नं व्यनक्ति। तमसस्पारं दर्शयति, भगवान् सनत्कुमारस्तं स्कन्द इत्याचक्षते इति छान्दोग्ये दर्शनात्। तथा शूरस्य ययात्यन्वये हर्य्यश्वान्वये च जातस्य वसुरिति नाममात्रेण भेदः । तेन वसुदेवस्य शूरपत्रत्वं वसुपुतरत्व्च सङ्गच्छते। अतएवमुदाहत शरु्योरर्थः-- अहं वसुनः वसोः सकाशात् भुवं अभवम्। अड्भावः शवभावो गुणाभावश्चार्षः । पूर्व्यः आद्यपतिः स्वामी, अविशेषात् कृत्स्नस्य जगत इत्यर्थः । तथाहं श्रवसा बलेन तुर्वसुं यदु परश्रावयं- प्रकर्षेण श्रावितवानस्मि- यदुवंशीयाः वयमतिबलवत्तराः, इति । अत्र तर्वसुर््रहणं ययाते र्यदुवंशजत्व ज्ञापनार्थम् तेन यदुवंशे उत्पन्नस्य देवकी भरतुर्गृहे भगवानुत्पत्न इति प्रसिद्धम् ॥११॥ अनुवाद्- अतःपर श्रीकृष्ण किस प्रकार मातृगर्भं मेँ आविर्भूत हुए थे, इस मन्त्र मे उसका विवरण कथित है । “हे भूमन्" हे विराट पुरुष! ` त' तव, आपके रुद्र रूप के द्वारा ही “पुर :" त्रिपुर “रुशतः ' ध्वंस हुआ था, अथवा पुर शब्द से स्थूल सूक्ष्म एवं कारण शरीर का बोध होता है । आप उस देहत्रय को ग्रास करते दै । आपके तुरीय स्वरूप का जो “कृष्णं भा" सत्यानन्द चिन्मात्र रूप हे, उसको हमने ' एम ' प्राप्त किया है । आपके “एकं इत् अच्चिः” एकमात्र स्फुलिङ्गवत् अंश ही समष्टि जीवरूप मे “वपुषां चरिष्णु" निखिल जीव देह में भोक्त रूप में विराजित है। “यत्” जिसको अर्थात् उन श्रीकृष्ण को ही, “अप्रवीता” प्रकर्षं के साथ वीत अर्थात् गमन अथवा यथेष्ठ सञ्चार नहीं हे, जो लोग उन निरुद्ध गति निगड़ बद्धा ' देवकीगर्भ ह दधते" स्वीय गर्भम धारण किया। यह सब ही प्रसिद्ध है । छान्दोग्य उपनिषद् मेँ “कृष्णाय देवकी पुत्रायेति" इत्यादि वाक्य मेँ देवको का कृष्ण मातृत्व का उद्ेख स्पष्टतः है । आपने सह “जातदेवः” देवकी के गर्भ से बाहर आविर्भूत होकर 'सद्य' तक्षणात् “दु :" परमैश्वर्य्य का प्रकाश किया, एवं तत्क्षणात् “चित्” निश्चित “दूतः" जननी को वियोग दु ःखप्रद भवसि ' हुए । देवकी पति वसुदेव के गृह मेँ जन्म ग्रहण किए थे इससे वह सूचित ह॒आ। इस विषय में वैकुण्ठे का अर्थात् श्रीनारायण का वाक्य इस
४८ ) श्रीमन््रभागवतम्
प्रकार है। “अहं भुवं वसुनः पूर्वम्पतिरिति" प्राश्रावयत् शवस्य तुर्वसुं यदुमिति" । य्य वसु ही यदु टै, उसका उषे हरिवंश मे है । पूर्व मे सोमवंशीय ययाति से यदुवंशीय क्रोष्टादि से आरम्भ कर अन्त में शूरसेन वसुदेव पर्य्यन्त कथित हे। विकदरू वाक्य मे पुनर्वर सूर्य्यवंशीय हर्य्यश्व से जात यदु काही माधवादि क्रम से वसु वसुदेव पर्यन्त कथित हुआ है । जिस प्रकार ब्रह्मा कं पुत्र वशिष्ठ का पुनर्वार मित्रावरण से जन्म होने पर भी उनका केवल नामरूपसेही भेद था, पर्वान्वय से विच्छेद नहीं हुआ । पुनः ब्रह्मा पुत्र सनत्कुमार का ही कार्तिकेय रूप मेँ स्कन्द नाम ह॒आ। इस विषय में प्रमाण छन्दोग्य मे है। “तम सम्पारं दर्शयति भगवान् सनत्कुमार स्तं स्कन्द इत्याचक्षत" । इस प्रकार शूर का ययाति के अन्वय मेँ एवं हर्य्यश्वान्वय मेँ जात “वसु" नाममात्र भेद है । सुतरां वसुदेव का शुरपुतरत्व, वसुपुत्रत्व सङ्गत ही है । अतएव उदाहृत श्रुति का अर्थ यह है कि “अहं वसुनः वसोः सकाशात् भुवं अभवनित्यादि"', अर्थात् भँ ही वसुदेव से उत्पन हुआ । “पूर्व्य ' अर्थात् आद्य स्वामी वा अविशेष हेतु निखिल जगत् के अधिस्वामी भें इस विषय का श्रवण बलपूर्वक तुरवसु यदु को प्रकृष्ट रूप से करवाया था। यद्ुवंशीय हम सब अतिशय बलवान् थे। ययाति से उत्पन्न यदुवंश मे ही उत्पतन हुआ है, यह ज्ञापन के निमित्त ही यहा “तुर्वसु" नाम गृहीत हुभ। अतएव यदुवंशजात देवकी पति वसुदेव क गृह मे भगवान् आविर्भूत हए थे, यह सर्वत्र प्रसिद्ध ठे ॥१९॥
विष्णुं स्तोमासः पुरुदस्ममर्काभिगस्येव कारिणो यामनि ग्मन्। उरुक्रमः ककुहो यस्य पू्वीनमर्दधन्ति युवतयो जनित्रीः ॥१२॥ ऋग्वेद -३।३।२६/ ३।५४।१४ अयं जातमात्रो मात्रा वियुक्त इत्युक्तं तत्र हेतुमाह । विष्णुमिति । स्तोमासः स्तोमाः। आज्जसेरसुक् । स्तुत्याः महान्तो विष्णुं पुरुदस्मं ब्रह्मायतन अर्काः अर्भकाः। यामनि भक्तजनेषु प्रेमपीयूष परिवेषणे ग्मन् । मन्त्रे घसेतिले्लुक्। गता प्राप्ताः। यमो परिवेषणे एवमित्वादिह परिवेषणे यमे्हस्वो न । कं इव ? भगस्य देश्वर्य्यकारिण इव। अयमर्थः-- एकः पुत्रमिव प्रेम्ना वस्त्रालङ्कारणादिना विष्णुमर्हितं करोति अपरो दण्डभयाद्राजानमिव । तत्रारा
श्रीगोकुल काण्डः ( ४९
धनस्यैकरूपत्वेपि भाव भेदात्। उरुक्रमो रर्महास्तरैलोक्याक्रमणसमर्थः क्रमः पादविक्षेपो यस्य सः ककुहः कुहकोऽस्ति। यतो यस्य पूर्वीर्जनयित्री प्रथममातः युवतयः देवकाद्याः। बहुत्वं कल्पभेदाभिप्रायेण पूजायां वा। अत्र सुपां सुपो भवन्तीति जसं शस्। नमर्द्धन्ति भगवद्दत्तेन महिम्ना उपेता अपि न ततूकर्चकेण प्रेम्ना क्लिद्यन्ते। तेन प्रेमभक्तेषु गोकुलजनेष्वनुरक्तोऽ भूदिति ॥१२॥
अनुवाद - भगवान जन्म ग्रहण करके ही माता से विच्छिन्न हो गये थे । इस मन्त्र मे उसका हेतु प्रदर्धित हुआ है। “स्तोमासः” जो जन स्तुति के द्वारा महिमान्वित है, बे सब “विष्णुं पुरुदस्मं" विष्णु रूप ब्रह्मायतन को “अर्काः शिशु रूप में “यामनि” भक्तजन के प्रति प्रेम पीयूष परिवेषणार्थं “भगस्य कारिण इव " एेश्वर्य्यकारिगण के न्याय "ग्मन्" प्राप्त हुये थे। फलतः एक व्यक्ति पुत्र स्नेह कौ पराकाष्ठा का प्रदर्शन कर वस्त्रालङ्कारादि द्वारा विष्णु को अच्चित करता है, अपर व्यक्तिदण्ड भय से राजा के समान उनकी अर्च्चना करता हे। इस स्थल मे आराधना एकरूप होने पर भी भावभेद् हेतु उक्तरूप अर्च्चना भेद को जानना होना। आप “उरुक्रमः” उरु-महान् अर्थात् त्रैलोक्य क्रमण मे समर्थ, इस प्रकार पादविक्षेप विशिष्ट एवं “ककुहः” कुहकमय है, कारण “यस्यपूर्वी" उनकी पूर्वजनयित्री प्रथम मातृगण “युवतयः” देवकी प्रभृति “नमरदधन्ति" भगवददत्त महिमान्विता होकर भी ततकर्चुक प्रेमद्रारा क्लिन्ना अर्थात् अभिषिक्ता नहीं होती दँ । अतएव प्रेमभक्त गोकुल जन के प्रति ही आप अनुरक्त होते है, यह परिव्यक्त हुआ । यँ जननी का बहुत्व, कल्प भेदाभिप्राय से वा पूज्य विषय में प्रयुक्त हे ॥१२॥
सस्वश्चिद्धि तन्वः शुम्भमाना आ हंसासो नीलपृष्ठा अपप्तन्। विश्वं शर्धो अभितो मा निषेद नरो न रण्वाः सवने मदन्तः ॥ १२॥ ऋग्वेद ५ ।४।३०/ ७।५९ 1७ सद्यश्चिज्जात इति य उक्तस्तं जातमात्रं देवा परिवन्नुरित्याह वशिष्ठः। सस्वश्चिद्धीति। सस्वर्गः- यन्न दुःखेन संभिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम्। अभिलाषोपनीतं च ततसुखं स्वः पदास्पदमिति श्रुतिनिरुक्तं सुखवतासमानं सस्वः श्रीकृष्णाध्यासितं भूमण्डलं । चिद्धि इत्यनर्थको निपातौ सूचन प्रसिद्धयर्थो
५० } श्रीमन्त्रभागवतम्
वा हंसासो हसा देवाः आ समन्तात् गताः प्राप्ताः तन्वः तनुः शुम्भमानाः शोभयन्तः । दिव्यरूपधारिणः इत्यर्थः। नीलपृष्टाः। डलयोरेक्यात् नीड स्वर्गः पृष्ठं येषां ते नीडपृष्टाः। अशमात्रेण स्वर्गेस्थित्वा सर्वात्मना भूमिमागता इत्यर्थः। विश्वं कृत्स्नं शरद्धः। शृधु क्लेदने वृष्टिकरं द्युस्थानमन्तरिक्षस्थानं च देवता युयं अभितः समन्तात् मा मां मदभित्नं निषेद निषषाद । अत्र वशिष्ठः मा इति प्रत्यग् भेदादीश्वरमस्मत् शब्देन निर्दिशति ' मामुपासस्वेति अहं मनुरभवमि तीन्द्र वामदेवादिवत्॥ अत्रदृष्टान्तः। नरोनेत्यादि । न शब्द उपमार्थे । यथा नरो मनुष्याः सवने पुत्रजन्मादि-उत्सवे रण्वाः रमणशीला मदन्तो हष्यन्तः संष्क्रियमाणस्य शिशोरभितो निषीदन्त्येव देवाः कृष्णमभितो निषेदुरित्यर्थः॥१३॥
अनुवाद श्रीभगवान् प्रकर होने से ही देवगण उनको चारो दिक से परिवेष्टन कर उपस्थित हुए थे, इसे ही वशिष्ठदेव इस मन्त्र में प्रकाश किए है, “स स्वः", जो दुःख से संभिन्न नहीं होता है, जिसको कोई ग्रास नहीं कर सकता है, जो अन्तर रहित हे, एवं जो अभिलाष मात्र से उपनीत होता है, वह सुख ही “स्वः पद का विषयीभूत हे । यह श्रुति निरुक्त कथित सुखवत्ता तुल्य “स स्वः" अर्थात् स्वर्गतुल्य श्रीकृष्णाध्यासित भूमण्डल को ही “विद्धि प्रसिद्ध रूप मे “हसासः"” देवगण “आ अपप्तन्" सर्वतो भावेन प्राप्त हुए थे। उनके “तन्वः” देह “शुम्भमानाः” अतिशय शोभान्वित हुए थे। फलतः उनके “नीलपृष्ठा” “नीड्पृष्ठाः" अंशमात्र से स्वर्ग मे रहकर भी दिव्य रूप धारणपूर्वक सर्वात्म के सहित भूतल मे आगमन किए थे। “विश्वं शद्धः” निखिल वृष्टिकर द्युस्थान, अन्तरिक्ष स्थान को हे देवतागण आप सब “मा मा" हमसे अभिन्न रूप में प्राप्त किये थे। यहाँ पर वशिष्ठदेव “मा” इस वाक्य मे प्रत्यक् भेद अर्थात् जीवात्मा स्वरूप मे अभेद हेतु अस्मद् शब्द द्वारा परमेश्वर का ही निर्देश किए है । इन्द्र जिस प्रकार कहे थे, ' मामुपास स्वेति। ' मेरी उपासना करो एवं वामदेव भी बोले थे “अह मनुरभवम्" अर्थात ही मनु लना था। अतएव “नरो न" उपमार्थे, मनुष्यगण जिस प्रकार “सवने” पुत्र जन्मादि उत्सव मे “रण्वाः" रमणशील क्रोडाशील होकर 'मदन्तः' आनन्द प्रकाश करते करते संष्क्रियमान शिशु के निकट मे उपस्थित होते है, उस प्रकार देवगण भी श्रीकृष्ण के निकट मे समागत हुए थे ॥१३॥
श्रीगोकूल काण्डः ( ५१
इमे दिवो अनिमिषा पृथिव्याश्चिकित्वांसो अचेतसं नयन्ति। प्रव्राजे चित्नद्यो गाधमस्तिपारं नो अस्य विष्पितस्य पर्षन् ॥१२४॥ ऋग्वेद -५।५।२/ ७।६० ७, नि. ६।२०
एवं निषण्णा देवाः वसुदेवं सम्बोधयन्ति इमे दिव इति। भो मनुज । इमे परिदृश्यमाना दिवः सम्बन्धिनो देवाः अनिमिषा: निमिषवर्जितत्वेन अत्यन्तं सावधानाः पृथिव्याः सम्बन्धिनं अचेतसं अज्ञं जनं स्वयं चिकित्वांसः तस्य हितं जानन्तः नयन्ति एवं कुरुष्वेति शिक्षयन्ति। तदेवाह ! प्रत्राज इति। प्रकर्षेण व्रजते देशसीमामुद्छद््य गच्छते पुरुषाय नद्यो यमुना ततूसम्बन्धिजलम्। सोः जस् भावः आर्षः। गाधं प्रावृट् कालेऽपि जानुदघ्नमस्ति। अतो नोस्माकं पुरोवर्तिनोऽस्य शिशोर्विष्पितस्य वेवेष्टि व्याप्नोति इति विट्। पाति पिबतीति वा पितः विर् चासौ पितश्च विष्पितः जगतः सृष्टिस्थितिप्रलयकृत् तस्य । विषशब्दस्यार्षं षत्वम् । कर्मणि षष्ठी । एवञ्च विष्पितं पारं यमुनायाः तीरं प्रापयितुं पर्षण् स्नेहवान् आदरयुक्तो भव । यमुना च तुभ्यं मार्गं दास्यतीति भावः॥१४॥
अनुवाद- इस प्रकार समागत देवगण वसुदेव को सम्बोधन कर कहने लगे। हे मनुष्य ! “इमे” परिदृश्यमान् “दिवः” दिव् धातु सम्बन्धी अर्थात् देवगण “अनिमिषा” निर्मेष वर्जित होकर अर्थात् अत्यन्त सावधान होकर “पृथिव्याः” पृथिवी सम्बन्धीय अर्थात् पार्थिव ' अचेतसं ' अज्ञ जनको स्वयं जानकर “चिकित्वासः" उसका हित किससे होगा, यह जानकर “नयन्ति” एेसा करो कहकर उपदेश देते है । सुतरां आप इस चिन्मय पुरुष को लेकर देश सीमा का उ्छद्ुन कर गमन करं । आपका गमन समय में “प्रव्राजे चित्" गमनकाल में विस्मय ^“ नद्योः" श्रीयमुना का जल इस प्रावृट् कालमें भी “गाधं अस्ति" अगभीर अर्थात् जानुपरिमित होगा। अतएव “नः” हमारे पुरोवर्ति “अस्य विपश्चितस्य" इस जगत के सृष्टिस्थिति प्रलयकारी शिशुके “पारं” यमुना के परपार में ले जाने के निमित्त “पर्षन्" स्नेहवान बनो । श्रीयमुना अवश्य ही तुम्हारे गन्तव्य पथ प्रदान करेगी, यह ही तात्पर्य्य है ॥१४॥
५२ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
यद् गोपावददितिः शर्मभद्रं मित्रा यच्छन्ति वरुणः सुदासे। तस्मिन्नातोकन्तनयं दधानामाकर्म देव हेलनं तुरासः ॥९५॥ ऋग्वेद ५।५।२/ ७।६०।८
ननु कथमितरैरलातेन मया अयं पारं नेतुं शक्यः, क्व वायं नीत्वा स्थापनीय इत्त्याकाद्कयामाह । यद् गोपेति। यत् स्थानं गोपावात् गोपालयुक्त यत्र च अदितिर्मित्रो वरुणश्च सुदासे शोभनाय दानाय भद्र उत्सवादिरूपं शर्म सुखं भद्रं अनामयं च यच्छन्ति, तस्मिन् स्थाने तोक तनयं आदधानाः आदधानः भवेति शेषः। तत्र स्थापयेत्यर्थः। भो तुरासः इतस्ततः प्लवमानमनोवेगत्रस्ता देवहेलनं देवानामवक्ञानं मा कर्म मा कुरुत । आर्षः पुरुषव्यत्ययः। स्वाभेद- विवक्षया वा ॥१५॥
अनुवाद -- यदि कहो किमे छिपकर इस शिशु को केसे यमुना पारमेंलेजासकौंगा 2 एवं ले जाकर इसे कोँ रखुँगा 2 उसके उत्तर मे कहते है, "यत्" जो स्थान, ' गोपावत्' गोपगण समन्वित है, एवं वँ “अदितिर्मित्र वरुणश्च" अदिति, मित्र वरुण, “सुदासे शोभन -दान स्वरूप मे * भद्र ' उत्सवादि रूप "शर्म॑" सुख, कल्याण-अनामय प्रदान करते रहते है, “तस्मिन्” उस स्थान मे, उस गोकुल में “तोक तनयं" तुम्हारे शिशु पुत्र को “आदधाना सम्यक् रूप मे स्थापनकारी बनो । अर्थात् वँ पर यत्नपूर्वक रक्षा करो। “हे तुरासः” इतस्ततः दोलायमान मनोवेगत्रस्त “देव ” हे वसुदेव ! “हेलनं” देवतागण के इस आज्ञा का अवहेलन न करो, शीघ्र इसे ले जाजो ॥१५॥
इदमु त्यत्पुरुतमं पुरस्ताज्ज्योतिस्तमसो वयुनावदस्थात्। नुनं दिवो दुहितरो विभातीर्गान्तु कृणवननुषसो जनाय ॥९६॥ ऋ. ३।८।१/ ४।५१।१, नि. ४।२५
एवं देवैराज्ञप्तो वसुदेवः कृष्णमानीय नन्दागारे यशोदा निकटे स्थापितवान् । तेनैव सह गताः देवाः तत्र भगवतः स्वरूपं वर्णयन्ति इदम् उत्पति, त्रिभिर्मनत्रेः। इदं शिशुरूपेण दृश्यमानं नूनं निश्चितं तत् वेदान्त प्रसिद्ध ज्योतिर्चिन्मात्रं पुरुतमं भूमसज्ञं तमसः तमः कार्य्यात् संसारात् तत्कारणाद- व्याकृताच्च पुरस्तात् पूर्वं उदस्थात् उत्थितं नित्यमाविर्भूतम् वयूनं प्रशस्तं कर्म
श्रीगोकुल काण्डः ( ५३
दुष्टनिग्रहशिष्टपालनरूपम्। देयं सांहितिकं वयुनावत् भवितुं जातमित्यर्थः। उषसः उषोभिमानिन्यो देवताः गां तु पृथिवीं कृणवन् अलंचक्रुः। अथेतिशेषः। जनाय-- दुष्टनिग्रहादिना जानहितायेत्यर्थ: । कीदृश्य उषसः। दिवो दुहितरः अव्याकृताकाशात् जाता इत्यर्थः। अतएव विभातीः विशेषेण भान्त्यः ॥१६॥
अनुवाद- इस प्रकार देवगण से आज्ञा प्राप्त कर, वसुदेव श्रीकृष्ण को लेकर नन्दालय मेँ श्रीयशोदा के निकट मेँ स्थापन किये। देवगण भी उनके साथ वहो जाकर श्रीभगवान् के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार से करने लगे, “इदं" शिशु रूप में दृश्यमान यह ही “नूनं” निश्चय ही उस वेदान्त प्रसिद्ध “ज्योतिः ' चिन्मात्र एवं “पुरुतमं” भूमा पुरुष; “तमसः” तमः कार्य्यरूप संसार एवं उसके कारण स्वरूप अव्याकृत के भी (वेदान्त के मत मेँ ब्रह्य व्यतीत जगत् उत्पत्ति का बीज, एवं साङ्कय मत मे अव्यक्त के ) “पुरस्तात्' पूर्व, पर्व मे स्थित । “अस्थात् उदस्थात" उत्थित अर्थात् नित्य आविर्भूत एवं “वयुनं” दुष्ट निग्रह ओर शिष्ट पालनरूप प्रशस्त कर्म के निमित्त ही सम्प्रति धराधाम में उदित हए है । इसके सहित “दिवो दुहितरः” अव्याकृत आकाश से जात, अतएव “विभातीः" विशेष प्रभाशालिनी “उषसः” उषोभिमानिनी देवतागण ˆ जनाय ' दुष्ट निग्रहादि द्वारा जीव के कल्याण साधन करने के निमित्त "गातु" पृथिवी को “कृणवन्" अलङ्क.त किए थे, अर्थात् वे सब भी धराधाम मे जन्म ग्रहण किये थे ॥१६॥
अस्थुरु चित्रा उषसः पुरस्तान्मिता इव स्वरबोऽध्वरेषु। व्युन्त व्रजस्य तमसोद्धारोच्छन्तीरब्रवञ्छुचयः पावकाः ॥ १७॥ ऋण्वेद- ३।८।१/ ४।५१।२
अस्थुरुचित्रा इति। पुरस्तादितः पूर्वं चित्राः उषसः अस्थूलार्थकराः उषःकालाः स्थिताः तथापि ताः मिता इव परिच्छिन्ना एव । अल्पानन्दकरत्वात्। अद्यतनी उषा अखण्डानन्द प्रकाशिकेत्यर्थः मितत्वे दृष्टान्तः । अध्वरेषु स्वरव इव युपैकदेशप्रादेशमात्र काष्ठतुल्या इत्यर्थः । एतास्तु व्रजस्य व्रजसम्बन्धिन- स्तमसो मूलाज्ञानस्य पोषकाणि द्वाराणि देहाद्यभिमानान् उ निश्चितं व्युच्छन्तीः वैपरीत्येन प्रकाशयन्ती अत्रन् व्रतवत्यः या शुचयः पावकाः शुद्धिकर्व्यः। अतो
५८) श्रीमन््रभागवतम्
व्रजस्य भाग्यमखण्डं ब्रह्य प्राक् क्वचिदप्यनाविर्भूतमाविरभूदिति भावः ॥१७॥
अनुवाद- ' पुरस्तात्" - इसके पूर्व मे “चित्राः उषसः” विचित्रा उषोभिमानिनी देवतागण भी “अस्थुरु” अस्थूलार्थकरा अर्थात् सृक्ष्मभाव से उषाकालरूप मे अवस्थित थे, तथापि वे सब ' मिता इव ' स्वल्पानन्द प्रद होने से परिच्छिन्न स्वरूप है । ठीक जसे "अध्वरेषु ' यक्ञसमृह मं प्रयोज्य ' स्वरव इव ' यूपैकदेश स्थित प्रादेश मात्र काष्ठ खण्ड तुल्य । किन्तु अद्यतनी उषा अखण्डानन्द प्रकाशिका वे सब ही ^ व्रजस्य तमसो दारः” व्रजसम्बन्धीय मूल अज्ञान के पोषकं द्वार स्वरूप देहाद्यभिमान समूह को “उ” निश्चय ' व्यच्छन्तीः' वैपरीत्य रूप मेँ प्रकाश करते रहते है, अर्थात् ब्रजवासियो के देहाभिमानादि अज्ञान का पोषक न होकर ऊपर के अज्ञान नाशक रूप में प्रकाश करते रहते है । वहोँ “अब्रन्" व्रतवतीगण “शुचयः” परमपवित्रा एवं “पावकाः” शुद्धि कर्तरीं है । अहो! व्रज का केसा सौभाग्य ! जो अखण्ड ब्रह्म, कहीं भी आविर्भूत नही हए, वह यहाँ आविर्भूत हुए हँ ॥१७॥
उच्छन्तीरद्य चितयन्त भोजान् राधो देयायोषसो मघोनीः। अचित्रे अन्तः पणयः ससन्त्वबुध्यमानास्तमसो विमध्ये ॥९८॥ ऋग्वेद ३।८।१/ ४/५१/३
न केवलं व्रजस्य भाग्यं अपितु भोजोपलक्षितानां वृष्ण्यन्धक यादवाना- मपीत्याह उच्छन्तीति। अद्य भोजान् उच्छन्ती क सेनाभिभूतान् भोजान् प्रकाशयन्ती: उषसः अचितयत जानीत राधोदेयाय धनप्रदानाय मघोनीः धनवती: । अत्र व्रजस्य तमसो द्वारा व्युच्छन्तीरिति भोजान् राधोदेयाय उच्छन्तीरिति च व्रजस्याज्ञानापगमेन परम पुरुष पुरुषार्थ भागित्वं, योजानां श्रीकरत्वेनावर- पुरुषार्थभागित्वं चोक्तम्, तत्र कारणं प्रागेवोक्तम् “विष्णुं स्तोमास" इत्यत्र । तथा अचित्रे अचमत्करणीये महामोहमये तमसि विमध्ये अन्तः स्थिता इति शेषः। पणयो असुराः ससन्तु स्वपन्तु यथा अनबुध्यमानाः। स्वहितमिति शेषः। तदेवं मनतरत्रयेण क्रमात् कृष्णस्याविर्भावो जनस्योपकाराय व्रजस्य कैवल्याय प्रीतिदानाय भोजानां राज्यादि लाभाय चेत्युक्तम् ॥१८ ॥
अनुवाद-- यह केवल व्रजवासियो का सौभाग्य नहीं है, अपितु
श्रीगोकुल काण्डः ( ५५
भोज, वृष्णि, अन्धक यादवों का भी सौभाग्य सूचक है। “अद्य भोजान् उच्छन्ती ः".अद्य कस के भय से अभिभूत भोजगण की प्रकाशकारिणी “उषसः” उषोभिमानिनी देवतागण को “अचितयत" अवगत हो जाओ कि वे सबही “राधोदेयाय” धन प्रदान के निमित्त “मघोनीः" धनवती है। यहाँ व्रज का तमोद्रार का प्रकाश विपरीत भाव से प्रकाश करते है, एवं धनदान के निमित्त भोजगण को प्रकाश करते हैँ। इस उभय वाक्य में पुरुषार्थ प्रकाश का तारतम्य सूचित हुआ है। व्रजजनगण का अज्ञान अपगमहेतु परम पुरुषरूप पुरुषार्थं लाभ, ओर भोजगण कौ श्रीवृद्धिरूप अवर पुरुषार्थ लाभ ही कथित हे । पूर्वोक्त ' विष्णुं स्तोमासः ' इत्यादि मन्त्र मेँ इसका कारण प्रदर्शित हुआ है। “अचित्रे" अचमतूकरणीय अर्थात् महामोहमय ' तमसामध्ये ' अज्ञान अन्धकार के अभ्यन्तर मे “पणयः” असुरगण ' ससन्तु ' निद्रित होने से वे सब निज निज हित “अनुध्यमानाः" को जानने मे असमर्थ होते हैँ । इस प्रकार उक्त मन्त्रत्रय द्वारा यथाक्रम से जीव का कल्याण साधन, व्रज का केवल्यप्रीतिदान ओर भोजगण को राज्य प्रदान के निमित्त ही श्रीभगवान् श्रीकृष्ण का आविर्भाव है, यह परिव्यक्त हुआ ॥१८॥
अपाङ प्राङेति स्वधया गृभीतोऽमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः। ता शाश्वता विषुचीना वियन्ता न्यन्यं चिक्युर्ण निचिक्युरन्यम्॥९९॥ ऋग्वेद २।३।२१/ १।१६४।३८ अथ रामकृष्णयोः सूत्रान्तर्यामिरूपयोः साहचर्य्यमाह, उपाङिति स एवं अपाट्ः प्रत्यड् सन् प्राड् परागिव एति अन्तरात्मापि सन् बहिभविन पुरुषान्तररूपेण चरति। कुतः। स्वधया लोकानां पुण्येन कर्मणा गृभीतो वशीकृतः सन् अमर्त्यः कृष्णोऽन्त्य्यामी मर्त्येन कृत्स्न कार्य्याभिमानिना सूत्रात्मना रामेण सयोनिः समानायां योनौ उदरे स्थाने वा भवतीति सयोनिः सौदर्य्यः सहचरन्तावुभावपि रामकृष्णौ शश्वन्ता शश्वत्भवो। यो वै तत्कार्य्यसूत्रं विद्यातं चान्तर्य्यामिणमिति प्रसिद्धौ सूत्रान्तर्यामिणो, विषुचीना विष्वञ्चौ व्यापकौ वियन्ता विविध प्रकारेण यन्तौ चरन्तौ तयोरण्यं एकं सर्वैजना निचिक्युः कार्य्यरूपत्वात् जानन्ति ज्ञातवन्तः, प्राञ्च इति वा । सूत्रात्मनोपि शास्रैकसमधिगम्यत्वात् अन्यं
५६ ) श्रीमन्रभागवतम्
कृष्णं न निचिक्युः इदं तया न जानीयुः प्रत्यगात्मत्वेनाविषयत्वात् गोपजना इत्यर्थ; ॥१९॥
अनुवाद- अनन्तर श्रीरामकृष्ण सूत्रान्त्य्यामि रूप मे परस्पर सहचर सहकारी है, उसे कहते हे । इस प्रकार वह भगवान् “अपाडः सन्" अन्तरात्मा होकर भी “प्राङ" बहिर्भाव मेँ पुरुषान्तर रूप मे “एति" विचरण करते रहते है, एवं '“ स्वधया '' लोक के पुण्य कर्म के द्वारा “गृभीतः वशीकृत होकर “अमर्त्य" अन्तर्य्यामी श्रीकृष्ण “मर्त्यन'' निखिल कार्य्याभिमानी सूत्रात्मा बलराम कौ “सयोनिः” - समान उदर मे, समान स्थान मे समुद्भूत । अतएव ' ता! रामकृष्ण उभय, परस्पर “शश्वन्ता” नित्य सहोदर एवं नित्य सहचर हुये थे। जो उनके कार्य्य सूत्र रूप मे विदित है एवं जो अन्तर्यामी हैँ, दोनों ही सूत्रान्तर्य्यामी नाम से प्रसिद्ध है । वे “विषुचीना'" व्यापक रूप में “वियन्ता विविध प्रकार से विचरण करते रहते हैँ । उभय भ्राता के मध्य मे “अन्यत्" एक जन को सब लोक “निचिक्युः" कार्य्य स्वरूप मे जानते है; इस कारण से वह सुत्रात्मारूप में शास्त्र मे सम्यक् अधिगम्य होते है । “अन्यं” अपर श्रीकृष्ण को “न निचिक्युः” गोपजन इस प्रकार जानने मे समर्थ नहँ हँ । कारण, आप प्रत्यगात्मा अर्थात् ब्रह्म अथवा परमेश्वर रूप मे इन्िय ज्ञानातीत है ॥१९॥
पृथुरथो दक्षिणाया आयोज्यैनं देवासो अमृतासो अस्थुः। कृष्णादुदस्थादर्य्यां विहायाश्चिकित्सन्ती मानुषाय क्षयाय ॥२०॥ ऋग्वेद- २।१।४/ १।१२३।१
हरिवंश क्रमेण प्रथमं शकटासुरभद्कमाह। दक्षिणायाः दक्षिणादिक् सम्बन्धी मृत्युदूत इत्यर्थः । रथः शकटं आयोजि नियुक्तम्। असुरैरिति शेषः। एनं अमृतासः अमृता देवासः देवाः आ समन्तात् अस्थुः परिवार्य्यं स्थितवन्तः, नतु भल्क्तं अशक्नवन्नित्यर्थः। स रथः कृष्णात् प्राप्य विहायाः आकाशात्त प्रति उदस्थात् उत्थितः। कृष्णेनान्तरीक्ष उतक्षिप्त इत्यर्थः। तदा मानुषाय मनुष्य- रूपस्य कृष्णस्य क्षयाय नारोऽपि विषये चेकित्सन्ती सन्दिहाना आर्य्या श्रेष्ठा सर्वा प्रजाः, अभूदिति शेषः। कथमेतत् शकटमुतृक्षिप्तं कथं वानेन सत्निहितोऽपि शिशुर्न मर्दित इत्याश्चर्य्यम् मन्यते इत्यर्थः ॥२०॥
श्रीगोकूल काण्डः ( ५७
अनुवाद- हरिवंश के क्रमानुसार श्रीकृष्ण ने प्रथम शकटासुर भङ्ग किया। इस मन्त्र मे उसका विवरण वर्णित हे। “दक्षिणाया” दक्षिण दिक् सम्बन्धि मृत्युदूत अर्थात् असुरगण “पृथुरथः"” एक विपुलायतन शकट को “अयोजि श्रीकृष्ण के उदेश्य मे नियुक्त किए थे। “अमृतास: देवासः" अमर भावापन्न देवगण एन" इस शकट को '* आ अस्थुः" चतुर्दिक् से वेष्टन कर उसको गति को प्रतिहत करके अवस्थान कर रहे थे, किन्तु उसको भग्न करने मे समर्थ नहीं हुए । बह रथ अर्थात् शकट “कृष्णात्” श्रीकृष्ण को प्राप्त कर “विहायाः” आकाश कौ ओर “उदस्थात्" उत्थित हुआ अर्थात् श्रीकृष्ण के हारा अन्तरिक्ष मे उतृक्षिप्त हुआ। उस समय ' मानुषाय ' मनुष्य रूपधारी श्रीकृष्ण के “क्षयाय” विनाश विषय मे “आर्या” श्रेष्ठ प्रजावृन्द “चिकित्सन्ती" विशेष सन्दिहान हए थे। केसे वह शकट उतुक्षिप्त हुआ, एवं केसे शकट सन्निहित होने पर भी उससे शिशु विमर्दित नही हुआ ? इसको वे सब आश्चर्य्य मानने लगे॥२०॥
हेतिः पक्षिणी न दभात्यस्मानाष्या पदं कृणुते अग्निधाने । शन्नो गोभ्यश्च पुरुषेभ्यश्चास्तु मा नो हिंसीदिह देवाः कपोतः ॥२१॥ ऋ. ८।८।२३/८ १०।१६५।३
शकुनिरूपायाः पूतनाया वधमाह, हेतिरिति। हेतिरिव हेतिरायूधवन् मृत्युरूपा पक्षिणी अस्मान् अभिभवितुमायातापि न दभाति नाभिभवति प्रत्युत अग्निधाने अग्निरूपस्य कृष्णस्य धाने पाने तर्पणे निमित्ते आष्या असुगति- दीप्त्यादानेषु । अस्मान्निजन्तात् तृच । दीपयन्त्यां अग्नीष्टिकायां पदं स्थानं कुरुते कृष्णाय स्तनदान व्याजेन वह्यावैव पपातेत्यर्थः। एवमुक्तवा शान्ति पठन्ति शत्र इति नोस्माकम् गोभ्यः पुरुषेभ्यश्च शं कल्याणमस्तु । भो देवाः कपोतो मूत्योर्दूतोऽस्मान् मा हिसीदिति ॥२१९॥
अनुवाद-- अतः पर शकुनिरूपा पूतना वध कथित हो रहा है। “हेतिः” आयुध के न्याय मृत्युरूपा “पक्षिणी" “पूतना'" “अस्मान्” हम सबको अभिभूत करने कं अभिप्राय से आगमन करने पर भी “न दभाति" अभिभूत करने में समर्थं नहीं हुई । किन्तु “अग्निधाने” अग्नि स्वरूप श्रीकृष्ण के पान
५८ ) श्रीमन्नभागवतम्
तृप्ति निमित्त “आघ्या" प्राणगति दीप्तिकारिणी “अग्नीष्टिकायां" अर्थात् अग्नि संस्कार में “पद” स्थान “कृणुते" किया। फलतः श्रीकृष्ण को विषाक्त स्तनपान कराने के छल से स्वयं ही अग्नि मे गिर गई थी । अनन्तर पुरवासिनी जननीगण एेसा कहकर शान्ति पाठ किए “नः” हमारे “गोभ्यः पुरुषेभ्यश्च" गोधन निचय एवं पुरुषगण के “शं” कल्याण “अस्तु” हो । “ भो" देवाः" हे देवगण! “इह इस स्थान में उस कपोतरूपी मृत्यु दूत जसे हमें “मा हिंसीत्" हिसा न करे ॥२१॥
साकं यक्ष्म प्रपत चाषेण किकिदीविना। साकं वातस्य ध्राज्या साकं नश्य निहाकया ॥२२॥ ऋग्वेद -८ ।५।१०/१०।९७।१३
वात्यारूपिणा तृणावर्तेन कृष्णे विहायसा नीते देवास्तं शपन्ति, साकमिति, हे यक्ष्म! महारोग वात्यारूप राक्षस ¦ चाषेण चाषवर्णेन शिशुना किकौत्यव्यक्तभाषणेन दीव्यता क्रौडता किकिदीविना कृष्णेन त्वत् प्रपतन हेतुना साक सार्द्धं त्वं प्रपत अन्तरिक्षात् च्युतो भव, तथा वातस्य ध्राज्यायां सुरेषया सोमस्पर्शिन्या वात्यया साकं सद्य एव नश्य नष्टोभव । तथा निहाकया नितरां हा इति कायति शब्दं करोत्यनयेति निहाका तीव्रवेदना तया साक नश्य, नष्टे च त्वयि भगवानस्मदीयो यथेष्टं विहरत्विति भावः। एवमुक्तमात्रे तत्तथेव जातमिति सेयम् ॥२२॥
अनुवाद-- वात्यारूपी तृणावर्त द्वारा श्रीकृष्ण को अन्तरिक्ष मे ले जाने से देवगण उसे अभिशाप देने लगे। “हे यक्ष !' हे महारोग वात्यारूप राक्षस! “चाषेण चास पक्षी के समान श्यामलवर्ण एवं “*किकि दीविना '' “किकि" यह अव्यक्त भाषा प्रकाशपूर्वक क्रीड़ाकारी बालक श्रीकृष्ण के प्रकृष्ट रूप मे पतन हेतु उसके “साक” सहित तुम भी “प्रपत अन्तरिक्ष से विच्युत हो जाओ, एवं “वातस्य ध्राज्या" सोमस्पिनी वात्या के “साक सहित अभी “नश्य'" विनष्ट हो जाओ, एवं “निहाकया” निरन्तर “हा" शब्द उत्पादनकारिणी तीव्र वेदना के सहित अभी नष्ट हो जाओ। कारण तुम्हारे विनष्ट होने से भगवान् हमारे इच्छानुरूप विहार करते रहेंगे । देवगण के इस
श्रीगोकुल काण्डः ( ५९
कथन के समय ही तृणावरत्तं की दशा तद्रूप हो गई थी। अर्थात् श्रीकृष्ण के साथ भूतल मे बह गिर गया था॥२२॥
नवा नो अग्न आभर स्तोतृभ्यः सुक्षितीरिषः। ते स्याम य आनृचुस्त्वादूतासो दमेदम इषं स्तोतृभ्य आभर ॥२३॥ ऋ. २-८-२२/ ५।६।८
ततस्ि-चतुर्ार्षिक कृष्णं गव्यार्थिनो गोपाः प्रार्थयन्ते । अग्नि तं मन्यत इति सूक्तेन । तत्रायं मन््रः। नवान इति। हे अग्ने ! जाठररूपेणान्तस्थ भगवन् नो अस्मभ्यं स्तोतृभ्यः नवाः क्षीरमण्डदधिमस्तुनवनीताद्या यज्ेप्यप्राप्ता इषोत्नानि आभर आहर सुक्षितीः कल्याणभूमी : । याभिर्भक्षिताभिरायुसत्त्ववलासेग्यादिकं भवति, तादृशीभिरित्यर्थः। कथम् एतालभ्यन्त इत्यत आहुः, त इति । देवास्त्वां पुस आनृचुः- स्तुतावन्तः। त एव वयं दमे दमे गृहे गृहे त्वादूतासः त्वददूता; स्याम यस्य गृह्यं यद्यदस्ति तत् तत्तुभ्यं निवेदयिष्याम इत्यर्थः । इषं स्तोतृभ्यः आभरेति पुनर्वचनमादरार्थम्॥२३॥
अनुवाद -- अनन्तर तीन चार वत्सर वयस्क श्रीकृष्ण के निकट गव्यार्थी गोप इस मन्त्र से प्रार्थना करते हैँ । यह मन्त्र “अग्नि तं मन्यत" अर्थात् उनको ही अग्नि मानना- इस सूक्त के अन्तर्गत । हे अग्न! हे जटराग्निरूप अन्तरस्थ भगवन्। “नः” हमारे समान “स्तोतृभ्यः” स्तुतिकारकगण के निकट से “नवाः” - क्षीरमस्तु, दधिमण्ड नवनीतादि यज्ञे अप्राप्त, “दषः -- अन्न समूह “आभर"-- आहरण करो । कारण, उक्त अन्न समृह “सुक्षितीः"- कल्याण भूमि, उसको भक्षण करने से आयु सतव, बल, आरोग्यादि लाभ होता हे। कैसे उस अत्न का लाभ होगा ? कहते रँ, जो देवगण पहले तुमको स्तव किये थे ^ते" बे देवगण ही “हम सब" “दमे दमे" गृहगृह मेँ “त्वादुतासः” तुम्हारे दूत स्वरूप “स्याम'' होगे । अर्थात् जिसकं घरमे जो जो द्रव्य है उस सबको तुम्हारे निकट निवेदन करेगे । अतएव “दषं " उक्त अन्नादि “स्तोतृभ्यः” ये स्तुतिकारकगण के निकट से सादर “आभर” आहरण करो, यह ही हमारी प्रार्थना हे ॥२३॥
६० ) श्रीमन््र भागवतम्
उभे सुश्चन्द्र सर्पिषो दवीं श्रीनीष आसनि। उतो न उत्पुपूर्या उक्थेषु शवसम्पत इषं स्तोतृभ्य आभर ॥२४॥ ऋ. २-२-२२/ ५।६।९
एवं तेषामिष्टमनुतिष्ठतामपि यदा वञ्चयते तदा त एनमुपालम्भते, उभे इति। हे सुश्चन्द्र सुतरामाह्ादकेति साकूतं सम्बोधनम्, त्वं उभे सर्पिषां पूर्णे दर्वी दर्वयौ स्वस्यैवासनि आस्ये श्रीणीषे सिश्रयसि नत्वेकामपि बहुभ्योऽस्मभ्यः प्रयच्छसि एवं मा कुच्ित्यर्थः। उतो अपि च नः अस्मान् उत्पुपूर्या : उत्कर्षेण पृरितवानसि हविष्यैः पूर्वं उक्थेषु तथा इदानीमपि पूरयस्वेत्यर्थः शवसः बलस्य पते स्वामिन्निषं स्तोतृभ्य आभर । यद्वा उभे अपि दर्व्यौ त्वमेव आसनि श्रीणीषे ? पिवास्मास्तर्पयसीत्याश्चर्य्यमित्यर्थः। विम्बरूपे त्वयि तुष्टे त्वत् प्रतिविम्बानामस्माक तुष्टिरर्थसिद्धेति भावः॥२४॥
अनुवाद- इस प्रकार इष्ट कामिगण को भी श्रीकृष्ण जब वञ्चित करते है, तब वे सब श्रीकृष्ण को तिरस्कार करते हे, इस मन्त्र मे उस भाव का प्रकाश हुआ है । “हे सुश्चन्द्र " हे आह्ादक देव ! तुम “उभे सर्पिषो दर्वी" - दो घृतपूर्णदरवी स्वीय "आसनि" वदन विवर में" श्रीनिष ' मिश्रित कर रहे हो, अर्थात् दोनो हाथो से खा रहे हो। तुम जो एकक इस प्रकार भक्षण कर रहे हो, किन्तु इस प्रकार न कसो, हमे भी प्रदान करो । "उतः" अपिच "उकथेषु' इसके पहले यज्ञ समूह मे “नः” हम सबको “उत्पुपूर्या ' जिस प्रकार उत्कर्षं के साथ पूर्ण मनोरथ किए थे, सम्प्रति उस प्रकार अभिलाष पूर्णं करो। अतएव ! हे शवसम्पत' हे बल के अधिपति} “दषं” अत्नादि “स्तोतृभ्यः” स्तुतिकारीगण के निकट से “आभर आहरण कर । अथवा तुम दर्बीद्रय को वदन मे निहित कर हम सबको सन्तर्पित कर रहे हो, यह अतीव आश्चर्ययं का विषय ह । कारण-विश्वरूपी तुम्हारी तृप्ति से तुम्हारे प्रतिविम्बरूप हम सबकी परितृप्ति हो रही है ॥२४॥
अवस्म यस्य वेषणे स्वेदं पथिषु जुह्धति। अभीमह स्वजन्यं भूमा पृष्ठेव रुरुहुः ॥२५॥
ऋग्वेद ३-८-२४/ ५।७।८५ अवस्मेति। यस्य नवनीतादे : वेषणे अवस्थापने व्यवस्थार्थं स्वेदं
श्रीगोकुल काण्डः ( ६१
घर्म्मोदक पथिषु मार्गेषु गोपाः क्षीरादिभाजनानि वहन्तो जुहतिस्म श्रमजेन घर्मोदकेन भुवं क्लेदयन्तिस्म, एवं श्रमागतमपिगव्यं एते वयं अभीमतः साकल्येन अह निश्चितं स्वजेन्यं स्वस्यजेन्यं स्वाधीनं कर्तं भूम प्रभवाम इत्यालोच्य ते पृष्ठा पृष्ठानि रुरुहुरिवेत्यवार्थः। एकस्य पृष्ठे परस्तस्यापि पृष्ठेऽ पर इत्येवं कर्मणारुहु अत्युच्च स्थानस्थमपि क्षीरादिकं स्वायत्तं कूर्वन्त्येवेत्यर्थः ॥२५॥
अनुवाद- इस मन्त्र में श्रीकृष्ण कं नवनीत हरण वृत्तान्त कथित है । “यस्य'" जौ नवनीतादि का “अववेषणे" अवस्थापन कौ व्यवस्था करने के निमित्त गोपगण दधि दुग्धादि का भाण्ड वहन कर ले जाते जाते “पथिषु” पथ मे “स्वेदं” र्मवारि ' जुहतिस्म ' आहति प्रदान करते है अर्थात् श्रमजनित स्वेद जल से धरातल को अभिषिक्त करते रहते हैँ । इस प्रकार विपुल परिश्रम के सहित आनीत गव्य समूह को हम सब " अभीं ' सब जन एकमत होकर “ अह' निश्चय ही ' स्वजेन्यं ' अपना आयत्त तथा हस्तगत करने मे ' भूम ' समर्थं होगे । इस प्रकार आलोचना करके वे सब ' आपृष्ठेव रुरुहुः' एकके पीठमें एकजन, उसके पष्ठ म ओर एक जन, इस रूप से आरोहण कर अत्युच्च स्थान स्थित क्षीरादिको करायत्त करवाये थे ॥२५॥
यं मर्त्यः पुरुस्पृहं विदद् विश्वस्य धायसे। प्रस्वादनं पितु नाम स्ततातिञ्चिदायवे॥ २६॥ ऋ. ३।८।२५/ ५।७।६
एवं अनेकरूपायेरगव्यमश्नाति भगवतीमन्त्रस्तदाशयं विवृणोति। यं मर्त्यं इति । यं श्रीकृष्णं विश्वात्मानं विश्वस्य धायसे तृप्तये पुरुस्पृहं बहुकामयन्तं अतएव पितूनां नवनीतानां प्रस्वादनं आस्वादनं आस्वादनकर्तरिमुपलभ्य मर्त्यः आयवे जीवनाय अस्ताति गृहस्य पालनं कर्तव्यत्वेन विदत् अविदत् ज्ञातवान्। अयमर्थः। यद्येवं बालाः सर्व गव्यं मुष्णन्ति तर्हिं जीवनलोपो भविष्यतीति गृहसरक्षणे जनः प्रवर्तातं भगवांस्त्वल्पेपि गव्ये मया आस्वादिते त्रैलोक्य- सन्तर्पणजं पुण्यमेते प्राप्सन्तीति चौर्येण तदास्वादयतीति ॥२६ ॥
अनुवाद- इस प्रकार विविध उपाय अवलम्बन कर श्रीकृष्ण नवनीतादि भक्षण करने लगे। इस मन्त्र मे उसका विवरण है । “यं विश्वस्य धायसे
६२) श्रीमन्त्रभागवतम्
पुरुसपृहं' जो निखिल विश्व कौ परितृप्ति साधन के निमित्त अतिशय स्पृहान्वित होकर “पितूनां प्रस्वादन" नवनीतादि का भक्षण किए थे, उन विश्वात्मा कृष्ण को प्राप्त कर ' मर््यः' मानवगण, “चित् आयवे" जीवन के उत्कर्ष साधन के निमित्त “अस्तताति" घर का पालन करना अवश्य कर्तव्य हे, यह जान गए थे। फलतः यदि वे बालकगण यावतीय गव्य सामग्री इस प्रकार चोरी कर नष्ट कर देते है तो हमारे जीवन धारण करना असम्भव होगा। यह मानकर, गोकुलवासिगण गृह संरक्षण में प्रवृत्त हो गये। किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण, उन सबके सामान्य नवनीतादि आस्वादित होने पर भी वे सब त्रैलोक्य सन्तर्पण के निमित्त अनेक पुण्य प्राप्त करेगे, इस अभिप्राय से चोरी करके भी उन सबके नवनीतादि का आस्वादन करने लगे । इससे श्री भगवान् कौ गोकुल प्रीति को पराकाष्ठा प्रदर्शित हुई हे ॥२६॥
अयं रोचयदरुचो रुचानोऽयं वासयदवृत्येन पूवीः । अयमीयत ऋतयुग्भिरश्वैः स्वर्विदा नाभिना चर्षणिप्राः ॥२७॥ ऋ. ४-७-११/ ६।३९।४
तमेवं कुर्वाणं निगृह्य गोपीजनो यशोदामानीय वदति, अयं रोचयदिति, अयं तव पुत्रः अप्रकाशमानान् गोप्यस्थानेऽपि स्थितान् क्षीरादीन् रसान् रोचयत्। भोक्तुं रोचयते । पुनश्च रुचानः स्तेनोप्यस्तेनवद्दीप्यमानो धृष्टत्वं करोतीत्यर्थः| अयं उपालभ्यमानः पूर्वी ; स्वापेक्षयातिप्रोढा अपि नारीः विवासयत् विवसनाः करोति। एवं व्याकुलीकृत्य पलायत इत्यर्थः। ऋतेन शपथेनैतत् वदामो न तु तदद्वे्ेण। तर्हि बह्वीभिर्भिलित्वा कृतो न धियते तत आहुः। अयं ऋतयुग्भिर्वेगवद्धिरिति यावत्। अश्वैरीयते लभ्यते वेगवतोऽश्वात् अपि अधिकं धावतीत्यर्थः। कीदृशोऽयम् । स्वर्विदा स्वःभक्षणसुखं विन्दतीति स्वर्वित् तेन सुखमात्रार्थिना नाभिस्थजाटरेण निमित्तेन चर्षणिप्राः चर्षणी: प्रजाः प्लायते लङ्कयतीति चर्षाणप्लाः। रलयोः सावर्ण्यात् प्राः। मिष्टा अयं लोकमर्य्यादां लक्खयतीत्यर्थः। वस्तुत स्त्वयमासामभिप्रायः। अयं चिदात्मा स्वयं रुरुचानः प्रकाशमानः अरुचः अरोचमानान् जडान् घरादीन् रोचयत् प्रकाशयति । ' ' तस्य भासा सर्वमिदं विभातीति'' श्रुत्यन्तरात्। अयमेव विशेषेण पूर्वीः प्रजाः
श्रीगोकुल काण्डः ( ६३
अव्यक्ताद्याः स्वयमनृताः सतीः स्वेन ऋतेन सत्येन वासयति। अयमेव जडस्यानृतस्य च प्रपञ्चस्य स्पर्िः सत्तप्रद इत्यर्थः । अयं ऋतयुग्भिः सत्येन वस्तुना सम्बन्धेरिन्दियाश्वैरन्तर्मुखेरिन्दरिैर्मनोमात्रतां गतैरीयते गम्यते स्वर्विदा नाभिना सगुणब्रह्मोपलन्धिस्थानेन नाभिना आलम्बनीकृतेन ईयते । नाभ्या उपरि तिष्ठति। ““ विश्वस्यायतनं महदिति '' श्रुतेः। चर्षणिप्राः पूरको व्यापक इत्यर्थः ॥२७॥
अनुवाद्- एकदा जनैक गोपाङ्गना उन चौर चूडामणि श्रीकृष्ण को निगृहीत कर श्रीयशोदा के निकट लाकर कहने लगी । * अयं ' यह तुम्हारे पुत्र, “अरुचः"” अप्रकाशमान गोपनीय स्थानस्थित क्षीरादि “ "रोचयत्" आस्वादन करता हे। पुनश्च “ रुचानः" चौर होकर भी अचौर के समान दीप्यमान धृष्टता प्रकाश करता है। “अयम्" यह बालक, तुम्हारे गुणवान् पुत्र, “परव्व ” निजपेक्षा अति प्रौद्रारमणीगणको भी “विवासयत्" विवसना करता है। सुतरां वे सब लज्जाकुलिता होकर दौडकर भाग जाती हैँ । “ ऋतेन" यह बात मेँ विद्रेष से नहीं कहती हूँ। मँ शपथ कर कहती हूँ । तब हम सब अनेक जन मिलित होकर भी पकड़ न सर्कौ । तब “अयं” यह क्षुद्र बालक, ऋत युगूभिः अश्वैः ईयत अतिशय वेगवान् अश्व कौ अपेक्षा से भी अधिक वेग से धावित होता है । एवं "स्ववदा ' केवल भोजन सुखाभिलाषी होकर भी “नाभिना” नाभिस्थ जठराग्नि कं सन्तर्पण के निमित्त “चर्षण प्राः" प्रजागण को भी लद्ुन कर रहा है, अर्थात् भोजनार्थी होकर भी लोक मर्य्यादा का उद्द्ुन कर रहा है।
वस्तुतः उस गोपाङ्गनागण कं वाक्य का तातपर्य यह है कि “अयं” यह चिदात्मा स्वयं “रुचानः” प्रकाशमान होकर “अरुचः” अप्रकाशमान जड घटादि मेँ “रोचयत्” प्रकाश करते हैँ । इस विषय मेँ अन्य श्रुति भी प्रमाण है, यथा " तस्य भासा सर्वमिदं विभातीति" यह ही “वि” विशेषण रूपमे पूर्वीः अव्यक्तादि प्रजा स्वयं असत्य होने से स्वीय असत्य के आवरण से आच्छादित करते रहते ह । फलतः यह बालक मिथ्या जड़ प्रपञ्च का स्पूं सत्ताप्रद है । अयं ऋत युग्भिः अश्वैरीयते' सत्य वस्तु के सम्बन्ध हेतु इन्दियरूप अश्वगण अन्तर्मुखी होकर मनोमात्र गत होने पर भी यह अधिगम्य होता है, ' स्वर्विदा नाभिना ईयते" सगुण ब्रह्मोपलब्धि स्थान नाभिपदम के उपरि भाग क हदय पद
६४ ) श्रीमन््रभागवतम्
~~ ~ मे यह स्थित है । इस विषय में श्रुति प्रमाण इस प्रकार है, यथा “विश्वस्यायतनं महदिति" एवं यह ही “चर्षणि प्राः" विश्वपूरक एवं व्यापक है ॥२७॥
यत्न मन्थां विबध्नते रश्मीन्यमितवा इव । उलूखल सुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः ॥ २८ ॥ ऋ. १।२।२५/ १।२८।४
एवं गोपीभिरावेदिते उलूखले यशोदा दाम्ना वध्यमानमालक्ष्य ऋषिराह । यत्र मन्थामिति यत्र उलूखले महत्तरमस्थां सगर्गरं विवध्नते दधिमन्थनार्थ तादृशो उलूखले बद्धाः सुताः उलूखलसुताः तेषाम्। मध्यमपदलोपी समासः बहुलं पूजायां । उलूखले बद्धस्य सुतस्य यमित वा इव नियमनायेव रश्मीन् दाम रज्जुः विशेषेण बध्नते मातरः। परन्तु रश्मीनेवबध्नते न तु रश्मिभिः सुतमिति भावः। सुतो बद्ध इति प्रतीतिस्तु तासां भ्रान्तिरित्यर्थः। हे इन्द्र ! ईदृशान मातृजनान् उ निश्चितं अव इत् पालयैव जल्गुलः जडानि गावः इन्द्रियाणि येषां ते जड़गवाः अतिमूढाः गोपजनाः तान् लाभि स्वीयत्वेनादत्त इति जड्गुलः। अकार लोपोड़कारस्य लकारश्च छान्दसः। परिगृहीतानां पालनमावश्यकमित्यर्थ : ॥२८ ॥
अनुवाद- गोपाङ्गनागण के उस प्रकार आवेदन करने से श्रीयशोदा श्रीकृष्ण को उलूखल मे दाम द्वारा बोधने लगी, ब्रह्मवादी ऋषि ध्यान नेत्र से अवलोकन कर कहते है । “यत्र” जिस उदूखल मे, महत्तर " मन्थां ' मन्थनदण्ड गर्गरी अर्थात् दधिभाण्ड के साथ दधिमन्थन के निमित्त बोधा गया है तादृश “उदूखल सुतानां" उदूखल में जिनका पुत्र आबद्ध है, उनके उन उदूखलबद्ध पत्र को “यमित वा इवं" नियमन के निमित्त वे ' रशमीः' रज्जु समूह को “विबध्नते' विशेष रूप से बोधने लगीं । रज्जु के द्वारा पुत्र को बोधने मे असमर्थ रही । पुत्र बोधा गया है, यह प्रतीति उनकी भ्रान्ति मात्र है, अतएव हे “इनदर !' हे भगवन्। ईदृश मातृगण का "ॐ" निश्चित टी “अव ई" पालन करौ । कारण वे सब “जल् गुलः" जडेद्िय विशिष्ट अतिमूढ गोपाङ्गना है, उन सबका ग्रहण जब आपने परमात्मीय रूप मेँ किया हे, तब उक्त परिगृहीत जनगण का पालन करना अवश्य कर्त्तव्य हे ॥२८॥
श्रीगोकुल काण्डः ( ६५ तानो अद्य वनस्पती ऋष्वावृष्वेभिः सोतृभिः इन्द्राय मधुमत् सुतम्॥२९॥ ऋ. १।२।२६/ १।२८।८ अत्रान्तरे बन्धनमङ्खीकृत्य तस्य वैयर्थ्य माभूदिति यमलार्ज्जुनमन्तरेण सहोलूखलेन गत्वा उलूखलं च तिर्यक्कृत्वा वुक्षावुन्मूलितवान्। तौ चोन्मूलितौ पुनर्देवताभावं प्राप्य प्रतिष्ठमानौ नलकूवरमणिग्रीवो । व्रजजन आह। ता नो अद्येति। भो वनस्पती ता तौ युवां नोस्माकं अद्य ऋष्वो रोषणौ उन्मूलितत्वेन क्लेशकरो ऋष्वेभिः क्लेशद: सोतृभिः प्रसेवकारणैः कर्मभिर्हेतुभिजति युवां कालेनोन्मूलितौ दृष्ट्वास्माक महद्दुःखं जातमित्यर्थः । तथापि इन्द्राय व्रजपतये मधुमत् मधुर रसं सुतं प्रयच्छन्तं अस्मासु दया कुरुतमित्यर्थ;॥२९॥ अनुवाद- अतः पर बन्धन अद्गीकार करने पर भी वह निष्फल नहीं हुआ । श्रीकृष्ण यमलार्जुन के मध्य मे उलूखल के सहित गमन कर उस उलूखल को टटा करके वृक्षद्रय को उन्मूलित किये थे । उस उन्मूलित वृक्षद्रय पुनर्वार देव भाव प्राप्त कर नल कवर मणिग्रीव नामक व्रज जन रूपमे प्रतिष्ठित हुए । इस मन्त्र मे उक्त विवरण वर्णित है। भो वनस्पती ः' हे वनस्पतिद्रय ! “ता” तुम दोनो उन्मूलित होने से "न" हमारे अद्य “ऋषौ" अतीव क्लेशकर हुआ हे । “ऋष्येभिः" सोतृभिः' क्लेशप्रद कर्मसूत्र से ही तुम दोनों वृक्ष हुए थे, सम्प्रति कालक्रम से तुम दोनों को उन्मूलित देखकर हम सब दुःखी हए दहै, तथापि “इन्द्राय व्रजपति को तुम दोनो “मधुमत्” सुमधुर रस “सुत" प्रदान कर रहे हो। अतएव हमारे प्रति दया करो ॥२९॥
क उनुते महिमनः समस्याऽस्मत् पूर्वं ऋषयोऽन्तमापुः । यन्मातरं च पितरं च साकमजनयथास्तन्वः स्वायाः ॥३०॥ ऋ. ८।१।२५/ १०।५४।३ तत उलूखलात् मात्रा मोचितः सादरमवेक्षयमाणः तस्मै वैश्वरूप्यं प्रकाशितवान् अवेद्विन््रनलगुल इति मुनेर्वाक्यं स्मरन्। तच्च दृष्ट्वा माता प्राह । क उनु त इति। हे परमेश्वर ! ते तव महिमनः माहात्म्यस्य समस्य कृत्स्नस्य अन्तःके उ नु के निश्चिततया ये अस्मत्तः पूर्वे ऋषयोपि आपस्ते के न
६६ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
केपीत्यर्थः। अत्र हेतुमाह । यदि यत् यतः मातरं मां भूमिं पितरं दिवं च साक सहेदं युगपत् कृत्स्नं जगदित्यर्थः। स्वायास्तन्वः सकाशात् अजनयथाः प्रादुर्भावितवानसि । अतस्तव माहात्म्यं दुरधिगममित्यर्थः॥२०॥ इति श्रीमतूपदवाक्यप्रमाणमर्य्यादाधुरन्धर चतुर्धरवशावतंस गोविन्दसूरिसूनोः श्रीनीलकण्ठस्य कृतौ सोद्धृत मन्त्रभागवत- व्याख्यायां मन्त्ररहस्य प्रकाशिकायां गोकुलकाण्डः प्रथमः ॥१॥ अनुवाद- अनन्तर जननी श्रीयशोदा पुत्र श्रीकृष्ण को उलूखल से बन्धन मुक्त कर जब सादर पूर्वक उनके वदनकमल का दर्शन करने लगीं, तन श्रीकृष्ण जननी के समक्ष मेँ विश्वरूप प्रकट किए थे । “अवेद्धिद्र जल्गुलः” इस मुनिवाक्य का स्मरण पूर्वक जननी श्रीयशोदा उस विश्वरूप को देखकर कहने लगी “हे परमेश्वर ! “ते" तुम्हारी “महिमानः समस्य" महिमा कौ “अन्त के उनु" अवधि को कौन जानकर वर्णन कर सकता है ? जो जन हमारे पूर्व मे विद्यमान थे, वे ऋषिगण भी उसका अन्त नहीं प्राप्त किए थे। “यत्” कारण तुमही माता को पिता को अथवा मातृभूमि पितृस्वर्गं के साथ युगपत् इस निखिल विश्व को ^स्वाया स्तन्वः"” निजदेह से “जनयेथाः” प्रादुर्भूत किए हो, अतएव तुम्हारी महिमा दुरधिगम्य हे ॥३०॥ इति श्री मन्त्र भागवतस्यानुवादे प्रथमः गोकुलकाण्डः॥१॥
द्वितीयः काण्डः
श्री वृन्दावन काण्डः
सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत् परावतं परमां गन्तवा उ। अधा शयीत निऋतेरूपस्थेऽधेनं वृका रभसासो अद्युः ॥१॥ ऋ. २।२३।२१/ १०।९५।१४
अथ वृन्दावनं प्रति वृकभयाद् भगवतः प्रस्थानमन्यसंवादमुखेनाह। सुदेव इति। सुदेवः आद्यवर्णलोपात् वासुदेवः। यथोक्तं वृहद्देवतायां - “वर्णस्य वर्णयोर्लोपो वहवृचां व्यञ्जनस्य वा। अत्रानीति कपिनाभादनोयामीत्याद्यासुचेति। अत्रान्यस्मै पडक्तिः सम्भवन्ति वर्णस्य लोपः। अमत्राणीत्यपेक्षिते प्रिया तष्टानि मे कपिरित्यत्र वर्णयोर्लोपः। वृषाकपिरित्यपेक्षिते। अयं नाभीवदति वलगुवो गृहे दनो विश्वमिन्द्र मृ वाच इत्यादौ बहूना वर्णानां लोपः, अयं नाभानेदिष्ट इत्यपेक्षिते । दानमनसो विश्व इति चापेक्षिते । तत््वायामीत्येक लोपः याचामीत्यपेक्षिते। अघासु हन्यन्ते गावः मघास्वित्यपेक्षिते। यद्रा वासुदेवः शोभनेन देवेनाधिष्ठितो व्रजो वा सुशोभनश्चासौ देवश्चेति वा कृष्णाः। अद्य सद्यएव वृकोपद्रवानन्तरं अनावृत् आवृत्तिवर्जितं यथा स्यात्तथा प्रपतेत् प्रकर्षेण गच्छेत् । परावतं परमां दूराददूरं गतं वै। कुतोऽस्य गमनमत आह। अधेति। अथ अथ पक्षान्तरे यदि न गच्छेत् अयं तर्हि नितऋतेः पृथिव्या उपस्थे अङ्के शयीत वृकर्हतो प्रियेतेत्यर्थः। अध अनन्तरं एनं वृकास्त एव हन्तारो रभसासः शीघ्रतराः अद्यु भक्षयेयुः। यस्मात् सुदेवोऽपि मरणावस्थइव दूरात् दूरतरं गतः। तस्मात् तयापि आध्यात्मिकेभ्यः कामादिभ्यो भेतव्ययिति पुरुषं प्रत्युर्वशीवाक्यम्। तदिदं हरिवंशे उपवृहितवृकभयात् वृन्दावनं प्रति गोकुलात् गोपाला गता इति ॥१॥
अनुवाद- अनन्तर वृक के भय से श्रीकृष्ण वृन्दावन गमन कर रहे है, वह संवाद दूसरों के द्वारा वर्णित हुआ है । “सुदेवः” वासुदेवः इस प्रकार
६८ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
आद्य वर्ण लोप का नियम वृहद् देवता नामक ग्रन्थ मेँ वर्णित है। यथा- “वर्णस्य वर्णयोर्लोपोवृहवृचां व्यञ्चनस्य वा इत्यादि" अथवा “सुदेव वाक्य से शोभन देव के द्वारा अधिष्ठित व्रजधाम का बोध होता है, किम्वा शोभन जो देव- अर्थात् श्रीकृष्ण, वृकोपद्रव से सन्तख होकर “अद्यः” आज ही “अनावृत्" आवृति वजित रूप मे अर्थात् पुनर्वार कभी भी गोकुल में प्रत्यावर्तन नहीं करेगे, इस रूप में वृन्दावन प्रस्थान कर रहे हे । सुतरां आप “परावतं परमां" दूर से दूरान्तर में “गतं वा ॐ" गमन कर रहे है । क्यो वहोँ जा रहे हँ 2 “अध पक्षान्तर में यदि आप गमन नहीं करते है तब निऋतेः उपस्थे अशयीत'' पृथिवी के अङ्क मे चिर शायित होगे । अर्थात् वृक द्वारा निधन प्राप्त होगे । “अध! अनन्तर “एनं” श्रीकृष्णं श्रीकृष्ण को “वृकाः” तदीयहन्तारक वृकगण ^“रभसासः” अविलम्ब में “अद्युः” भक्षण करेगे। कारण आप सुदेव अर्थात् शोभन देव होकर भी मरणभयशील मनुष्य के समान दूर से दूरान्तर मे गमन करते है । अतएव आप जो आध्यात्मिक कामादि से भी भीत होते है उसमे सन्देह नहीं हे । यह पुरुष के प्रति ऊर्वशी का कथन ह। श्री हरिवंशस्थ विष्णु पर्व मे यह विवरण विशद रूप में हे। गोपगण वृक के भय से गोकुल परित्याग कर वृन्दावन आगमन किए थे ॥१॥
सूयवसाद् भगवती हि भूया अथोवयं भगवन्तः स्याम । अद्धि तृणमध्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती ।॥२॥
ऋ. ७।३।२५/ १।१६४।१०, अथर्व ७।७३।११, नि. ११।४४
तत्र गत्वा गवां लालनं करोतीत्युषिराह । सूयवसादिति। एकवचनं जात्यभिप्रायम्। सुशोभनं यवं तृणमत्तीति सूयवशात् भगवती एेश्वर्य्यवती हि प्रसिद्धा अस्मभ्यं भूयाः भव अथो वयमपि भगवन्तः स्याम । अद्धि भक्षय तृणमिति पुनरुक्तिः अघ्न्ये अघघ्नी विश्वदानी सर्वदा आचरन्ती पर्य्यटन्ती शुद्धं उदक पिव॥२॥
अनुवाद- वँ जाकर किस प्रकार गोचारण किए थे- ब्रह्मवादी ऋषि इस मन्त्र में उसे कहते है । “सुयवसात्" तुम सब यह सुशोभन तृणादि भक्षण पूर्वक “भगवती हि भूयाः" हमारे लिए प्रसिद्धा एेश्वर्य्यवती बनो ।
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ६९
“अथो वयं भगवन्तः स्याम" अनन्तर हम सन देश्वर्य्यवान् होगे । अतएव हे “घ्नो '" हे पापनाशिनीवृन्द ! तुम सब “विश्वदानीं आचरन्ती" सर्वदा सुख से विचरण करते करते “तृणं अद्धि" तृणभक्षण करो, एवं “शुद्ध उदकं पिब" यमुना का शुद्ध जल पान करो ॥२॥
दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठत्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः। अपां विलमपिहितं यदासीद् वुत्रं जघम्वां अपतद्ववार ॥२३॥ ऋ. १।३।३८/ १।३२।११
कालियदमनमाह, दासपतनीरिति । दस्यन्ति उपक्षियते लोका अनेनेति दासो हिखः तस्य पत्नी सहधर्मचारिणी: हिसा विषदूषिताः आपः अतिष्ठन् आसन् रतः अहिः कालियाख्यः स्प॑ः गोपायतीति गोपाः स्वामी यासां ताः अहिगोपाः अतएव निरुद्धाः इतरा भोज्याः पणिना चोरछदेन गाव इव निरुद्धाः। अपां मध्ये विलं अहिगृहस्य द्वारं यदपिहितं अद्धिरेवाच्छदितं आसीत् ततुवृत्रं जघन्वान् शत्रु जिगमिषुः हन्तिरत्र गत्यर्थः। अपववार अपावृणोत् उद्घाटितवान् तीरस्थं तरुमारुच्य अत्युच्चात् स्थानात् यमुनाया निपत्य कालियमधि अभूदित्यर्थः॥२॥
अनुवाद- अनन्तर इस मन्त्र मे कालिय दमन लीला वर्णित हो रही है । दासपत्नी" जो दस्यु के समान लोक समूह को विनष्ट करता है, उसका नाम दास अर्थात् हिंसा । उसकौ सहधर्मचारिणी पत्नी के समान हिंसा विषदूषिता “आपः” यमुना के जल राशि “अतिष्ठन्” अवस्थित है। उसमें “अहिगोपाः" कालीयाख्य सर्प, उस दास पत्नी स्वरूपा जलराशि के गोप अर्थात् रक्षक स्वामी था। इस हेतु उक्तं जल प्रवाह “पणिना गवः इव" पणि नामक असुर जिस प्रकार गो समूह को अपहण कर विल के मध्य में निरुद्ध कर रखता है उस प्रकार दूसरे के अपेय रूप मे रहा अर्थात् कालिय हद मे परिणत हो गया था। उस जल मे “विलं'' सर्पं का गृह द्वार “यत् अहिहितं आसात्" जिसके अङ्घ के द्वारा आच्छादित था। “तं वृत्रं" उस प्रवाह रोधकारी शत्रु को “जघन्वान्” विनाश करने के निमित्त भगवान् श्रीकृष्ण-“अपववार'' एक उपाय उद्घाटन किए। आप तीरस्थ वृक्ष में आरोहण कर उच्च स्थान से यमुना के मध्यमं गिरकर कालिय नाग के प्रति धावित हुये थे ॥२३॥
७०) श्रीमन्त्रभागवतम्
अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्यवजमधिसानौ जघान । वृष्णो वधिः प्रतिमानं बुभूषन्पुसत्रावृत्रो अशयदव्यस्तः ॥४॥ ऋ. १।२।३७/ १।३२।७
ततश्च किमभूदित्याह ! अपादिति। अपात् पादहीनः हस्तः हस्तहीनः। सर्पत्वादेव ईदृशोपि इन्द्र कृष्णं प्राप्य अपृतन्यत् अयुध्यत् तेन सह युद्धं कृतवान् । अस्य कालियस्य सानौ मूर्द्धनि वज्रं आजघान भगवत्पदचिह्वभूतं शिरस्याजगाम तदङ्कितं शिरोभूदित्यर्थः। सोऽयं वधिश्चर्म्मपट्िका ततूसदृशो निस्तेजाः कालियो वृष्णो हरेः प्रतिमानं प्रतिचिहं बज्जरेखारूपं बुभूषन् भूषामिवात्मनः कर्बन् अशयत् शयनं चकार निरुद्यमोभूत्। कौदृशः। पुसत्राव्यस्तः अनेकैः प्रकारैः निरस्तः ॥४॥
अनुवाद- अतः पर क्या हुआ ? इसका विवरण इस मन्त्र मे परिव्यक्त हे । “अपादहस्त'" हस्त पद हीन कालिय नाग, “इन्द्र श्रीकृष्ण को प्राप्त कर “अपूतन्यत्" उनके साथ युद्ध करने मे प्रवृत्त हुए। श्रीकृष्ण “अस्य सानौ" कालिय नाग के मस्तक में फण के ऊपर “वज्रं आजस््व न" स्वीय पदाङ्क रूप वज्र प्रहार किए थे। फलतः कालिय नाग के मस्तक ऊपर जैसे खड़े हो गये वैसे ही उसके मस्तक भगवत् पदाङ्भुित हो गया। ओर उस समय ही बह “वृत्रः” जल प्रवाह रोधकारी कालिय “वधिः” चमपिटिका के समान निस्तेज होकर “वृष्णोः" श्रीकृष्ण का प्रतिमानं" बज्र रेखारूप पदचिह को विभूषण निज मस्तक के भूषण स्वरूप कर एवं “पुसत्राव्यस्तः” अनेक प्रकार से सन्ताडित, निरस्त होकर "अशयत्" शयन किया । अर्थात् निरुद्यम हो गया ॥४॥
नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः। याश्चिद् वृत्रो महिना पर्य्यतिष्ठत्तासामहिः पतसुतःशीर्बभूव ॥५॥ ऋ. १।२।३७/ १।३२।८ नद्नेति। नदन् न शोणादिक नदमिव शयानं दीर्घाकारेणापतितममुयानैन कृष्णेन भिन्नं निजितं अनु पश्चात् आपः यमुना जलानि अतियन्ति- अत्युत्कर्षेण गच्छन्ति । कौदृश्यः। मनोरुहाणाः हृदयङ्गमा इत्यर्थः। याः अपः चितुपूर्व वृत्रः कालियः महिना माहात्म्येन पर्य्यतिष्ठत् तासामेव सनिधो शयनार्थे वा अहिः
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ७१
कालियः पत्सुतः पद्भयां पीडितः सन् शेते इति पतसुतःशी। समासेपि विभक्तयलोप आर्षः। एवंविधा बभूव ॥५॥
अनुवाद- इस प्रकार बल प्रवाह रोधकारी कालिय “नदं न" शोण दामोदरादि नद के समान, “शराशं" दीर्घाकार में परिणत हुआ । “अमुया भिन्न" श्रीकृष्ण के द्वारा निज्जित होने से “मनोहरणकारी आपः" यमुना का रुद्ध जल प्रवाह “अतियन्ति" अतीव उत्कर्षं के साथ प्रवाहित होने लगा। “याः” जो जलराशि “चित्" पूर्व मे “कृतोमहिनापर्य्यतिष्ठत्"' कालिय कौ महिमा प्रभाव से निपीडित होकर शापित हुआ, “तासां” श्रीकृष्ण के सन्निधान से “अहिः पतूसुतःशीः बभूव" बह कालियनाग भगवान् श्रीकृष्ण के पदद्रय द्वारा निपीडित होकर शायित हुआ सुतरां इस प्रकार से जल प्रवाह भी बाधा से मुक्त हो गया ॥५॥
समिन्द्र गर्दभं मृणनुवन्तं पापयामुया । आतून इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ।॥६॥ ऋ. १।२।२७/ १।२९।५
अथ शराकारं धेनुक ब्रजनाशायोद्यतमभिलक््य लोको राममाह। समिन्दरेति, हे इन्द्र ईश्वर ! त्वं गर्दभं समृण, सम्यक् नाशय, कौदृशम्। अमुया अनया त्वं प्रत्यक्षया पापया क्रियया खरतन्वा नुवन्तं पीडयन्तं । धातुनामनेकार्थत्वात् कर्णाटक भाषा प्रसिद्धेश्च नुवतिरत्र पीडार्थः। पापयामुयेत्युभयत्र सुपो या, हे इन्दर तु पुनः नोऽस्मान् गवादिषु आसंशत तथा लोके अस्मानभिलक्षय तादृशो गोपनह भूयासमिति जन्म आशास्ते तथास्मान् कूर्वित्यर्थः। शुभ्रिषु शुभ्ररूपवत्सु। सहस्रेषु अनन्तेषु तुवीनि पूर्णानि मघानि धनानि यस्मिन्निति तुवीमघ । दैर्घ्य सांहितिक । एवमुक्तमात्रे रामस्त जघानेति ज्ञेयम्॥६॥
अनुवाद- अनन्तर खराकृति धेनुकासुर को व्रज नाश करने मे उद्यत देखकर ब्रज का एक व्यक्ति श्रीबलराम को सम्बोधन कर कह रहा है- “हे इन्द्र" हे ईश्वर ! वह “गर्दभं” खराकृति धेनुकासुराकार को “समृण" सम्यक् रूप से निहत करो । “अमुया पापया" वह प्रत्यक्षीभूत असुर पापक्रिया से हम
७२ ) श्रीमन््रभागवतम्
सबको “नुवन्तं” प्रपीड्ति कर रहा हे। “तु” पुनश्च “हे शुभ्रिषु सहस््राषु तुवीमघ ।" हे शुभ्रूपवत्ताय, अनन्त स्वरूप, पूर्णैश्वर्य्य सम्पन्न ! हे इन्द्र हे बलदेव ! “नः” हमें “गोषु अश्वेषु" गो अश्वादि के सम्बन्ध मे “आंशंसय" आश्वस्त करो, अथवा हमें इस प्रकार उपयुक्त करो, जैसे लोक समूह हम सबको देखकर अभिलाष करें कि हम सब भी गोप बनेगे । इस प्रकार कहते कहते ही श्रीबलराम जी ने उस धेनुकासुर को ततक्षणात् मार डाला ॥६॥
यदि ज्ञानामि यदि वेदमस्मि निण्यः सन्नद्धो मनसा चरापि। यदामागन् प्रथमजा ऋतस्यादिद्वाचो अश्नुवे भागमस्याः ॥७॥ ऋ. १।२।२१
अथ गोपरूपिना प्रलम्बासुरेण हयमाणो राम आह । विजानामीति, इव शब्दो भित्न क्रमः। यदिदं अपरिमित शक्तिक ब्रह्मास्मि तदहं न विजानामीव देहावशात् प्रमाद्यतीति न्यायेन जानन्नपि न जानामि इत्यर्थः ॥ त्वदनुग्रहं विना स्वीयमैश्वर्स्य आविर्भावयुतं न शक्नोमीतिभावः। कुत एवम्। मनसा बन्धनेन संनद्धः पारवश्यं प्रापितः। अतएव निण्यः परप्रणेयः सन् चरामि यदाकाले “ऋतस्य प्रथमजाः मा आगन्" प्रथमजाः कारणभूतः परमात्मा आगन् आगच्छेत् तदा आह अस्मात् अस्यानुग्रह प्राप्य इत् निश्चितं अस्याः वचः सकाशात् भागं निरविद्यतेऽस्मिन् इति भागः परमात्मा तं अश्नुवे व्याप्नूयाम् । तं गुरं प्राप्य तत्त्वमसि वाक्यस्यार्थं एेकात्म्यं लभेयमित्यर्थः ॥७॥
अनुवाद- अनन्तर एकदा गोपरूपी प्रलम्बासुर बलराम को हरण कर ले जाने लगा तो बलराम ने कहा “यदिदं अस्मि" यह जो मेँ अपरिमित शक्ति सम्पन्न ब्रह्म रूप मे विद्यमान हूँ, यह मेँ “न विजानामि इव" जान नहीं सकता हूं। देह अवश होने पर जिस प्रकार प्रमाद उपस्थित होता है, उस प्रकार प्रमादसे हीमे अविवेको कौ भोति जानकर भी जान नहीं पाता हू। सुतरां हे कृष्ण ! तुम्हारे अनुग्रह को छोडकर अपना देश्वर्य्य को प्रकट करनेमेमें असमर्थ हूं। इसका कारण- मेँ “मनसा संनद्धः" मे मन के बन्धन द्वारा अर्थात् इद्दरिय वश होकर पराधीन हो गया हूँं। इसलिए “नित्यः चरामि" दूसरे कं वश से सञ्चालित हो रहा हँ। “यदा” जिस समय “ऋतस्य प्रथमजाः मा आगन्" वेद
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ७३
कं कारण स्वरूप परमात्मा का आगमन मेरे निकट में होगा, उस समय “ आत्" उनकं अनुग्रह से “इत्” निरिचत ही “अस्याः वाच" उनके उपदेशानुसार “भागं” उस भजनीय अखण्ड परमात्मा को मेँ “अश्नुवे" प्राप्त करूंगा । अर्थात् उस गुरु को प्राप्तकर “तत्वमसि” वाक्य का तातपर्य्य जो एकात्मता है, उसे प्राप्त करूंगा ॥७॥
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन् देवा अधिविश्वे निषेदुः। यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति यडृत्तदविदुस्त इमे समासते ॥८॥ ऋ. २।३।२१/ १।१६४।३९
ततो कारुणिको भगवान् अपाङ़तीति प्राग् व्याख्यातेन मन्त्रेणायमहमस्मि तव भ्रातेति राममाश्वास्यानन्तर मनत्रेणास्मै वाचस्तत्तवं निवेदयति। ऋच इति। ऋचः सर्वाः अक्षरे व्यापके परमे व्योमन् अव्याकृत जगत्कारणे पर्ययवसन्नाः। यस्मिन् व्योम्नि विश्वे देवाः इन्द्राद्याः इन्द्रियाणि वा निषेदुः निषण्णाः सन्ति यस्तत् न वेद स ऋचा केवलं अधतया किं करिष्यति । न किमपीत्यर्थः। य इत् य एव पुरुष धौरेयाः तद्विदस्त इमे नारदाद्याः समासते सम्यक् बाह्यैराभ्यन्तरर्वा शत्रुभिरनभिभूताः सन्तः आसते ॥८॥
अनुवाद्- श्रौबलराम कौ बात को सुनकर करुणामय भगवान् श्रीकृष्ण “अपार प्राङेति मन्त्रे "अयमहमस्मि तव भ्राता" यह मँ तुम्हारा भ्राता हं कहकर बलराम को आश्वस्त करने लगे। अनन्तर इस मन्त्र मेँ पूर्वोक्त उपदेश वाक्य का तत्त्व निवेदन करते रै । “ऋचः” समस्त ऋकमन्त्र अर्थात् अपरा विद्यात्मक चतुर्वेद "अक्षरे" अविनश्वर सर्वत्र व्यापक “परमे व्योमन्" अव्याकृत जगत् कारण में पर्यवसित है। “यस्मिन्” जिस परव्योम में " विश्वेदेवाः” इद्रादि देवता समूह “अधिनिषेदुः" अधिष्ठित है । “यस्तत् न वेद" जो उसे नहीं जानता है “स ऋचा किं करिष्यति" वे सब ऋक् मन्त्र को पटृकर क्या करेगे ? अर्थात् कुछ भी फल नहीं होगा “य इत् तद्वदु किन्तु जो इस तत्तव को जानते है, “इमे” वे सब ही नारदादि ऋषिगण “सम् आसते" सम्यक् रूप से बाह्याभ्यन्तरस्थित शत्रुगण द्वारा अनभिभूत होकर विराजित है ॥८॥
७४ ) श्रीमन््रभागवतम्
= विष्टम्भो दिवो धरुणः पृथिव्या विष्वा उत क्षितयो हस्ते अस्य। असत्त उत्सोगृणतेनियुत्वान् मध्वो अंशुः पवत इद्दरियाय ॥९॥ ऋ. ७।३।२५/ ९।८९।६
एवमुक्तमात्रो रामः प्रलम्ब स्वसामर्थ्यमाविश्चकारेत्युषिराह । विष्टम्भ इति। पृथिव्याः धरुणो धर्ता शेषावतारो रामः प्रलम्बस्कन्धस्थः सन् दिवो द्युलोक शिविरस्य विष्टम्भो मध्यम स्तम्भ इव बर््धत इत्यर्थः। तत्र ेतुः। विश्वाः सर्वा; क्षितयः रेश्वर्य्याणि उत अपि अस्य हस्ते सम्विधेयानि सन्ति । हे सोमात्मक विष्णो एवं रूपो यतस्त्वमसि अतो मध्वः मधोः आदिदैत्यस्य अंशुरिवांशुदीर्षः प्रलम्बनामा अंशः ते तव पुरः इन्द्रियाय वीर्यं प्रकटनाय पवते शीघ्रं यतते यः स नियुत्वान् नितरां यौति युज्यते इति नियुतप्राणः तद्वान् बलवानपि भारार्ततया उत्सः उत्सन्नः सन् गृणते मां मुञ्चेति प्रार्थयते । एवमपि अस्य रूपं असदेव भवति रामभरेण कौलवत् भूमेरन्तः प्रविष्टमित्यर्थः ॥९ ॥
अनुवाद- श्रीकृष्ण के उस प्रकार कहने से ही बलराम ने उस प्रलम्बासुर के प्रति अपनी शक्ति प्रकट की । ध्यानमग्न ऋषि ने उसका वर्णन किया हे। “पृथिव्याः धरुणः" धरणी धारक शेषावतार राम प्रलम्ब के स्कन्ध मे रहकर ही “दिवः विष्टम्भः" द्युलोक रूप शिविर के मध्य स्तम्भ के न्याय ब् गये। उससे “विश्वाः क्षितयः उत" निखिल रे्वर्य्य “अस्य हरस्ते" उनके हस्ताधीन हृए। हे सोमात्मक विष्ण! आप उस प्रकार एेवर्य्य विशिष्ट हेन पर भी “मध्वः” मधु नामक आदि दैत्य का “अंशुः दीर्ध अंश रूप यह प्रलम्बासुर “तं" आपके निवास स्थान व्रज मेँ “इन्द्रियाय पवते" निज वीर्य्य प्रकटन के निमित्त यलशील हुये थे। किन्तु "नियुत्वान्" नियुत संख्यक अर्थात् असंख्य प्राणी के न्याय बलशाली यह असुर बलराम के विपुल पीडन से “उत्सः उत्सन्न होकर “गृणते” “मुञ्चे छेडो मुज्ञे छरड़ दो" कहकर प्रार्थना करने लगे, इससे उसका स्वरूप “असत्" अत्यन्त जघन्य हो गया था। अर्थात् बलराम के भार से वह कील के समान मिरी मं प्रविष्ट हो गया था॥९॥
हिं कृण्वती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात् । दुहामश्विभ्यांपयो अध्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय ॥९०॥ ऋ. २।३।१९/ १।१६४।२७
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ७५
एवं सर्वोपायै रामकृष्णाभ्यां पाल्यमानानां, गवां महाभाग्यमसहमानो बरह्मा वत्सान् वत्सपांश्च हतवान् तदा स्वयमेव भगवान् सर्ववत्स- वत्सपाकारो जातः। तं गावः गोप्यश्च ज्ञातवत्यः न तु ब्रहयत्याह द्वाभ्याम्। हिं कृण्वतीति। अत्र जात्यभिप्रायेणैकवचनम्। सर्वापि गौर्गोपी च स्वं स्वं पुत्रं दृष्ट्वा प्रमातिशयात् हि कृण्वती हिंकारं मूर्धि आघ्राणं च कुर्वती वसुपत्नी वसुः वसु्वंश्यो राजा पति पालयिता यस्याः सा वसुपत्नी । न चात्राष्यौ वसवो वसुपदार्थमात्राः। रूद्राणां दुहिता वसूनामिति अन्यत्र वसुदुहितृत्वेन श्रुताया वसुपत्नीत्वायोगात्। वसुश्च हर्य्यश्वादिक्रमेण शुरापरपर्य्यायो वसुदेवस्य पितेति प्रागेव व्याख्यातम्। ततश्च सुराजा वत्सवंशोदभवं कृष्णं स्वं स्वं वत्सीभूतमिच्छन्ती मनसा अभ्यगात् मनसैव ज्ञातवती अयमिदानीं विष्णुदेवो वत्सरूपेण पातीति । एवम् एवास्मिन् यज्ञे मन्यमाना धेनुः दुहां दोग्ध्रीणां मध्ये अघ्न्या अविघातिनी इयं पयो वरद्धताम् यथा कृष्णे वत्से सति ्षीरमवरद्धयदेवमित्यर्थः। महते सौभगाय कैवल्याय अश्विभ्यां दोहनिमित्ताभ्यां सम्प्रदानत्वेन दोग्धृत्वेन वा अश्विनोर्धम्मदिवतात्वादध्वर्ययुत्वेन संस्तुतत्वाद्वा । अत्र सेयमिति पदाभ्यां अभ्यगादिति पदाभ्यां च पूर्ववृततान्त सूचकाभ्यां वसूनां वसुपत्नीति शब्दाभ्याञ्चश्रीभगवतोपवृंहिता वत्सहरण कथा सूचिता ॥१०॥
अनुवाद- विविध उपायों के द्वारा रामकृष्ण गोवत्स का पालन करते रहने से उन वत्सगण के महाभाग्य स्वयं ब्रह्मा का भी असहनीय हो उठा, उन्होने वत्स व वत्सपालक गोप बालकों को हरण कर लिया। तब भगवान् स्वयं उस अपहत वत्स वत्सपालगण की मूर्तिं धारण किये थे। उनको गो गोपीगण जान गर्यीं थीं अथच ब्रह्मा जान नहीं पाये। आलोच्य मनत्रद्रय मेँ वह भाव परिव्यक्त हुआ है । “हिं कृण्वती" गया समूह व ब्रजगोपीगण निज निज पुत्र को देखकर प्रेमातिशय्य वशतः यथाक्रम से हिंकार शिरश्चुम्बन करने लगी । “वसूनां वसुपत्नी" वसु शब्द- यँ अष्ट वसुव वसु पदार्थं का ग्राहक नर्ही हे। अन्यत्र “रुद्राणां दुहिता वसूनां" इस श्रुति वाक्यमें वसु कौ दुहिता होना बोध होने से वसु पत्नीत्व होना अयोग्य ही होता है । सुतरां यहाँ पर वसु शब्द से हर्य्यश्वादि क्रम से शूरवंश का अपर पर्याय भुक्त वसुदेव के पिता का बोध होता हे। इसको व्याख्या पहले हो चुकी है। अतएव उस वसुवंशीय राजा
७६ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
जिनके पति है, अर्थात् पालयिता द उनको वसु पत्नी कहा जाता है । उन्होने बालक श्रीकृष्ण को निज बालक रूप में प्राप्त करने कौ इच्छा कौ एवं “मनसा अभ्यागात्" मन मन मे जान गई कि विष्णु ही सम्प्रति वत्स रूपमे हमारे दुग्धपान कर पालन कर रहे है । इस प्रकार यज्ञ मेँ “सा" उस “दुहा” दोग््रीगण के अर्थात् दुग्धवती धेनुगण के मध्य मे “अघ्या" अविघातिनी “इयं” यह धेनु जिस प्रकार “पयोवर्धतां श्रीकृष्ण व वत्स के निमित्त दुग्ध वरदन कर रहीं ्थी। उस प्रकार “महते सौभगाय" महासौभाग्य रूप कैवल्य के निमित्त “अश्विभ्याम्” सम्प्रदानत्व व दोहन कर्तृत्व दोहन कं कारण हय रूप मे अथवा अश्वि अर्थात् धर्म देवता के निमित्त किम्वा अध्वर्यु रूप में संस्तुति के निमित्त दुग्ध वर्धन कर । अर्थात् जिस प्रकार श्रीकृष्ण व वत्सगण कं निमित्त दुग्ध वर्द्धन किये थे उस प्रकार वद्धित करे । आलोच्य मनत्रोक्त “सा व इयं" इस पद द्य से व “अभ्यागात्” पद से पूर्व वृत्तान्त सुचित हुआ है । एवं “वसूनां वसुपत्नी" वाक्य से श्रीमद्भागवत में वर्णित वत्स हरण वृत्तान्त का सुस्पष्ट उल्लेख मिलता हे ॥१०॥
गौरमीमेदनु वत्सं मिषन्तं मूर्द्धानं हिं कृणोन्मात वा उ। सृक्वाणं घर्म्ममभि वावशाना मिमातिमायुं पयते पयोभिः॥९९॥ ऋ. २।३।१९८ १।१६४।९८
गोरिति। सैव गौः अनुवत्सं ब्रह्मणा हतं स्ववत्समनुपश्चाज्जातं वत्सं श्रीकृष्णं अमीमेत् प्रमीतवती । कौदृशम्, मिषं व्याजं कूर्वाणं कपटवत्समित्यर्थः। कथममीेत् अत आह । मातेति। यतः मातवै मातुं वत्सं परीक्षितुं च निश्चितं मू्द्ानं हिकृणोत् हिंकारिणाप्रातवती मनसाज्ञातत्वेऽपि आघ्राणेनापि तं सातवती। कथमेतदत आह । सृक्वेति। सृक्वाणं घर्म्म सरतीति सृक्वाणं अभिसरं घरम्मवन्त शीघ्रागमन-श्रमेण स्वेदवन्तं अभिवावशाना सर्वतः शब्दं कर्वाणा वत्सस्य च मायुं शब्दं परिचिनोति । ततश्च पयोभिरूधस्थेः पयते प्रसत्ति प्रस्यन्दते। भगवद्रूप वत्त्वं त्वन्तरात्सत्वेन सन्निहित तरत्वान द्रागमनेन खिद्यते, नाप्यभितो गोभिः शब्दमन्विष्यते, नापि शब्दविशेषद्रारायं मदीयो वत्स इति निश्चीयते, नापि तजुजानानन्तरं गोपयः प्रवर्तत इति। अनात्मा हि संशय गोचरो दृश्यते न त्वात्मेति
श्रीवृन्दावन काण्डः ~= क - - (
अह न वेति वा नाहं वेति वा। तयोरात्मन्यदर्शनात्। अतः प्रत्यक् पराग् वत्सयोर्भं जानानो गो-गोपीगणो धातुरप्येतन्महिमन्ञानाभावात् वरीयानिति भावः ॥११॥
अनुवाद- “गौः” धेनु समूह “अनु ब्रह्मा के द्वारा निज वत्स अपहत होने से पश्चात्जात “मिषं वत्सः" कपट वत्स को अर्थात् माया वत्स को श्रीकृष्ण स्वरूप “अमीमेत्" अवधारण करने लगी । केसे अवधारण हुआ? उसे कहते हँ । “मात वै ॐ" वत्स कौ परीक्षा के निमित्त ही “मूर्द्धानं” “हि कृणोत्" मस्तक में हिं शब्द उच्चारण कर उसका आघ्राण ग्रहण किये। मन से ज्ञात होकर भी आघ्राण द्वारा तं उसे अर्थात् निज सन्तान को जान लिये । उसके बाद “ सृक्वाणं" उस वत्स के वदन प्रान्त को “घर्म" शीघ्र आने के कारण श्रम से घर्म्माभिषिक्त देखकर “अभिवावशाना" सब प्रकार से शब्द करने लगीं कारण वह धेनु निज वत्स के “मायुं” शब्द को "मिमाति" पहचानती थी । अनन्तर “पयोभिः” उधस्थ दुग्ध धारा के दारा “पयते" वत्स को आप्यायित करने लगी । भगवत् स्वरूप वत्स अन्तरात्मा रूप मे सन्निहित होने से दूरागमन क निमित्त क्लिष्ट नहीं हुई । धेनुगण भी निज निज वत्स को अन्वेषण के निमित्त कहीं नहीं गई । एवं शब्द विशेष के द्वारा “यह मेरा वत्स है" इस प्रकार निश्चय भी नहीं करना पड़ा। गोपीगण भी निज निज पुत्र के सम्बन्धमें भगवत् ज्ञान को छोडकर अन्य विध ज्ञान नहीं किए थे। कारण अनात्म विषय हौ संशय रूप में परिदृष्ट होता है, परमात्म विषय मेँ कभी भ संशय नही हो सकता है । जिस प्रकार भै हू या नर्ही, मेरा है या नहीं" इस उभय स्थल मेँ आत्म दर्शन का अभाव सुचित होता है। अतएव ' प्रत्यक् एवं पराक्" अर्थात् जीवात्मा वे परमात्मा स्वरूप में वत्सद्रय कौ भेद ज्ञानवती गो गोपीगण इस विषय मेँ महिमा ज्ञानहीन विधाता से भी वरीयान् अर्थात् श्रेष्ठतम हैँ ॥११॥
युक्ता मातासीद्धुरि दक्षिणाया अतिष्ठद् गर्भो वृजनीष्वन्तः । अमीमेद्वत्सो अनु गामपश्यद विशरूप्यं त्रिषुयोजनेषु ॥९२॥ ऋ. २।३।१५/ १।१६४।९ युक्तेति दक्षिणाया धुरि कर्मफलानामुपरिभागे स्थितेन विधिनेति शेष;। माता मिनोत्यनयेति माता दिव्यदृष्टियुक्ता वत्सानां परीक्चणे नियुक्तासीत्। माया
व म = श्रीमत्रभागवतम्
=-= वत्सेषु वत्सपेषु किमिदानीं व्रजे वृत्तमस्तीत्यालोचितवान् इत्यर्थः । ततश्च किं दृष्टमत आह । अतिष्टदिति। वृजनीषु मातृषु गर्भः वत्सः अन्तरिवान्तः गर्भ इव निकटे एव अतिष्ठदित्यपश्यत्। ततोऽनु पश्चात् वत्सो विष्णोः पुत्रो ब्रह्मा गां यत्र स्वयं वत्साः स्थापितास्तां भुवं अमीमेत् परीक्षितवान् । ततस्िषु योजनेषु व्यवहिते देशे विश्वरूप्यं अपश्यत् विश्वरूपस्य भावो विश्वरूपं यदेव योजनत्रयान्तरस्थेषु वत्सेषु रूपं तदेव कात्सर्येन व्रजस्थेष्वपश्यत्। ततश्चास्य इमे सत्या उत ते इति सन्देह एवासीत्। गोगोपीवत् विशेषावधारणे सामर्थ्य नासीदिति भावः॥१२॥
अनुवाद- “दक्षिणा या धुरि" कर्मफल समूह के उपरिचर विधि द्वारा “माता” दिव्य दृष्टि सम्पन जनगण, उस माया वत्स कौ परीक्षा मे “युक्ता आसीत्" नियुक्त हुए । अर्थात् बत्स वत्सपालकगण सम्प्रति व्रज मे किस प्रकार है उसकी आलोचना करने लगे। उन्होने देखा - “वृजनीषु" व्रजस्थिता जननीगण के समीपे "गर्भः" वत्सगण-“अन्त" गर्भं के समान अति निकट मेँ “अतिष्ठत् अवस्थान करते है । “अनु" अनन्तर “वत्सः भगवान् विष्णु कं पुत्र ब्रह्मा स्वयं जह्य पर “गां" अपहत वत्सगण को रक्खे थे। उस वत्सगण के साथ व्रज स्थित माया वत्सगण कौ तुलना कर “अमीमेत्" परीक्षा करने लगे। पश्चात् “ त्रिषु योजनेषु'' तीन योजन व्यवहित प्रदेश मे “विश्वरूप्यं अपश्यत्" विश्वरूप के भाव को देखा । अर्थात् उन्होने जो जो वत्स बालक को छिपाकर् रखे थे दीक उस प्रकार ही वत्स वत्सपाल समूह को व्रजधाम मे देखा। अनन्तर यह सत्य है, या वह सत्य है, यह संशय ब्रह्मा के हदय मे उपस्थित हआ। एवं गो गोपीगण के समान विशेष अवधारण मे समर्थ नहीं हुए ॥१२॥
ये अर्वाञ्चस्तँ उ पराच आहुय्य पराञ्चस्ताँ उ अर्व्वाच आहुः । इन्द्रश्च या चक्रथुः सोम तानि धुरा न युक्ता रजसो वहन्ति ॥९२॥ ऋ. २।३।९७/ १।९१६४।१९ अन्येषां विपर्य्यय एवासीदित्याह । ये इति। ये अर्व्वाञ्चोः वत्सादयः कृष्णसृष्ट्वाः तान् उ निश्चितं पराचः पूर्वान् ब्रह्मसृष्टानाहुः। एवं ये पराञ्च स्ते उ अर्व्वाश्च आहरिति स्पष्टर्थकानेवं विपर्य्ययेणाहुरत आह । इद्र इति । यायान्
श्रीवृन्दावन काण्डः 1. अ
इन्द्रः कृष्णः चात् विधाता तौ उभौ चक्रथुः निर्पितवन्तौ । पुरुषः, व्यत्ययः आर्षः। तानि तेषु ये अर्वाञ्च इत्युक्तम्। हे सोम! सोमाभिमानिन् विष्णो, धुराणयुक्ता रथादिधुरि नियुक्ता गवादय इव रजसः विपरीतवुद्धिरूपं रजो वहति नृ-पशवः॥१३॥
अनुवाद कंवल ब्रह्मा का ही नही, किन्तु अन्य अनेक का ही इस प्रकार विपर्य्यय भाव उपस्थित हुआ था। इस ऋक् में यह वृत्तान्त विवृत है। “ये अर्वाञ्च" जो सब वत्सादि श्रीकृष्ण सृष्ट-“तान् उ" वे सब ही “पराच आहः" पूर्व म ब्रह्मा ने सृष्टि कौ है। एवं जो सन “पराञ्चः” ब्रह्य द्वारा सृष्ट नरह है, “तान् उ" वे सब “अर्वाचः आहुः" श्रीकृष्ण सृष्ट है, अर्थात् पर सृष्ट को पूर्वसृष्ट एवं पूर्वं सृष्ट को परसृष्ट रूप विपर्य्यय भाव से स्पष्टतः निर्देश करने लगे। “इनदरश्च" श्रीकृष्ण व ब्रह्मा, उभय ही "या चक्रथुः" जिनकी सृष्टि को हे “वह” उसके मध्य मेँ जो सब श्रीकृष्ण सृष्ट है उसके सम्बन्ध में ही “हे सोम!” हे सोमाभिमानी विष्णो ! “ धुराणयुक्ताः” रथादि मे धुरि नियुक्त गवादि कौ भति नरपशुगण ही “रजसः” वहन्ति' विपरीत बुद्धि रूप अज्ञान पांशु वहन करते है ॥१३
यस्मिन् वृक्षे मध्वदः सुपर्णा निविशन्ते सुवते चाधिविश्वे। यस्येदाहुः पिप्पलं स्वादग्र तत्नोत्रशद्यः पितरं न वेद ॥ ९४॥ ऋ.२।३।१८/ १।१६४।२२ सन्तु ब्रहयेतरेषु वत्सेषु कृष्णात्मसु प्रमासंशय विपर्य्यया;। ये तु वत्सादयो वर्षमात्रं निरु्धास्तेषां का गतिः, इत्यत आह। यस्मिन् वृक्ष इति मध्वादा अननमश्नन्तः सुपर्णाः शोभनाः पतनाः कूर्दनपराः बालाः यस्मिन् वृक्षे निविशन्ति विश्वे सर्वे अधिसुवते च कृष्णमाज्ञापयन्ते च त्वमेव वत्सान्वेषण करु वयमत्रास्महे इति। तस्यैव वृक्षस्य समीपे यत् पिप्पलं स्वहस्तस्थमुपदंशफलं अग्रे सम्बंसरात्पूरवं स्वादु इतः स्वाद्वित्याहुः ततः पिप्पलं अतीतेऽपि वत्सरे न उत्रशत् उत्कर्षणं न नष्टम्। तत्र हेतुमाह । य इति। यः पितरं न वेद यः यत् यस्मात् पितरं सम्बतूसरमेवोक्तजनो न जानाति। पितृशब्दश्च सम्बतूसरवाची, पञ्चपादं पितरं द्वादशाकृतिमित्यत्र दृष्टः। सम्वतूसरमात्रः कालो गोपानां
(= श्रीमन्त्रभागवतम्
क्षणवद्गत इत्युपवृंहणे स्पष्टम् ॥९४॥
अनुवाद- कृष्णात्मक वत्सगण के सम्बन्ध मे निश्चय बोध का संशय विपर्य्यय हो, सम्प्रति जो सब वत्सादि एकवत्सर यावत् निरुद्ध होकर है उन सबकी गति क्या हुई 2 उसे कहते हे । “मध्वादः' मधु अथवा अन्न भोजनकारी “सुपर्णाः शोभनाङ्ग व क्रोडा पर व्रजबालकगण “यस्मिन् वृक्षे" जिस वृक्ष में "निविशन्ते" आरोहण किए थे “विश्वे” वे सब ही “अधिसुवते" श्रीकृष्ण को ज्ञापन करने लगे कि- “भईया, तुम वत्सान्वेषण हेतु जाओ, "हम सन यहौँ पर रहते है ।' "यस्य" उस वृक्ष के समीप मेँ जो "पिप्पल" मुख रोचक दंशित फल “अग्रे" सम्वत्सर के पहले जिस प्रकार “स्वादु ' सुस्वाद था “इत” उसकी अपेक्षा से भी अभी केसा सुस्वादु हुआ है, इस प्रकार “आहः ' कहने लगे, ५तत्" वह पिप्पल वत्सर अतीत होने पर भी “न उन्नशत्" नष्ट नदीं हुआ है। वरं स्वाद में उत्कर्ष ही हुआ है । कारण, “यः पितरं न वेद" वे सब पितृ शब्द वाची सम्बतसर को जान नहीं पाये । सम्वत्सर परमित काल गोप बालकों के लिए सामान्य क्षण के समान अतीत हो गया ॥९४॥
आ गरावभिरहन्येभिरक्तभिरव्वरिष्ठं वन्रमा जिघत्ति मायिनि। शतं वा यस्य प्रचरन् स्वेदने संवर्तयन्तो वि च वर्तयन्रहा ॥९५॥ ऋ. ४ ।३।२/ ५।४८ ।२
अथ गोवरदधनोद्धरणमाह। आ ग्रावभिरिति। यस्य इन्द्रस्य स्वेदने स्वकोये गृहे शतं शतसंख्या वा शताधिका वा सम्वत प्रलयं कुर्वन्तः साम्वर्तका नाम मेघगणाः प्रचरन् शब्दानुच्चरन्ति स इन्द्रः ग्रावभिरिति ग्राव समुदाय रूप पर्वतो लक्षयते। तेन अहन्येभिः अहं करतु अर्हद्िरतुभिः। रेदद्रमहमुत्साद्य पर्वतमहे प्रवर्तिते सतीत्यर्थः। वरिष्ठं उरुतमं वज्ञप्रायं वर्ष मायिनि मायामृगीनर्तके कृष्णे अक्तुभिः पुाणतः सप्तमी रात्रिभिः परिपितेन कालेन आजिघतिं सर्वतः क्षरति सप्तरात्र पर्य्यन्तं गोकुलोपरि कल्पान्तवर्षसमं वर्ष चकरेत्यर्थः। मायी तु अहा अहानि प्क्रतुन् विवर्तयन् विपरीतं वर्तयन् कुर्वन्नेव आस्ते इति शेषः। तस्माद्र्षात्न भयं चकारेति भावः ॥९५॥
अनुवाद - अनन्तर श्रीकृष्ण कौ गोवर्धन धारण लीला का वर्णन करते है। “यस्य स्वेदने" जिनके निज गृह मे “शतं शत संख्यक वा संख्यातीत
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ८१
“समवर्तयन्तः" प्रलयकारी सम्वर्तक नामक मेघगण-“प्रचरन्" गम्भीर शब्द करके विचरण करते ह, वह ही देवराज इनदर है । “ग्रावभिः” प्रस्तर स्तूपरूप- यहा पर गोवर्धन गिरिवर ही लक्ष्य है। उस पर्वत के द्वारा “अहन्येभिः" मँ ही सर्व यज्ञेश्वर हँ। इसका कारण प्रदर्शन के निमित्त श्रीकृष्ण, इन्द्र यज्ञ विनाश पूर्वक गिरि यज्ञ का प्रचलन करने से इनदर “वरिष्ठ वज्ज" अति भयङ्कर गुरुतर वज्प्रायवारिधारा “मायिनि"' मायामृगी नर्तक श्रीकृष्ण के ऊपर “अच््युभिः" सप्तर त्रि परिमितकाल आजिघर्तिं सब प्रकार से वर्षा करने लगे। अर्थात् श्रीकृष्ण-चिर प्रचलित इन्दर यज्ञ बन्द करवाने से देवराज इन्द्र ने सात रात गोकुल मे कल्पान्तकारि वर्षण मेधो से करवाया था। किन्तु मायी श्रीकृष्ण “अहा” प्रसिद्ध इन्द्र यज्ञ का “विवर्तयन्” विपरीत भाव से परिवर्तन कर दिये थे। फलतः उस प्रकार भयङ्कर वर्षणसे भी श्रीकृष्ण किसी प्रकार भीत नही हुए ॥१५॥
तामस्य रीति परशोरिव प्रत्यनीकमख्यम्भुजे अस्य वर्पसः। सचा यदिपितुमन्तमिव क्षयं रलं दधाति भ हूतये विशो ॥९६॥ ऋ. २।२।२६/ ५।४८ |
तामस्येति तां महता वर्षेण व्रजो नाशनीय इत्येवं रूपां अस्य इन्द्रस्य रीति क्रियां प्रकारं परशोरिव केवलं जीवनच्छेदकरीमालोच्य अस्य इन्द्रस्य प्रत्यनीकं तदीय भागहन्तृत्वेन शत्रं पर्वतं अस्य सप्तवार्षिकस्य वर्पसः स्वरूपस्य भूजे। धृतमिति शेषः। अख्यं अपश्यं न त्वयं पर्वतं धर्तुं तदा वामवद्देहेन वद्धि परपेत्यर्थः। स चा सख्या गोपवृन्देन निमित्तेन यदि यदापि तुमन्तं अन्नवन्तं क्षयं निवासमिव गोवर्दनमकरोत् तदाविशे प्रजायै प्रजानां भागार्थं तत्र रत्नं जातौ यदुत्कृष्टं वस्तु तत्सर्वं दधाति निदधाति । कौदृश्यै विशे, भरहूतये भरस्य रैल- भारस्य हूतिराह्वानं अङ्गीकरणं यस्याः सा भर-हूतिस्तस्ये ॥१६॥
अनुवाद्- “तां अस्य रीति" महावर्षण द्वारा व्रज विनाश योग्य इन्द्र कौ कार्यप्रणाली को “परशोरिव'" परशु के न्याय जीवन छेद कारिणी देखकर “अस्य इस इन्दर का “प्रत्यनीक यज्ञ भागहरण कारी शत्रु स्वरूप गोवर्धन पर्वत “अस्य वर्पसः भुजे" यह सप्तवर्षं वयस्क बालक के हाथ मे उद्धूत हे “अख्यं" यह देखा कि पर्वत धारण करते समय बालक कृष्ण वामनदेव के समान वृद्धि प्राप्त नही
८२ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
हए थे। “सचा" सखा गोपगण के निमित्त “यदिपि'" जिस समय में श्री गोवर्धन को ^तुमन्तं" अन्नविशिष्ट “क्षयं इव" निवास स्थान स्वरूप किए थे, उस समय “भर भूतये" जो लोक शेल भार वहन कारी श्रीकृष्ण के आह्वान को अद्खीकार किए थे, वे सब “विशे” प्रजा साधारण के भाग विभाग के निमित्त वहोँ पर “रत्नदधाति'" यावतीय उत्कृष्ट जातीय वस्तु का स्थापन किए थे ॥१६॥
तमस्य राजा वरुणस्तमश्विना क्रतुं सचन्त मारुतस्य वेधसः। दाधार दक्षमुत्तममहर्विदं व्रजञ्च विष्णुः सखिवां अपोर्णति ॥ १७॥ ऋ. २।२।२६/ १।१५६ ।४
तमस्येति। तं अस्य कृष्णस्य क्रतुं गिरियज्ञं वरुणो राजा तथा अश्विनौ देवौ तं क्रतुं सचन्त अनुकृतवन्तः। मारुतस्य जगतां प्राणस्य वेधसः विश्वखष्टः इन्द्रादन्येषां देवानां स क्रतुः सुखकरोभूदित्यर्थः। यत्र निमित्तं दृढं अहर्विदं क्रतोर्लन्धारं पर्वतं उत्तमं दाधार विष्णुः। हस्तेनेति शेषः। व्रजं तेनैव अहविदा शैलेन अपोर्णुते आच्छादयति यतः सथिवान् मित्राणां त्राणार्थमित्यर्थः ॥१७॥
अनुवाद- “अस्य” कृष्ण के ^तं क्रतुं" उस गिरि यज्ञ को “वरुणो राजा" जलाधिपति वरुणदेव एवं “अश्विना” अशिविदेवद्रय -“सचन्त" अनुकृत किए थे। “मारुतस्य'" जगत् प्राण पवन का एवं “वेधसः” विश्व सरष्टा ब्रह्मा का फलतः देवराज इन्द्र को छोडकर अन्य सब देवता के लिए वह गिरियन्ञ सुखकर हुआ था। कारण “विष्णुः” भगवान् श्रीकृष्ण “सखिवान्" सखागण समन्वित होकर अथवा सखागण को उस विपद् से परित्राण के निमित्त "दक्ष अहरविदं" सुदृढ यज्ञ प्रापक गिरि गोवर्धन का “उत्तमं दाधार" उत्तम रूप से वामहस्त से धारण किए थे एवं उस गिरिराज के हारा “व्रजञ्च" समग्र व्रजधाम “अपोर्णुते” आच्छादित किए थे ॥१७॥
तावां वास्तून्यश्मसि गमध्यै यत्र गावो भुरिशुद्खा अयासः। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥१८॥ ऋ. २।२।२४/ १।१५४।६ एवं गवां त्राणे कृते भग्नदर्पः इन्द्रः उपकृताः सुरभ्यादयो गावश्च
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ८३
प्रीताः सम्भूय व्रजं प्रति आगन्तु प्रार्थयन्ते । तावामिति, ता तानि वां युवयोः रामकृष्णयोवस्तूनि क्रो डास्थानानि गमध्यै गन्तुः उश्मसि कामयामहे यत्र येषु वास्तुषु गावो भूरिशृङ्गा महाशृङ्गः अयासः अयन्ति संचरन्ति। अत्र अस्मिं्लोके अह प्रसिद्ध तत् उरुगायस्य महाकौर््तेः वृष्णः परमानन्दवर्षिणः परमं महतूपदं स्थानं भूरि अत्यन्तं अवभाति अवभासते ॥१८॥
अनुवाद- इस प्रकार गोवरद्धन धारण पूर्वक श्रीकृष्ण ने निखिल धेनु यूथ को रक्षा करने से हतदर्पं देवराज इन्द्र एवं सुरभि प्रभृति स्वर्ग के धेनुवृन्द आनन्द से व्रजधाम मे आने के निमित्त प्रार्थना करने लगे। “ता वां” उस रामकृष्ण के “वास्तूनि” क्रौड़ास्थान समूह मे “गमध्यै” गमनः करने के निमित्त “उश्मसि" हम सब अभिलाषी ह । “यत्र उस क्रौडा स्थान में “गावः” गो समूह “भूरिृङ्खाः" महा शृङ्ग विशिष्ट “अयास" विचरण कर रहे है । “अत्र' इस लोक मे इस धराधाम में “तत्” वह “अह प्रसिद्ध “उरुगायस्य वृष्णः" महाकौर्तिशाली परमानन्द वर्षणकारी श्रीकृष्ण के “परमं पदं" महत् स्थान “भूरिअवभाति" स्वीय महिमा से अत्यन्त उदभासित है ।१८
ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासदहिम्। हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपति गवाम्॥९९॥ ऋ. ८।८।२४/ १०।९६६।१
एवं मनोरथं कृत्त्वा तेषु भूमावागतेषु इन्द्रं ज्येष्ठत्वेन बहुमानयन् श्रीभगवानुवाच । ऋषभमिति। हे इन्द्र! मां समानानां सजातीनां क्षत्रियाणामृषभं श्रेष्ठं कुरु सपत्नानां शत्रूणां विषासहिं युद्धे सहनसमर्थ हन्तारं शत्रूणां कृथि। तथा विराजं विशेषेण राजमानं कृधि। तथा गोपति मां गवां च विराजं कृधि ॥१९॥
अनुवाद- उस अभिलाष से सुरभी प्रभृति के साथ इन्द्रकोभूत्रजमें आगमन करते देखकर भगवान् श्रीकृष्ण, देवराज के प्रति ज्येष्ठ ज्ञान से बहु सम्मान प्रदर्शन पूर्वक कहने लगे “हे इन्द्र! “मा" मुञ्चे “समानानां" सजातीय क्षत्रियगण के मध्य मे “ऋषभं" श्रेष्ठ रूप मे प्रतिष्ठित करें । "सपत्नानां" शत्रु गण के “विषासर्हि" युद्ध मे सहन समर्थं अर्थात् सहिष्णु बना दे । “शत्रुणा हन्तारं" शत्रुगण के निहन्ता बना
८४ ) श्रीमन्रभागवतम्
दं । “विराज मुञ्चे विशेष रूप से शोभाशाली कर दे, एवं “गवां गो समूह के मध्य मे मुञ्चे “गोपति” गोविन्द रूप मे अधिष्ठित करे ॥९९॥
आ गावो अग्मन्नुत भद्मक्रन्तत्सीदन्तुगोष्ठे रणय॑त्वस्मे। प्रजावतीः पुरुरूपा इह स्युरिन्द्राय पूर्वीरुषसो दुहानाः ॥२०॥ ऋ. ४ ।६।२५/ ६।२८।९
ततो गोभिरिन््रेण च गवां राज्येभिषिक्तो विष्णुस्ताः स्तैति द्वाभ्याम्। आ गाव इति। गावः आग्मन् आगताः, उत अपि च भदरं मम पटाभिषेक च अक्रन् कृतवत्यः। उभयत्र मन्त्रे “घसेति लेर्लुक्। गमहनजनेति गमेरुपधाया लोपः। संयोगान्तस्य लोपश्चोभयत्र"। अतःपरं भवत्यः गोष्ठे सीदन्तु उपविशन्तु, अस्मे अस्मान् रणयन्तु रमयन्त प्रजावतीः प्रजावत्यः पुरुरूपा श्वेतरक्तपाटलाद्यनेकरूपवत्यः इह स्युः भवन्तु पूर्वी देवलोकश्च। इन्द्राय सान्नाष्यभोक्त्रे नित्याग्निहोत्रेवाग्नेः पूर्वाहुतिः प्रजापतेरुतरद्रहूतमिति श्रुतेः। प्रत्यहं उयसः उषः कालान्। अत्यन्तसंयोगे द्वितीया । दुहानाः दोहं ददत्यः। स्युरित्यप- कृष्यते॥२०॥
अनुवाद - अनन्तर सुरभिगण एवं इन्द्र के द्वारा अभिषिक्त होकर श्रीकृष्ण उन सबक स्तुति करने लगे। “गावः” हे सुरभिगण } आप सब “आग्मन्" आगमन किए है, “उत'" अपिच मेरा “भद्र" अभिषेक उत्सव “अक्रन्" सम्पन्न किये हे । अतः पर आप सब “गोष्ठे गोष्ठालय मे “सीदन्तु" प्रवेश करे एवं “अस्मे” हम सबको सुखी कर आप “प्रजावती” बहुसन्तानवती एवं “पुरुरूपा” श्वेत रक्त पारलादि बहुरूपवती हे । आप सब “इह स्युः" इस स्थान में अवस्थान करें । जिस प्रकार “पूर्वी " देवलोक मे “इन्द्राय साम्नाष्य" अर्थात् मन्त्रपूत हविः भोक्ता इन्द्र के निमित्त अथवा नित्याग्नि क्षेत्र मे अग्निमें पूर्वाहुति के निमित्त प्रत्यह “उषसः उषाकाल मे “दुहानाः” आप सब “दोह दुग्ध दान करती है, उस प्रकार यँ पर रहकर भी दुग्धदान करे ॥२०॥
इन्द्र यज्वने पृणते च शिक्षत्युपेद्ददातिन स्वं मुघायति। भूयो भूयोरयिमिदस्य वर्दधयन्नभिन्रे खिल्ये निदधातिदेवयुम् ॥२९॥ ऋ. ४।६।५२
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ८५
इन्द्रमिति। इन्द्रो देवता यज्वने यजनशीलाय पृणते ददते च यजमानाय शिक्षति कल्याणं पन्थानं दर्शयति । उपेत् समीप एव अविलम्बेनैव ददाति स्वं क्रतुफलं न तु मूषायति अव्यभिचारेण क्रतुफलप्रद इत्यर्थः। भूयोभूयोधिक अस्य यजमानस्य रयि धनं इत् एव वर्द्धयन् तमेव देवैर्योति संयुज्यत इति देवयु स्तं देवानां भक्तं अभित्रे शत्रुकृतभेदरहिते खिल्ये समुदाये निदधाति तस्मै सा जनायाधिपत्यं ददातीत्यर्थः ॥२१॥
अनुवाद- अनन्तर इन्द्र कौ स्तुति करते है । “इन्द्रः” देवराज इन्दर “यज्ज्वने पृणते" यजनशील को फलदान करते हँ, ' चशिक्षति' एवं कल्याण पथ का प्रदर्शन करते हँ । “उपेत् ददाति" उस यजमान के समीप मेँ सत्वर यज्ञीय फल प्रदान करते हँ। कदा च उस “स्वं यज्ञफल “न मूषायति" अपहरण नहीं करते हँ । फलतः आप अव्याभिचार से यज्ञ फलप्रद हैँ । “भूयोभूयः” अत्यधिक रूप मे “अस्य'" इस यजमान के “रायं इत् वर्दयन्" धनराशि वरदन कर "देवयुं" उस देवभक्त यजमान को “अभिन्ने खिल्ये" शत्रुकृत भेदरहित निखिल अवस्था में “निदधाति” निहित करते ह । अर्थात् वह इन्द्र निखिल जनों के ऊपर आधिपत्य प्रदान करते है ॥२१॥
न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति। देवांश्च याभिर्यजते ददाति च ज्योगित्ताभिः सचते गोपतिः सहः ॥२२॥ ऋ. ४।६।२५/ ६।२८।२,२३
ततो निर्भयाः गावः आसन्नित्याह। न ता नशन्तीति। ताः गावो न नशन्ति तस्करश्च ताः गाः न दभाति नाभिभवति, आमित्रः अमित्र प्रभवो व्यथिः पीडा आसाम एताः गान आदधर्षति न भीषयति याभिः यत् प्रस्व पय आदिभिः देवान् युजते तथा ददाति च दक्षिणात्वेन ताभिः गोभिः ज्योक् निरन्तर गोपतिः सर्वोपि गोमान् सन् इत् सद्घतो भवत्येव ॥२२॥
अनुवाद- इसके बाद गो समूह अतिशय निर्भय हो गये थे। इस मन्त्र मे वह परिव्यक्त हो रहा है । “ताः न नशन्ति" उक्त गो समूह विनष्ट नहीं होते है एवं “तस्करः न दभाति" चोर भी अपहरण नहीं करता हे, “अमित्रः व्यथिः" अमित्र प्रभव अर्थात् शत्रुजन प्रभव पीडा “आसां न आदधर्षति" उन सबको
८६ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
व्यथित व पीडित नहीं करती है। परन्तु “याभिः” जिनके दुग्धादि के द्वारा “देवान् भजते" देवयजन होता है, एवं “ददाति च" दक्षिणा रूपमे दान भी किये जाते है “ताभिः” उस गो गण के द्वारा “ज्योक्” निरन्तर “गोपतिः” श्री गोविन्द कौ “सहः भवते" महिमा सेवित होती रहती है। अथवा गोस्वामिक यजमान समूह प्रभूत गो सम्पन्न होकर उन श्रीगोविन्द के साथ सम्मिलित होकर रहते ह ॥२२॥
न ता अर्वां रेणुककाटो अश्नुते न संस्कृतत्रमुपयन्ति ता अभि। उरुगायमभयं तस्य ता अनुगावो मर्तस्य विचरन्ति यज्वनः ॥२२३॥ ऋ. ४।६।२५/ ६।२८ ।४
न ता अर्वेति। ताः गाः अर्वा हयरूपी केशी नाम असुरः रेणुककाटः रेणूना ककाटयति अतिशयेन आवृणोति नभोगर्भ इति रेणुककाटः। न अश्नुते व्याप्नोति वशीकर्तुं न शव्नोतीत्यर्थः। तस्य गोयुथे प्रविष्यमात्रस्य कृष्णेन नाशितत्वात्। तथा ताः गावः संस्कृतत्रं संस्कृतेनैव हविरादिना तृप्तः सन् त्रायत इति संस्कृतम् अष्टाचत्वारिंशत् संस्कारवन्तं त्रायत वा इति संस्कृतत्रोग्निः तं प्रति ता अभ्युपयन्ति न च वाडवाग्नौः पतन्तीत्यर्थः। कृष्णेनैव वाडवास्यापि पीतत्वात्। एतच्चारोगादेरप्युपलक्षणम्। निर्भयत्वे हेतुमाह- उर्विति। उरुगायं महाकौर्तिम् अभयं भयहीनमनुलक्ष्य तस्य मर्तस्य यज्वनो नन्दादेगवो विचरन्ति ॥२३॥
अनुवाद- इस मन्त्र मे श्रीकृष्ण द्वारा हयरूपी कंशीदैत्य वध एवं दावानल भक्षण लीला वणित हे। “ताः" उस गो समूह को “अर्वा” अश्वरूपी केशी नामक असुर “रेणुककाटः” धूलिपटल द्वारा नभोगर्भं पर्य्यन्त अतिशय रूप से आवृत कर दिये थे। “न अश्नुते" उसे कोई भी वशीभूत करने मे समर्थं नहीं थे। किन्तु वह असुर गो समूह में प्रविष्ट होने से श्रीकृष्ण ने उसे मार डाला। “न ताः" एवं उस धेनु समूह “सस्कृतत्रं' सुसंस्कृत हविः प्रभृति के हारा तृप्त हुई थी, जो अष्ट चत्वारिंशत् प्रकार संस्कारवान् व्यक्ति को उद्धार करते है, उस अग्नि के मध्य मे “अभ्युपयन्ति गिर गये। श्रीकृष्ण ने उस समय दावानल को पान कर लिया, ओर उन सबकौ रक्षा कौ, उससे धेनु समृह नीरोग
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ८७
हो गई थी । सम्प्रति निर्भय होने के कारण को कहते है, “उरुगायं" इस प्रकार महाकौर्तिशाली श्रीकृष्ण को “अभयं” निर्भय देखकर “तस्यमर्तस्य यज्वनः" उस भूव्रन के भजनशील श्रीनन्दादि कौ “ताः गावः” धेनु समूह “विचरन्ति” निर्भय से विचरण करने लगीं ॥२३॥
हस्ते दधानो नुम्ना विश्वान्यमे देवान्धाद्गुहानिषीदन्। विदन्तीमत्र नरोधियंधा हदायत्तष्टान् मन्त्रानशंसन्॥ २४॥ ऋ. १।५।९११/ १।६७।३
पूर्वमन्त्रोपन्यस्तस्यार्वणो वधोन्यत्रापि श्रूयते । हस्त इति। हस्ते भुजे विश्वानि सर्वाणि नृम्ना बलानि दधानो हस्तेनैव गुहा अश्वस्य मुखगुहायां निषीदन् प्रविश्य स्थिरीभवन् ततो मुखस्थे हस्ते विवृद्धिगते कर्कटीफलवत् विदीर्णे च केशिनि देवान् अमे सुखे धात् अदधत्। एतच्च भागवते द्रष्टव्यं । “विदन्तीति"। यम् एनं सुखयितारं अत्र भक्तौ विदन्ति लभन्ते नरो मनुष्याः ये धियन्धा बुद्धि ६ रयन्तः निगृहन्तो योगिनः यदनुग्रहात् हदा मनसैव तष्टान् परिच्छिनान् मन्त्रान् अशंसन् हिरण्यगर्भाद्याः शिष्येभ्यः अकथयन्। यथोक्तं ' तेन ब्रह्म हृदा य आदि कवये" (भा १।१।१) । इति ॥२४॥
अनुवाद- पूर्वोक्त मन्त्र मे अर्वा अर्थात् केशीदैत्य वध के विषय में सूचित है, इस मन्त्र मे उसका विवरण सुस्पष्ट भाव से प्रकाशित हुआ है । श्री भगवान् श्रीकृष्ण “हस्ते विश्वानि नूम्ना दधानः" निज हस्त मेँ असुर नाशिनी समस्त शक्ति को धारण किये थे। अनन्तर उस हस्त “गुहा” अश्वरूपी असुर कं मुख विवर में “निषीदन्” प्रविष्ट कराकर स्थिर भाव से अवस्थान किए थे । पश्चात् मुख विवर मे हस्त कौ वुद्धि विशोष रूप से होने से वह मुख विवर ककटीफल के समान विदीर्ण हो गया । इस प्रकार केशी दैत्य को विनष्ट कर श्रीकृष्ण “देवान्” देवगण को “अमेधात्" सुख सागर में निमज्जित किए थे। यह विषय श्रीमद्भागवत के १०।३७ में विशद् रूप से वर्णित है। ५यं" जिनको अर्थात् इस सुख प्रदाता को “अत्र इस भक्ति मार्गमे जो लोक ^ विदन्ति जानते है, वह “नरः” मनुष्यगण ही “धियं धाः” सद्बुद्धि धारण करते है, अर्थात् विशेष बुद्धिमान् है । योगीगण जिनके अनुग्रह से “हदा" मन से
८८ ) श्रीमन्रभागवतम्
"तष्टान्' परिच्छिन्न मन्त्र समूह का “अशंसन्” प्रकाश करते है । वह भगवान् श्रीकृष्ण ही हिरण्यगर्भादि शिष्यगण को उक्त मन्त्र समूह कहे थे । श्रीमद्भागवत के १।१ में वर्णित हे, “तेने ब्रह्य हृदा य आदि कवये" इत्यादि ॥२४॥
स जिह्वया चतुरनीक ऋञ्ते चारुवसानो वरुणो यतन्नरिम्। न तस्य विदा पुरुषत्वतावयं यतो भगः सवितादातिवार्यम्॥ २५॥ ऋ. ४।३।२/ ५।४८।५
पूर्वमन्तरे सूचितः अग्निभयाभावहेतुः। तं प्रकटन् कृष्ण कृतमग्निपानं प्रदेशान्तरस्थेन मन्त्रेणाह स जिहयेति। स मायी यस्योपरि इन्द्रेण साम्वर्तको मेघगणः प्रेरितः स दावाग्निरूपिऽणोसुरस्य विनाशे चतुरनीकोपि चत्वारि पृथिव्यप्तेजोवाय्वात्मकानि अनीकानि सैन्यानीव प्रतिपक्ष क्षयकारणानि सन्त्यस्य चतुरनीकः। तथाहि। बहुभिः पांशुभिरद्धिर्वा तीव्रवायुना वा दिव्याच्चि मदग्निः शाम्यतीति प्रसिद्धम्। आसुरोग्नि दैवेनाग्निना शमयितुं युक्तः, माहेश्वरोज्चर इव वैष्णवेन ज्वरेण । अथापि भक्तष्वत्यन्त वात्सल्यात् स्वस्य जिहयैव अरिम् आसुरमग्निम् ऋञ्जते हिनस्ति। कदृशः। चारुबसानः रम्यं मनुष्यशरीरं दधान इत्यर्थः । भक्तान् गोपादीन् स्वीयत्वेन वृणनः यतन् यतमानः तस्य एवम्बिधस्य पुरुषत्वता पौरुषाणि । द्वितीयो भावप्रत्ययः छन्दसः। वयं न विद्म न जानीमः। यतो मानुषेष्वदृष्टमपि दावाग्निपानं करोति। यतो यदनुग्रहात् भगो भगवान् सविता सूर्य्यो वार्य्य वारि। स्वार्थे ष्यञ्। दाति ददाति। यद्वा कृष्णं त इमेत्यस्यानन्तरं मन्त्र उदाहार्य्यः ॥२५॥
अनुवाद- पूर्व मनत्रोक्त श्रीकृष्ण कौ दावानल भक्षण लीला का हेतु निर्देश करते है । “सः” वह मायी, जिसके प्रति इन्द्र ने सम्वर्तक मेघो को भेजा था, वह माया मनुष्यधारी श्रीकृष्ण दावाग्नरूपी असुर विनाश हेतु “चतुरनीकः" क्षिति, जल, तेज, वायु चतुर्भूतात्मक अनीक अर्थात् प्रतिपक्ष क्षयकारी सैन्य विशिष्ट के न्याय हो गये थे। उक्त भूत चतुष्टय द्वारा आसुराग्न प्रशमित होता है, इसमें श्रोत प्रमाण दृष्ट होता हे, “बहुभिः पांशुभिरद्धर्वा” इत्यादि । आसुराग्नि दैवाग्नि के वारा प्रशमित होना ही सङ्गत है। कारण, माहेश्वर ज्वर, वैष्णव ज्वर से प्रशमित होता है, अनन्तर आप भक्तजनों के प्रति अतिशय वात्सल्य
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ८९
प्रयुक्त “चारुवसानः" रमणीय देह धारण कर “जिह्या” स्वीय रसना के द्वारा “अरि ऋञ्चते" उस आसुराग्नि को विनष्ट किये थे। अर्थात् दावानल पान किए थे। एवं “वरुणः यतन्" भक्त गोपादि को अति निज जन रूप में वरण किये थे । “तस्य'' उनके इस प्रकार “पुरुषत्वता"” पौरुष समूह को “वयं न विद्य" हम सब जानने मे सक्षम नहीं है, “यतः" कारण, मनुष्यगण के मध्यमे जो चीज कभी भी नहीं देखी जाती है, आपने उस प्रकार अलौकिक कर्म कियाहे, अर्थात् दावानल का पान अनायास ही किया है, जिनके अनुग्रह लाभ हेतु “भगः सविता” भगवान् सूर्यदेव भी उस समय वर्षा किए थे। इस मन्त्र को छोडकर “कृष्णं त इमेति" मन्त्र भी इसका उदाहरण हो सकता है ॥२५॥
सद्यो जातस्य ददृशानमोजो यदस्य वातो अनुवाति शोचिः। वृणक्ति तिग्मामतसेषु जिह्वां स्थिराचिदज्नादयते विजम्भेः ॥ २६ ॥ ऋ. ३।५।७/ ४।७।१०
सद्योजातस्येति। सद्योजातस्य शिशोरेव कृष्णस्य उजः सामर्थ्यं ददृशानं ददृशे । दृष्टपूर्वमित्यर्थः। यच्छोचिः ज्वालाजालम् अतसेषु शुष्कतृणेषु वातोनुवाति सम्बवर्हयति। ततः अस्य शिशोस्तिग्मां जिह्वाम्। अनु इत्यनुकृष्यते । तेन ता प्राप्येत्यर्थः रिणक्ति रिच्यते । नश्यतीत्यर्थः। स्थिराचिदन्ना यथा स्थिरं पायसाद्यत्नं तद्वदित्यर्थः । तत्र हेतुमाह- दयते, विजम्भेरिति। एवम् सद्योजातो- जम्भरसुर हेतुभिर्विशेषेण दयते तेः पीडितिलोकं पालयति। अतो महान् कारुणि- कोऽयमेव शरणीकरणीय इति भावः ॥२६॥
अनुवाद- “सद्योजातस्य” सद्योजात शिशु के न्याय अर्थात् अति बालक श्रीकृष्ण को “ओजः ददृशान" तेज वा सामर्थ्यं इसके पहले देखी गई हे, “यत् शोचिः" जिस अग्निराशि को “अतसेषु" शुष्क तृणादि के मध्य में “वातः अनुवाति" वायु क्रमशः विवद्धित करते रहते है । उस अग्निसमूह “अस्य” इस बालक श्रीकृष्ण कौ “तिग्मां जिह्वा" सुतीक्ष्ण जिह्वा को प्राप्त कर “स्थिरा विदत्ना" जिस प्रकार स्थिर पायसादि अन्न जिह्वा को प्राप्त कर निःशेषित होता है, उस प्रकार “रिशक्तिः" निःशेष से विलीन हो गए। अर्थात् श्रीकृष्ण अति शिशु होकर भी असुररूपी दावानल को पायसान्न के समान भक्षण कर गये।
९० ) श्रीमन्रभागवतम्
इसका कारण यह है कि “जम्भैः” असुरगण के अत्याचार हेतु आप “विद्यते” विशेष रूप दया प्रकट करते हँ । अर्थात् आप इस प्रकार दुष्कृत असुर पीडित लोक के प्रति दया कर पालन करते है । अतएव आप जब एतादृश महा कारुणिक है, तब इनको शरण मे आना एकान्त कर्तव्य है ॥२६॥
उपेदमुपपर्च्चन मासु गोघुप पृच्यताम्। उप ऋषभस्य रेतस्युपेन्द्र तव वीर्ये ॥ २७॥ ऋ. ४।६।२५/ ६।२८।८
उपेदमिति। हे उपेन्द्र तव वीर्ये जाग्रत्यपि सति आसु गोषु इदम् उपपर्चनं निहितस्य गर्भ॑स्य विनाशार्थं पुनः ऋषभासुरेण क्रियामाणं रेतः सेचनम् उपपृच्यतां उपेत्य कथं समृष्टं जायताम् । उपशब्दो पादपूरणार्थो । ऋषभस्य रेतसि निमित्तभूते सति ॥२७॥
अनुवाद - अनन्तर वृषभासुर के अत्याचार से प्रपीडित होकर धेनु समूह जिस प्रकार व्याकुल भाव से श्रीकृष्ण को निवेदन करने लगीं, उसका वर्णन इस मन्त्र में हे। “हे उपेन्द्र" । हे श्रीकृष्ण ! “तव वीर्य्य" आपके प्रभाव से जाग्रत अर्थात् अवहित होने पर भी “ऋषभस्य रेतसि" वृषभासुर के रेतःसेक होकर अर्थात् हम सब गर्भवती धेनु हँ, हमारे गर्भनाश करने के उदेश्य से वृषासुर द्वारा “आसु गोषु" सगर्भा धेनु के प्रति पुनर्वार “इदं उपपर्वनं" रेतः सेक क्रिया अर्थात् गर्भाधान क्रिया “उप पृच्यातां" समुपस्थित होकर किस प्रकार घोर अनिष्टोत्पादन कर रही है ॥२७॥
प्रणेमस्मिन्ददृटो सोपो अन्तर्गोपानेममाविरस्था कृणोति। स तिग्मशुङ्धः वृषभं युयुत्सन् दुहस्तस्थौ बहुले वद्धो अन्तः ॥ २८ ॥ ऋ. ८।७।६/ १०।४८।१० इत्थं गोवचः श्रुत्वा कृष्णेन कृतो वृषभवधः प्रदेशान्तरे श्रूयते । प्रणेमस्मिन्निति। योऽन्तर्गोपाः अन्तर्यामिन् नेमस्मिन् अद्ध प्रपञ्चे स्थावरः सोमो नाम तत्पोषकः प्रददृशे प्रकर्षेण दृष्टो वेदे सोम ओषधीनामधिपतिरित्यादौ। यश्च नेमम् अर्द्धं प्रपञ्चम् अस्था जङ्कमत्वेन आविः कृणोति विस्पष्टयति
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ९१
सोऽन्तर्गोपास्तिग्मशृद्धं वृषभं वृषभासुर युयुत्सन् योद्धुमिच्छन्। द्रुहो द्रुह्यन् तस्थौ युद्धेन हत्वा स्थितोऽभूदित्यर्थः। कीदृशोऽसौ । बहुले महति जने संसारे अन्तःहदय पुण्डरीकरूपे उपाधौ बद्धमायया रुद्धोस्ति। योऽयमन्तर्य्यामी जगद्धेतुः स एव जीवभावं प्राप्तान् स्वप्रतिविम्बान् स्थावरजङ्गमान् पातीति भावः॥२८॥
अनुवाद- श्रीकृष्ण, सगर्भा धेनु वृन्दं कौ कातरोक्ति को सुनकर वृषभासुर को मार डाले थे । इस मन्त्र मे उसका विवरण विवृत है । “नेमस्मिन्" इस अद्ध प्रपञ्च मे, “सोमः” स्थावर सोम नामक अर्थात् वेदोक्त ओषधिवृन्द के अधिपति व तत् पोषक रूप में "प्रददृशे" दृष्ट होते है । एवं जो “नेमं” अर्द्ध प्रपञ्च को “अस्था” जङ्खम रूप मे “आविः कृणोति" प्रकटित किए है। “सोऽन्तर्गोपाः” वह अन्तर्यामी गोपालक श्रीकृष्ण- “तिग्मशृङ्घं वृषभं" तीक्ष्ण शृङ्ग विशिष्ट वृषासुर को “युयुत्सनद्रहः” युद्धेच्छु होकर युद्ध मे मारकर “तस्थो" विराज करने लगे। आप ही इस जगत् मे “बहुले” निखिल जीव के “अन्तः” अन्तःकरणरूप उपाधि मे “बद्धः” मायाबद्ध होकर है । फलतः जो यह अन्तर्य्यामी जगत् कारण है, वह ही जीव भाव प्राप्त स्व प्रतिविम्ब स्वरूप मे निखिल स्थावर जङ्गम कौ रक्षा करते है ॥२८॥
अजो न क्षां दाधार पृथिवीं तस्तम्भद्यां मन्त्रेभिः सत्यैः। प्रिया पदानि पश्वोनिपाहि विश्वायुरग्ने गुहागुहङ्खाः॥ २९॥ ऋ. १-५-११/ १-६७-६
अघासुरग्रस्तमात्मानं गोपजनो निवेदयति। अजो न क्षामिति। यथा विष्णुः पृथिर्वीं महती कषां भुवं दाधार दधार । द्यां च तस्तम्भ मन्त्रेभिः मन्त्रैः स्वीयैर्विचार्वलिबन्धनार्थ कृतैः सत्ये निमित्तभूतः । एवमयमसुरोऽस्मान् ग्रसितुम् अधरेण हनुना भुवमाक्रम्य उर्द्धहनुना दिवमुत्तभ्यास्तो अतस्तं प्रियाः प्रियाणां गोपानां पश्वः पशूनां च पदानि मार्गे गमनचिह्ानि निलीनानि सर्वेषामसुरमुखे प्रविष्टत्वात् निपाहि। अर्थादिर्भकानेव निपाहीत्यस्य हीनानुपलभ्य त्राहीत्यर्थः। त्राणोपायमाह। विश्वेति। विश्वायुर्विश्वस्य जीवनप्रदाता त्वम् अग्ने जीवनरूपेणान्तःप्रविष्टगुहायां गृहं गृढं यथास्यात्तथा गाः गच्छेत्यर्थः। अयं भावः। अस्य वृक्षादिना वधेऽन्तर्गतानां वधः स्यात्। अतोऽस्यान्तः प्रविश्य
९२ ) श्रीमन््रभागवतम्
इतोऽभ्यधिकया स्वशरीर वृद्धया एनं विदारयेति। तच्च तथैव चकार भगवान् । अतएव वाक्यशेषे समेव धीराः संमाय चक्रूरिति तच्छरीरस्य सदाकारत्वं श्रूयते । पुराणे च तस्य गोपक्रडास्थानं स्मर्य्यते । तदेव सूयवसादित्यादिना ग्रन्थेन गवां लालनपालनादिकमुक्तम् ॥२९॥
अनुवाद- अनन्तर अघासुर ग्रस्त गोपगण आत्मनिवेदन कर रहे है “अजः न" जिस प्रकार भगवान् विष्णु “पृथिवीं क्षां" विपुला धरणी को ""दाधार" धारण किए थे एवं “द्या” अन्तरिक्ष को “सत्ये: मन्त्रेभिः" अवितथ अर्थ विशिष्ट अथवा निमित्तभूत मन्त्र समूह के द्वारा अर्थात् स्वीय विचार बुद्धि के द्वारा बलि को बेधने के लिए निमित्त भूत कार्य द्वारा अर्थात् स्वीय विचार बुद्धि द्वारा बलि को बन्धन करने के निमित्त भूत कार्य के द्वारा “अस्तम्भः” स्तम्भन किए थे, उस प्रकार यह असुर हम सबको ग्रास करने के निमित्त निम्न हनु को भूतल में स्थापन कर अर्ध हनु को अन्तरीक्ष मे स्थापन किया हे, उससे सब ही प्राणी असुर के मुख में प्रविष्ट होने से “प्रियाः” प्रिय सखा गोप बालकों के एवं “पश्वः” पशुगण के “पदानि” पथ पथ मे गमन चिह समूह जिससे निलीन न हो, “निपाहि" उसका उपाय करो, अर्थात् असुर कौ अपेक्षा हीन बल जानकर शिशुगण कौ रक्षा करो। कारण तुम ही “विश्वाय विश्व जीवन प्रदाता हो, “हे अग्ने!" तुम ही जीवरूप में अन्तः प्रविष्ट होकर “गुदायां" हदय रूप गुहा मेँ “गुह” गृढृ रूप मे “गाः” गमनशील हो । अर्थात् वृक्षादि के द्वारा उसको बध करने से यह वध कार्य साधारण वध के अन्तर्गत होगा, अतः उसके अन्तःस्थल में प्रविष्ट होकर निज शरीर वृद्धि के द्वारा उसे विदीर्ण करो । श्रीकृष्ण वैसा ही किए थे, तब उनका शरीर विस्तीर्णं हो गया था, इसमे श्रुति प्रमाण भी है “समेव धीराः संमाय चक्रूरिति"। इसका विशद वर्णन श्रीमदभागवतादि ग्रन्थ मे है॥२९॥
गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदीद्विपदी सा चतुष्यदी। अष्टापदी नवपदी बभूवुसी सहस्राक्षरा परमे व्योमन् ॥२०॥ ऋ. २।३।२२/ १।१६४।४१ सम्प्रति वयःसन्धिगतस्य भगवतो गोपीविनोदादिरनुग्रह उच्यते।
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ९३
गौरीरित्यादिना । पूर्वमनत्रे ऋचो अक्षरे इत्यत्राक्षत्वनोक्तः सहस्राक्षरा वाक्देवता रूपाः परमे व्योमन् तीरतरोरुच्चप्रदेरो स्थित्या गौरीः पतिम्बराः कन्यामिमाय निनिन्देत्यर्थः। कथम्। सलीलानि तक्षती त्वं यदि बभूवुषी असि तर्हि एकपदीत्यादि नवपदी भवत्यन्तं । जात्यभिप्रायेणेकवचनान्तं । अयमर्थः। यतः नग्नीभूय तीर्थजलानि स्पृशन्ती स्त्री तीर्थशक्ति क्षिणोतीति यूयं च सर्वस्तथाभूताः स्वापराधजेन दोषेणाभिभूतास्थः। यदि च तत् परिहारेण भवतीनामेश्वर्येच्छस्ति तहिं नग्ना एव सत्यः एकपद्यो भवत एक पदं बहिरागच्छतेत्यर्थः। तथा कृतेषु पुनरविपदीभवेत्याह । एवं नवपदीत्यन्तमुक्ते तास्तंवचनमलद्यतन्तस्तथैव कृत्या वखराणि परिदधुः उपवृंहणे तु व्योमस्थत्वं वस्त्राणि हरत एव उक्तम्। अतो नवपद्यनन्तरं वराणि ददावित्यपि योज्यम् ॥३०॥
अनुवाद- सम्प्रति वयः सन्धिगत भगवान् श्रीकृष्ण के गोपीविनोदादि अनुग्रह का विषय विवृत हो रहा हे । पूर्व मन्त्र मेँ “ऋचो अक्षरे” जो अभिहित है, बह अक्षर रूप में उक्त “सहसखाक्षरा" वाकदेवतारूप श्रीकृष्ण “परमे व्योमन्" यमुना तरवर्ति कदम्ब तरु के उच्च प्रदेश मेँ अवस्थित होकर “गौरीः" पतिकामनापरा गोपाङ्गनागण की “मिमाय” कहकर निन्दा करने लगे, तुम सब “सलिलानि तक्षती” नग्नावस्था में तीर्थजल स्पर्श करके अच्छ नहीं किये, कारण स्रीगण तीर्थं शक्ति को क्षीण करती है । सुतरां तुम सब यह गर्हित कर्म करके “वबुभूवुसी'" निज निज अपराध से दोषी बन गर्ई हो । यदि उक्त दोष परिहार के निमित्त ईश्वर के निकट तुम सबकी इच्छ हो, तब उस नग्नावस्था में तुम सब “एकपदी द्विपदी, चतुष्पदी, अष्टपदी नवपदी भवतः" जल से उठकर तीर कं ओर एक पैर से आ जाओ । व्रजाङ्खनागण उस प्रकार करने पर उन्होने पुनर्वार बोला, द्विपदा" दो पद से आओ। इस प्रकार नौ पद पर्य्यन्त आने कं लिए कहने से उन्होने भगवान् श्रीकृष्ण वाक्य को लङ्घन न करके ही उस भाव से वरँ पर जाकर वृक्षस्थित निज निज वस्र ग्रहण कर परिधान किया॥३०॥
ओर्व्वप्रा अमर्त्यानिवतो देव्युद्धतः ज्योतिषा वाधते तमः॥३९॥ ऋ. ८।७।१४/ १०।१२७।२
९४ ) श्रीमन्रभागवतम्
एवं विप्रलब्धानामपि तासामात्मन्यनुरागमालक्ष्य शारदिकासु रात्रिषु ताभ्यो रतिमदात्। तत्र रत्रि वर्णयत्युषिः। ओर्व्वप्रा इति। है रत्रि त्वं देवी दीव्यन्ती अमर्त्या अमानुषी त्वं ओरू अन्तरीक्ष तेन तत्रस्था इन्द्रवाय्वाद्याः लक्षयन्ते। तान् यथा निवतो निहीनं स्थानं येषामस्ति तान् निवतो भूचरान् एवं उद्वतो देवगन्धर्वर्दीश्य अप्राः प्रतीतवत्यसि, यतो भवती ज्योतिषा चान्द्रेण तमो वाधते ज्योत्स्नावत्यो रात्रय स्रैलोक्यमानन्दयतीत्यर्थः ॥३१॥
अनुवाद- इस प्रकार श्रीकृष्ण, उस विप्रलब्धा ब्रजाङ्गनागण के हृदय में प्रबल अनुराग को देखकर शारदीया रजनी मे महारासलीला के छल से उन सनको अभीप्सित रतिदान किए थे। इस मन्त्र मे ऋषि उस रात्रि को कथा का वर्णन करते है, “हे रात्रि" ! तुम "देवी" देदीप्यमाना, “ अमर्त्या" अमानुषी अर्थात् अलौकिकी हो । तुम ही “ओरुः" अन्तरिक्ष हो, तुमसे ही अन्तरिक्षस्थ इन्द्र वायु प्रभृति देवगण लक्षीभूत होते रै । जिस प्रकार “निवत” निकृष्ट स्थानचारी अर्थात् भूतलवासिगण को जानती हो, उस प्रकार “उद्वतः” विमानचारी देव गन्धर्वादिक को भी “अप्राः” ज्ञातवती हो। कारण तुम ही “ज्योतिषा" शारदोत्फु् चन्द्रकिरण द्वारा “तमः बाधते" अन्धकार विदूरित करती रहती हो। फलतः ज्योस्नावती रात्रि समूह त्रैलोक्य का ही आनन्द वर्द्धन करती रहती ह ॥३१॥
सेनेव सृष्टामं दधात्यस्तुनं दिद्युत् त्वेषप्रतीका। यमो ह जातो यमो जनित्वं जारः कनीनां पतिर्जनीनाम्। ३२ ॥ ऋ. १।५।९०/ १।६६।४ सेनेवेति। यमोऽग्निरूपोऽन्तर्य्यामी जातोऽ तीतोऽर्थः सर्वोऽपि स एव । एवं जनित्वं जनयितव्यमपि स एव । अतः स एव कनीनां कन्यानां युवतीनां च जारः पतिश्च सन् तासु अमं सुखं दधाति धारयति, तथा कन्या जनी च जरेष्वमं दधाति। सर्वत्र एकवचनं जात्यभिप्रायम् । तत्र दृष्टान्तः। अस्तुः जलप्रक्षप्तर्मेघस्वन इव विद्युत् यथामं कान्ति दधाति तथेत्यर्थः। कोदृशी । सेनेव सर्वाङ्ग साकल्येन सृष्टा कन्या जनीच प्रतीका दीप्यमाना। शरीराः स्त्रियः कृष्णाश्चान्योन्यं विद्युत् घन शोभां जनयन्तः क्रडन्तः इत्यर्थः ॥३२॥ अनुवाद- भगवान् श्रीकृष्ण ही “यमः” अग्निरूप अन्तर्यामी अथवा
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ९५
स्तोतृगण को उनके अभिमत फल प्रदानकारी है, एवं जो “जातः” उत्पन्न हुए थे ते अतीत अर्थसमूह एवं जो “जनित्वं" उत्पन्न होगे, वे भविष्यत् अर्थं समूह भी “यमः ह" उन भगवान् श्रीकृष्ण में ही पर्यवसित है, अर्थात् भूत भविष्यत् वर्तमान् के जो कुछ पदार्थ है सन ही श्रीकृष्ण रँ । अतएव आप ही "कनीना" कन्यागण कं अर्थात् तब्रजाङ्गनागण के “जारः” उपपति है, एवं “जनीनां" व्रजयुवतीगण के अथवा द्वारकादि धाम में महिषीगण के “पतिः” स्वामीरूप मं स्वयं जैसे उन सबके हदय मे “अमं दधाति" सुख विधान करते रहते है । उस प्रकार कन्या-युवती गण के हृदय में एवं उनके जार व पति के हृदय में सुख को अमृत धारा प्रवाहित करते रहते ह । दृष्टान्त के द्वारा उसे सुस्पष्ट कर रहे है । “अस्तु न दिद्युत्" वर्षणशील मेघ के सहित सर्वदा विद्युत् जिस प्रकार “अमं दधाति" कान्ति धारण करती है, अर्थात् नवनीरद के समीप मे सौदामिनी कौ शोभा जिस प्रकार नयनानन्द विधायिनी होती हे वे सब भी उस प्रकार आनन्द विधान करती है । इस रीति से ही वे “सेनेव सृष्टा" सनाथ सेना की भोति सर्वाङ्ग सम्पन्ना रूप में सृजिता “त्वेष प्रतीका" दिव्य मूत्तिं धारिणी कन्या युवतीगण व श्रीकृष्ण परस्पर विद्युत् घन शोभा उत्पादन कर क्रीडा किए थे ॥३२॥
गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्च्च्यकमर्किणः। ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे ॥३३॥ त. १।१।१९/ १।१०।१
अत्र ख्रीणामाकर्षणार्थं भगवता वंशीरवः कृतः। तं वर्णयत्यृषि- दभ्याम्। गायन्तीति । हे शक्रतो तदुपाधिकविष्णो त्वा त्वां गायत्रिणो गायत्याख्यो सामगातारो गायन्ति। तथार्किणः सोमाज्यपयः प्रभृतिद्रववन्तो यजमानाः अकमण्डलान्तःस्थं त्वाम् अर्चन्ति पूजयन्ति ये तु त्वां गेयमर्च्य च वंशमिव मुरलीकाण्डमिव तदेव वादयितुं उ्येमिरे उद्यमं कारितवन्तः। ते वृन्दावनस्थाः स्थावरजङ्गमाः । ब्राह्यणा एव त्वच्छरीराश्रिताऽनेककोरिब्रह्माण्डाधिपतयो अत्र स्थावरादिरूपेण स्थित्वा त्वां मुरलीवादने प्रवर्तयन्तीत्यर्थ; ॥३३ ॥
अनुवाद त्रजाङ्गनागण को रासक्रौड़ा मेँ आकर्षण करने के निमित्त
९६ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
= श्रीकृष्ण जो वंशीवादन किए थे, परवर्ती मन्त्रय म ऋषि उसका वर्णन कर रहे है। “हे शतक्रतु! हे तदुपाधिक विष्णो! हे कृष्ण} “त्वा गायत्रिणः आपको सामवेदीय उदगातृगण अर्थात् गायत्री आख्याधारी सामगायक समूह उच्चैः स्वर से सामगान करते है, अर्थात् वे सब आपकी स्तुति करते रहते ह। एवं "अर्किणः" ऋग्वेदीय होतृगण व सोमाज्य पय प्रभृति यज्ञीय द्रव्यविशिष्ट यजमानगण अर्क" सूर््यमण्डलवरत्ती आपकी अर्चना करते रहते है, सुतरा आप ही गेय एवं आप ही अर्च्चनीय है । “ वंशमिव" जो लोक आपको वंश कं समान मुरलीकाण्ड को बजाने के लिए “उदयेमिरे" उद्यम किए थे वे सब “ब्रह्माणः” आपके शरीराश्रित अनन्त कोटि ब्रह्माण्डाधिपति है, वे सब ही श्री वृन्दावन मेँ स्थावर जङ्कमादि रूप मे अवस्थित होकर आपको मुरली वादन में प्रवर्तित किये थे ॥३३॥
यत् सानोः सानुमारुहद भूर्यस्पष्ट कर्त्वम् । तदिन्द्रो अर्थञ्चेतति यूथेन वृष्णिरेजति ॥३४॥ ऋ. १।१।१९/ १।१०।२
यत् सानोरिति। इन्द्रो भवान् यत् यदा सानोः सानुम् उच्चादुच्चं स्थानम् आरुहत् आरूढवान् कर्तं कर्तव्यं च वंशीरवम् ततः स्थानात् भूरि अत्यन्तम् अस्पष्ट स्पष्टीकृतवानसि सर्वेषां श्रवणगोचरं कृतवानसि तत् तदा अर्थमर्थ्यमानं जडमपि स्थावरं चेतति चेतनवत् आद्लादवत् भवति किमुत जङ्घमः, तदा च वृष्णिवंश्यः कृष्णः स्वयूथेन सह एजति एजते अत्यन्तं शोभते इत्यर्थः ॥३४
अनुवाद- “इन्द्र ' हे श्रीकृष्ण ! आप ही इन्द्र हो। आप “यत्” जिस समय मे “सानोः सानुं" गोवर्धन गिरि के उच्च से उच्चतम सानुदेश मे “आरुहत्” आरोहण करते है एवं “कर्त्व" आपका कर्तव्य कर्म्म अर्थात् वंशीध्वनि को उस स्थान से “भुवि अस्पष्ट" अत्यन्त स्पष्टीकृत करते है “तत्” उस समय उस वंशीध्वनि को सुकर “अर्थ" अर्थ्यमान् जड्स्थावर भी “चेतति” चेतनवत् आह्लाद पराप्त करते र । सुतरां जङ्गम जीव कं लिए तो कहना ही क्या है ? इस प्रकार उस समय “वृष्णिः” वृष्णिवंश सम्भूत श्रीकृष्ण “यूथेन स्वीय परिवार वर्गं के साथ “एजति” अत्यन्त शोभित हुए थे ॥३४॥
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ९७
साकञ्चानां सप्तथमाहुरेकजंषलिद्यमा ऋषयो देवजा इति। तेषामिष्टानि विहितानि धामशः स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः ॥३५॥ ऋ. २।३।१६/ १।१६४।१५
ननु धर्मसंस्थापनार्थमवतीर्णस्य भगवतो वाल्ये मातृत्यागादिकं वयःसन्धो च जारकर्मत्येतदयुक्तमित्याशङ्का परिहरति श्रुतिः। साक जानामिति। ये पूर्व सप्त अर्धगर्भाः उक्ताः तेषां साक जानां सहजातानां मध्ये सप्तथं सप्तमम् एकजम् एकस्य ब्रह्मणोशाज्जातं जीवमाहुः। षलित् षडेव षमाः यमलजाः ऋषयः षडिन्द्रियाणि ' "प्राणा वा ऋषयः'* इति श्रुतेः। देवजा देवेभ्य- श्चन्द्रादिभ्यो जाता इति आहुः । तेषामृषीणाम् इष्टानि इष्टादिफलभूतानि शरीराणि धामशः धामसु अधिदेव स्वे स्वे स्थाने विहितानि विशेषेण धृतानि सन्ति चनद्रादिमण्डलेषु । तान्येव स्थात्रे सप्तमजीवस्य भोगार्थं रूपशः रूपैरिति रूपशः तत्तत्पुरुषीय श्रत्रादिरूपेण विकृतानि सन्ति रेजन्ते शोभन्ते लोके । एतेन करणानि लौकिकदृष्ट्या नित्यान्यपि अध्यात्मदृष्ट्या विधात्रासनायां लयोदयवन्ति, भोक्ता तु स्थिर इति सप्तमगर्भमन्त्रस्य तातुपर्य्य दर्शितं । अयं भावः। यथा भारते जरत्कारवे पितृभिः कशस्तम्बमूलगर््तं मूषिकादिरूपकेण स्ववंशस्तम्बपुरुषसंसारावलिः प्रदर्शिता एवमत्र देवक्यादिरूपकेणाध्यात्मिकोर्थो दशितो न त्विहाख्यायिकायां तातुपर्य्यमिति ॥३५॥
अनुवाद- यदि कहो कि श्रीभगवान् जब धर्म संस्थापन के लिए अवतीर्णं हुए थे तब बाल्य मे मातृत्यागादि, एवं कैशोर में जार कर्म उनके लिए सम्पूर्णं अयुक्त है। इस आशङ्का का परिहार के लिए कहते हँ- जो पहले सप्तगर्भं नाम से कथित है उनके “साकजानां" सहजातगण के मध्य में “सप्तथं" सप्तम ही “एकजं आहुः" उस अद्वितीय ब्रह्मांश से जात जीव नाम से अभिहित है । एवं “षड् इत् यमाः” अपर छह यमज है, अर्थात् सहजात ही “ऋषयः” जीव कौ षडन्द्रिय “पञ्चेद्धिय व मन" व “देवजाः इति" चन्द्रादि देवगण से जात है, इस प्रकार कथित हेै। यहाँ “ऋषयः” वाक्य से जो इन्िय एवं प्राण का बोध होता है, वह वृहदारण्यक उपनिषद् के “प्राणा वा ऋषयः” इत्यादि वाक्य से प्रमाणित है। “तेषा उस इन्द्रियगण के “इष्टानि इष्टादि फलभूत देह निचय “धामशः” चनद्रमण्डलादि धाम समूह के मध्य मे अधिदेव के रूप
९८ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
में स्वस्वस्थान मे “विहितानि” अधिष्ठित हैँ । वे ही “स्थात्रे" इस अधिष्ठित स्थान मे जीव के सुखभोग विधानार्थं “रूपशः" उस उस पुरुष के श्रोत्रादि रूप में “विकृतानि विकार प्राप्त होकर जगत में रेजन्ते" शोभित हे । इस प्रकार इन्द्रिय समूह लौकिक दृष्टि से नित्य होने पर भी अध्यात्म दृष्टि से विधाता के द्वारा नियोजित अधिष्ठान में वे सब लय व उदयविशिष्ट है, अर्थात् अनित्य हे, किन्तु जो भोक्ता है, बह स्थिर है। सप्तम गर्भ मन्त्र का यह तातूपर्य्य है। अतएव बाल्यकाल में श्रीकृष्ण का मातृ त्याग लौकिक दृष्टि से दूषणीय होने पर भी आध्यात्मिक व पारमार्थिक भाव से वह सम्पूर्ण निर्दोष है । इसका दृष्टान्त स्वरूप महाभारत कं आदि पर्व मे वर्णित जरत्कारुमुनि एवं उनके पितृगण के उपाख्यान को उठाया जा सकता है। एकदा जरत्कारु मुनि भ्रमण करते करते देखे थे कि- कतिपय व्यक्ति मूषिक द्राराच्छित्न मूल उषीर स्तम्ब को अवलम्बन कर ऊरद्ूवपाद व अधोमस्तक होकर एक गर्त मे हवे सबही उक्त मुनिवर के पितृगण हैँ । यँ कुश स्तम्ब मूल ही स्ववश स्तम्भ जरत् कारु है, महागर्त-संसार है, मूषिक काल है, जरत् कारु विवाहादि न करने से कुल क्षय के कारण ही उक्त रूपक प्रदर्शित हुआ ठै, उस प्रकार देवक प्रभृति रूपक क द्रारा आध्यात्मिक अर्थ ही प्रदर्शित हुआ है, इसमें आख्यायिका का तातपर्य्य सूचित नहीं हुआ दै। (उक्त संशय मेँ श्रीपाद रूप सनातन जीव गोस्वामिगण के विशद विचार मीमांसा, गभीर गवेषणामूलक युक्ति सिद्धान्त के ऊपर प्रतिष्ठित है, सुतरां विस्तारित भाव से अवगत होने के निमित्त श्रीमद् भागवतस्थ उन सबकौ टीका एवं श्रीगोपाल चम्पू प्रभृति ग्रन्थ का अध्ययन परम आवश्यक है, कारण वेद मे बीजाकार मे निहित वस्तु ही पुराणादि मे पट्वित होकर विपुलायत विटपी रूप हे । ) ॥३५॥
अतारिषुर्भरतागव्यवः समभक्त विप्रः सुमति नदीनाप्। प्रपिन्वध्वमिषयन्तीः सुराधा आवक्षणाः पृणध्वं यातीभं ॥ ३६ ॥ ऋ. ३।२।९४/ ३।३३।१२ अथ विश्वामित्रो नदीसमुद्रोपदेशेन गोपीः कृष्णं प्रत्यभिसारयति। अतारिषुरिति। भरताः भरन्ति धारयन्ति पुष्णन्ति वा कर्मोपास्तिजं धर्ममिति
श्रीवृन्दावन काण्डः ( ९९
भरताः सद्भक्ताः, गव्यवः गाः आत्मनः इच्छन्ति ते गोधन पुष्टिमिच्छन्ता गोपाः भूत्वेति शेषः। अतारिषुः तीर्णाः। संसारमित्यर्थात्। समतारिषुरिति वा सम्बन्धः। तथा विप्रः सर्वेषां भक्तानां मध्ये महत्तमः ब्रह्मादीनाम्। नदते नन्दते र्वा नदट् नदीनां प्रवाहगतानां वादवाचां वा समृद्धिमतीनां प्रसवन्तीनां गो-गोपीनां वा सम्बन्धिनीं सुमतिं तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थं सानं वा वत्सवत्सपभूते भगवति तदीयं ज्ञानं वा। समभक्त सम्यग् सेवत लब्धवानित्र्थः, अतः गोपाः गोप्यो गावश्च स्तोकवत्यो भगवत्सङ्गेन निस्तीर्णाः। यूयं तु अतोकवत्यो युवतयः साक्षाद्धगवत् अङ्गसद्धेन तर्तु तमेवशीभं यातः गच्छत । ततृसद्धेनात्मानं च प्रपिन्वध्वं प्रकर्षेण परमानन्दावाप्तूया तर्पयध्वम्। कौदृश्यः। यूयम् इषयन्तीः इच्छन्त्यः। इषेः स्वार्थ णिचि गुणाभावः जसि पूर्वसवर्णदीर्घश्च छन्दसः। सुराधाः शोभना मुख्या राधा यासु ताः सुराधाः । राधाया मुख्यत्वं तु ब्रह्मवैवर्ते प्रथमांशे पदापुराणे उत्तरखण्डे कार्तिकमाहात्म्यादौ च प्रसिद्धम् । पुनः कीदृश्यो यूयम्? वक्षाणाः नद्य इव समुद्रम् आपृणध्वम् आपूरयध्वम्। अत्र षातेति व्यापक प्रतिगमनं पूर्णस्य पूरणं तृप्तस्य तर्पणं चानन्यशरणासु गोपीषु भगवतोप्यत्सुक्यप्रदर्शनेन भक्तिमाहात्मयद्योतनार्थम्। तथादयुक्तं “स्फूटमनुगवशत्वं नाथ ते" भीष्ममाषामृतयितुमनृतेशश्चक्रिणः पार्थसोत्येति। शीभं रेतेस्मिन् सर्वमिति शीः भाति स्वयंज्योतिष्ट्वेन प्रकाशते इति भः शीश्चासौ भश्चेति शीभस्तं सर्वालयाधिष्ठानचिन्मात्रस्वरूपमित्यर्थः। यद्रा शीभृ कथने शीभन्ते कत्थन्ते श्लाघन्ते आत्मानमनेनेति शीभः। अकर्तरि च कारके संज्ञायामिति करणे यः। यं प्राप्य भक्ताः कृतार्थमात्मानं मन्यन्त इत्यर्थ; । एवं विश्वामित्रेणाज्ञप्ताः गोपदारिकाः श्रीकृष्णमभिससुरित्यवगन्तव्यम्। केचित्त सुराधा इत्यस्य सुराधसमिति व्याख्यानं कूर्वते तेषां सुराधः शब्दस्य सान्तत्वकल्पने “सपिष्टेन शोचिषा यः सुराधः” इतिवदेकवचनान्त- समभिहारादिक निमित्तं नास्ति । विशेषतस्तु बहुवचनान्त खीलिङ्गसमभिव्याहारात् सुराधाशब्द: आवन्त एव । “स्तोत्रं राधाणां पते" इत्यादौ स्वरान्तस्यापि स्पष्टं दर्शनात् ॥३६॥ अनुवाद- अनन्तर ऋषि विश्वामित्र नदी व समुद्र की उपमा के छल से श्रीकृष्ण के प्रति गोपीगण के अभिसार लीला का वर्णन कर रहे है ।
१०० श्रीमन्त्रभागवतम्
“भ्रताः" जो सब भगवत् कर्मोपासना जन्य धर्म का धारण पोषण करते ह । अर्थात् सद्भक्तगण “गव्यवः” गो समूह को आत्मस्वरूप मननकारी अथवा गोधन पुष्टि कामी गोपमृ्ति परिग्रह करके “अतारिषुः" दुष्पार संसार से उत्तीर्णं हो गए थे। एवं जो “विप्रः” निखिल भक्तजन के मध्यमे एेसा कि ब्रह्मादि के मध्य में भी महत्तम है, उस प्रेमिक भक्त भी “नदीनां” जो निखिल जगत् को आनन्दित करता हे, उस प्रवाहगत वेदवाक्य कौ अथवा समृद्धि शालिनी प्रस्विणी की भांति विनिर्गता गो-गोपीगण सम्बन्धिनी “सुमति” तत्त्वमस्यादि वाक्योत्थ ज्ञान अथवा वत्स, वत्सपालकभूत भगवान् श्रीकृष्ण सम्बन्धीय ज्ञान वा भक्ति “समभक्त” सम्यक् रूप से प्राप्त किये थे। अतएव गोप, गोपी, गो समूह वत्स युक्त होकर भगवत् सङ्ग प्राप्त कर निःसन्देह से संसारोत्तर्ण हो गए थे। किन्तु तुम सब तो उन सबके समान शिशु वत्सवती नहीं हो, तुम सब युवती नवतरुणी हो, जब “इषयन्ती" श्रीकृष्ण सङ्गाभिलाषिणी हो गई हो तब साक्षात् भगवत् अद्ध सङ्घ द्वारा इस संसार जलधि से उत्तीर्णं होने के निमित्त “शीभं" निखिल विश्व जिसमे अवशेष प्राप्त होते है, एवं जो स्वयं ज्योति से प्रतिभासित रहै, वह सर्वलयाधिष्ठान चिन्मात्र स्वरूप है। अथवा जिनको प्राप्तकर भक्तगण अपने को कृतार्थ मानते है उन श्रीकृष्ण के निकर “यात” गमन करो, एवं तुम सन “सुराधा” गोपाद्भना यूथ मे वरिष्ठा शोभना श्रीराधा जिनके मध्य में विराजमाना है, एतादृशी श्रीराधा के प्रिय सहचरी रूप मे अथवा श्रीराधा प्रमुख रूप में श्रीकृष्ण सङ्क सुख मे “प्रपिन्वध्वं" प्रकृष्ट रूप मे परमानन्द व्याप्ति के द्वारा अपने को पुनः पुनः परितृप्त करो । गोपीगण के मध्यमे श्रीराधा का मुख्यत्व ब्रह्य वैवर्त पुराण क श्री जन्म खण्ड मे एवं पद्म पुराण के उत्तरखण्ड के कार्तिक माहात्म्य में उदिखित है । पुनश्च तुम अब “वक्षाणाः" नदी समूह जिस प्रकार सागर मे मिलित होती है, उस प्रकार तुम सब भी “आपृणध्वं" प्रेमामृत सिन्धु श्रीकृष्ण के साथ सम्मिलित होकर श्रीकृष्ण को आनन्द रस से पूर्ण करो । यहाँ “यात" “पणध्व'" इत्यादि वाक्य मे जो व्यापक के प्रति व्याप्य का गमन, पूर्णकाभी पूरण, तृप्तिकाभी तर्पण उदिखित है, अनन्यशरणा गोपाङ्गना के मध्य मे भगवान् का ओत्सुक्य प्रदर्शन के सहित प्रेम भक्ति माहात्म्य प्रकटन ही उसका तातुपर्य्यं है। भीष्म देव ने
श्रीवृन्दावन काण्डः ( १०१
कहा ही है “स्फुटमनुगवशत्वं नाथ ते" अर्थात् हे नाथ! हे श्रीकृष्ण} आप में भक्ताधीनता स्पष्ट व परिस्फुट हे। इस भीष्म वाक्य को सत्य करने के लिए ही भगवान् चक्रधारी अर्जुन का सारथ्य किए थे। इस प्रकार ऋषि विश्वामित्र कौ अनुज्ञा के अनुसार ही जैसे गोप कन्यागण श्रीकृष्ण के प्रति अभिसार किए थे। आलोच्य ऋक् में “सुराधाः” पद का “सुराधः” पाठान्तर कल्पना करते है, किन्तु बहुवचनान्त खरीलिङ्ख के साथ सुराधाः पद ही समधिक उत्तम हे ॥२६॥
स्त्रियः सतीस्तां उमे पुंस आहुः पश्यदक्षण्वान्न विचेतदंधः। कविर्यः पुत्रः स इमाचिकेत यस्ता विजानात् सपितुष्पितासत्॥ २७॥ ऋ. २।३।१७/ १।१६४।९६ द्वितीयं दोषं परिहरति। स्रिय: सतीरिति। सत्रियः गोप्योऽपि सतीः अविच्युतस्वधर्मा एव । यतः तान् ताः । पुस्त्वमार्षम्। “ता उम'" इति तैत्तिरीयाः स्त्रीत्वमेवात्र दर्शयन्ति ताः सिय: पुंसः महापुरुषसम्बन्धिनीरेवाहुः । जगदात्मना कृष्णेन सह रममाणानां तासां न पातित्रत्यभद्खोऽस्तीत्यर्थः। एवं पश्यन् अक्षण्वान् चक्षुष्मान् न विचेतत् एतत्जानन् अन्ध एव । एवं यः कविरेकान्तदर्शी भगवह्ीला तातपर्य्याभिज्ञः स इमा इमानि सर्वाणि भूतानि चिकेतजानीते यश्च ताः विज्ञा विजानीते स पितुष्पिता गुरोरपि गुरुः सन् आसत् प्यते । अत्राप्याख्यायिकायां तातुपर्य्यभावादर्थान्तरमेव विवक्षितमिति न कश्चिदोषः, इत्यर्थ; ॥२७॥ अनुवाद- इस मन्त्र मेँ श्रीकृष्ण के द्वितीय जार दोष का परिहार किया जा रहा है, “सिय” गोपाङ्गनागण- “सतीः” अविच्युत स्वधर्म्मा हे, अर्थात् वे कभी भी स्वधर्म अथवा पातित्रत्य धर्म से विच्युत नर्ही हई । कारण- “तान् उ" वे सब गोपाङ्गना “मे पुंस" महापुरुष रूपी मदीय सम्बन्धिनी “आहुः” हुई थीं । एतज्जन्य ही जगदात्मा श्रीकृष्ण के सहित रमण करने पर भी उनके पातिव्रत्य भङ्ग नहीं हुआ है। इस प्रकार “पश्यन्” दर्शन करके भी जो “अक्षश्वान्" चक्षुष्मान् है अर्थात् ज्लानदृष्टि सम्पन्न व्यक्ति “न विचेतत्" उसके अन्तर्निहित सूक्ष्म भाव को हृदयङ्गम करने मे समर्थ नहीं होता हे । वह चक्षुष्मान् होने पर भी “अधः” दृष्टि शक्तिहीन है। अथवा उक्त सृक्ष्मतत्व “अक्षण्वान्"
१०२ ) श्रीमन्रभागवतम्
चक्षुष्मान् व्यक्ति ही अवगत हो सकते है किन्तु “अन्धः” जिसकी नेत्रदृष्टि सृक्ष्दृष्टि नहीं हे, वह स्थूल दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति “न विचेतत्" कदाच् जान नहीं सकता हे। इस प्रकार “यः कविः" एकान्तद्शीं अथवा भगवल्लीला तातुपर्य्याभिज्ञ है, “सः” वह ही “इमा आचिकेत'" इस निखिल भूत को सर्वतो भाव से जानता है। एवं “पुत्रः” जगत् का त्राणकर््ता पुत्र स्थानीय है। किन्तु जो “ताः" उन गोपाङ्खनागण को “विजानीत्" विशेष रूप से जानता है, “सः पितुः पिता" वह पिता का पिता अर्थात् गुरु के गुरु महागुरु रूप मे “आसत्” दीप्तमान होता है। यहाँ पर आख्यान भाग का तातपर्य्य भाव से अर्थान्तर विवक्षित हुआ है, किन्तु इसमें कोई दोष नहीं हुआ हे ॥३७॥
अवः परेण पर एनावरेण पदा वत्सं विभ्रती गौरुदस्थात्। सा कदीची कं स्विदर्धं परागात् क्वस्वित् सूते नहि यूथे अन्तः ॥ ३८ ॥ ऋ. २।३।९७/ १।९१६४।१७ एतदेव स्पष्टयति । अव इति। परेण पदा निवृत्तिरूपेणावलम्बनेन अवः चरं वत्सं धर्म विभ्रती प्रकाशयन्ती तथा अवरेण प्रवृत्तिरूपेण पदा परः परं धर्म प्रकाशयन्ती गो वाणी एनाः एताः एतानि आख्यानानि उदस्थात् उत्क्रम्य स्थितवती, न हि वेदे आख्यायिकाप्रतिपाद्यन्ते। अपितु तद्वारेण परापररूपो धर्म एवेत्यर्थः। सा प्रवृत्ति निवृत्तिरूपा वाक् कद्रीची केन सह अञ्चति प्रकाशते कमर्थ वाच्यवृत्याभिधन्ते कस्विदरदं किवा स्थानं परागात् दूर गतवती । किं तातुपर्य्येण प्रतिपादयति । क्व स्वित् सूते कस्मन्नधिकारिणि प्रवृत्तिरूपं फलं जनयति ततसर्व दुर्तेयमित्यर्थः। हि यस्मात् इयं यथे अन्तर्न यौति मिश्रीभवति पृथङ् न भवतीति यूथमनात्मा अवान्तर वाक्यानि वा जड़ संघातः कथा प्रबन्धो वा तत्र अन्तस्तन्मात्रपर्य्यावसायिनी न हि । किन्तु संघातादन्यमेव प्रतिपादयतीत्यर्थः। यथा “न हिस्यात् सर्वाभूतानीति" रागतः प्राप्तहिसा निवृत्ति- मुखेनाहिसाख्यो योगाङ्खभूतो यमविशेषो विधीयते स एव सम्यगनुष्ठितः “अहिसाप्रतिष्ठितायां तत्सन्निधो वैरत्यागः” इति योगशाख्त्रक्तं फलं प्रसूते। न चैतदस्य फलम्। किन्तु निरोध समाधिरेव । तथा च निवृत्तिमुखेनावरधर्मार्थमपि विधीयमानं साधनं परधर्म एव पर्य्यवस्यति । प्रवृत्तिमुखेन परमो धर्मस्त्वाख्यायिकाभ्य एव उन्नेयः । पूर्वमन्त्रोक्त
श्रीवृन्दावन काण्डः ( १०३
दिशा “चितुकृष्णो वृत्तिगोपीषु विद्यां वा नितरां जहौ । तां च त्यक्तैक्यतृप्तः सस्ताभ्योऽदादिति जीविते" इति क्रीड़ा तातुपर्य्यम्॥३८ ॥
अनुवाद- इस ऋक् में उक्त तातुपर्य्य विशद भाव से विवृत है। जो “परेण पदा" निवृत्त पथ को अवलम्बन कर “अवः” विचरण कर “वत्सं” धर्म को “विभ्रती" प्रकाश करता रहता है, एवं “अवरेण जो प्रवृत्ति मार्ग को अवलम्बन कर “परः” परमधर्म का प्रकाश करता हे, उस “गौः” वाणी अथवा श्रुति समूह “एना” यह सब आख्यान को “उदस्थात्" उक्रमण कर अवस्थान . करती है । कारण कोई आख्यायिका वेद का प्रतिपाद्य विषय नहँ है। कारण- उससे परावर धर्म प्रतिपादित हआ दै। “सा” उस प्रवृत्ति निवृत्ति रूपा वाणी “कद्रीची" किस के साथ युक्त होकर प्रकाश पाती है ? अर्थात् वाच्य वृत्ति को द्वारा कौन सा अर्थं अभिव्यक्त हुआ है?
“कस्विद् अर्ध" किस स्थान को “परा अगात्" दूर से प्राप्त होता है ? अर्थात् तातपर्य्य के द्वारा किसका बोध होता है ? एवं “कृस्वितूसूते" किस अधिकारी मे प्रवृत्ति रूप फल उत्पन्न होता हे ? वे सब ही दुर्य है । “हि" कारण- यह वाणी अनात्म अवान्तर वाक्य समूह मे वा जड सम्बन्धीय कथा प्रसङ्घ मे “अन्तर्ण" तन्मात्र पर्य्यवसायिनी नहीं है । अर्थात् वह कथा, प्रबन्ध का अन्तर्भक्त नहीं हे। परन्तु उस जड़ीय मिश्र वाक्य का अतीत अन्यदीय का प्रतिपादन करती हे। उदाहरण के लिए जिस प्रकार किसी “प्राणी कौ हिंसा न करो" इस वाक्यानुसार क्रोध वशतः हिंसा का उदय होने पर भी उसकी निवृत्ति जो अहिंसा दै, उसका अनुष्ठान योगाङ्ग भूत यम विशेष का बोध होता है, उसका अनुष्ठन सम्यक् रूप से होने पर “अहिंसा प्रतिष्ठितायां तत् सन्निधौ वैरत्यागः” अर्थात् अहिंसा की प्रतिष्ठा का उदय होने पर शत्रु भी वैर भाव त्याग करता है, इस योगशास्रोक्त फल का उदय होता है । किन्तु बह हौ उसका फल नहीं है, किन्तु निरोध समाधि ही उसका फल हे। उस प्रकार निवृत्ति मुख से अवर धर्मार्थविहित साधन भी परम धर्म रूप में पर्यवसित होता हे, एवं प्रवृत्ति मुख से परम धर्म भी आख्यायिका समूह से उन्नत टै। अतएव चित् स्वरूप श्रीकृष्ण, वृत्ति रूपा गोपीगण के भेद ज्ञान को निरस्त कर परैक्य लाभसेतृप्त हो गए थे, यह ही रासक्रीडा का तातपर्य्य हे ॥३८ ॥
१०४ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
अवः परेण पितरं यो अस्यानुवेद पर एनावरेण । कवीयमानः क इह प्रवोचददेवं मनः कुतो अधिप्रजातम्॥३९॥ ऋ. २।३।१७/ १।१६४।१८
एतदेव वत्सादीन् हतान् ब्रह्मणा ज्ञात्वा उक्तमित्याह- अव इति । अस्य जगतः पितरं यो नु वेदवबरेण शास््राचार्य्योपदेशेनानुजानाति स कवीयमानो वस्तुतत्वालोचनपरः कः प्रजापतिः इह लोके प्रवोचत् प्रोक्तवान्। कि प्रोक्तवान् ? देवं क्रीडापरं मनः कृतो अधिप्रजातं तन्मनसो योनिभूतं वासनाजालमेव संसारमूलमित्युक्तवानित्यर्थः। सर्वोप्युपदेशो मनोनिग्रहान्त इति भावः। शेष मुक्तार्थम् ' ये अर्वाञ्च' इति ऋग् व्याख्यातारः । "द्रा सुपर्णेति' ऋककथा पक्षे यथाश्रुतार्थेव । "अन्यः एकः अभिचकाशीति' सर्वतः प्रकाशते, शेषं स्पष्टम् ॥३९॥
अनुवाद- इस प्रकार ब्रह्मा के द्वारा वत्स के अपहरण को जानकर कहते है, “अवः अस्य पितरं" अवशेष रूप में अवस्थित इस जगत् पिता को “यः परेण" जो परम पुरुष रूप में एवं “एना अवरेण" शास्राचार्यगण के उपदेश के अनुसार “अनुवेद” क्रमशः अवगत होते है । "परः" परिशेष मे वह “कवीयमानः” वस्तुतत्वालोचनपर “कः” कोई प्रजापति ब्रह्मा “इह'" इस लोक में “प्रवोचत्” इस प्रकार कहे थे। “देवं मनः" क्रौड़ा पर अथवा देव विषयक अलौकिक मन “कुतः अधिप्रजातम्" किस प्रकार अथवा किस अदृष्ट विशोष से एेसा उत्कर्षं के साथ समुत्पन्न हुआ ? फलतः उस मन कौ योनिभूत वासना भाग ही संसार का मूल कारण है । उक्त वाक्य से इसका हौ प्रकाश हुआ है। अतएव सकल उपदेश ही मनोनिग्रह के उदेश्य से प्रयुक्त है, इसके बाद के “ये अर्वञ्चि" इत्यादि ऋक् व्याख्यातृगण शेषार्थं का प्रकाश किए है। इस प्रकार “द्रा सुपर्णेति" ऋक् मन्त्र से यथाश्रुत अर्थ ही प्रकाशित हुआ हे॥२३९॥
यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेशं विदथाभिस्वरन्ति। इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः समाधीरः पाकमत्राविवेश ॥४०॥ ऋ. २।३।९७/ १।१६४।१९
श्रीवृन्दावन काण्डः ( १०५
कत्र शब्दितस्य ब्रह्मण एवं ज्ञानं जातं तदाह। यत्रेति। यत्र स्थाने सुपर्णाः प्रीणं गोपाः अमृतस्य भागमन्नस्य कवलमणिमेषं निमेषमात्रमपि कालमनतिक्रान्तं विदथान्ञानेन स्व प्रत्ययेन मन्यमानाः अभिस्वरन्ति एहि कृष्ण कृष्ण कृष्ण इति कृष्णं गवामन्वेषणार्थं गतम् अभितः स्वरन्ति आकारयन्ति। अत्र स्थाने इनः स्वामी विश्वस्य कृस्नस्य भुवनस्य गोपाः पालकः स वेदान्त प्रसिद्धो धीरो मा मया वत्सांश्चारयता व्याकूलीकृतोऽपि अव्याकुलो कं शुद्धान्तःकरणमाविवेश ्षप्तिमात्र रूपो मह्यं स्वात्मज्ञानं दत्तवान् कृत्स्नं स्वलीलातातपर्य्य दर्शितवानित्यर्थः। अत्र द्वा सुपर्णेति मन्त्रस्य तातूपर्यय यास्कोक्तदिशा जीवेशो पक्षिणौ देहवृत्ते “जीवेऽभिमानतः मुक्ते देहगतं दुःखं नान्यस्तत् स्थाप्य सङ्गतः" इति । एवं अध्यात्मं अधिदैवं च यत्रा सुपर्णा इत्यस्यापि तातपर्य्य तत एवावगन्तव्यम्। ननु कत एवं द्वेधा व्याख्यानं सर्वेषां मन्त्राणां क्रियतः इत्याशङ्कय स्कान्दे कैलाससंहितायां दहरविद्याख्यानप्रसद्धे उक्तं “सैषा दहर विद्यात्र द्विधा ते परिकीर्तिता। अध्यात्मिकी भवेदेका तथान्या त्वाधिभोतिकी । तत्र त्वाध्यात्मिकौ सर्व्दुष्करा न हि संशयः। आधिभोतिकसं्ञातु तस्मान्मुक्तयर्थमाचरेत्। सानुदधरसभामध्ये नृत्यमानस्य शूलिनः। दर्शनं नान्यदित्येतत् सम्यगत्र मयोदितम् ॥" तत्रैव “दहं विपापं वरं वेश्मभूतमुमासहायं परमेश्वर प्रभुम् ।" इत्यादीनि वाक्यानि उदाहतानि यजुर्वेदवाक्यमेतत्। तथान्यत्र शाखान्तरेपि । “आलोच्यैतत् सर्वमेव प्रयत्नाद् व्याख्येयं स्यादस्मदुक्तानुसारात्"
इति सर्वत्र व्याख्या द्वैविध्यस्यातिदेश उक्तः। तेन येऽध्यात्मं निरोध समाधावनधिकारिण स्तेषामाधिभौतिकौ भगवष्टीला हद्यारूढा चितूसमाधिफललाभाय भवति। एतदेवाभिप्रेत्योक्त श्रीमद्भागवते
“आच्छिद्यकौत्तिं सुश्लोकां वितत्य ह्यञ्जसा नु कौ । तमोनया तरिष्यन्तीत्यगात् स्वं पदमीश्वरः” इति । पुराणान्तरेष्वप्याधिभोतिकांश एव भूयसा ग्रन्थेनोपवृंहित इति स्पष्टं वेदेनोक्तं “विष्णोः कर्म्माणि पश्यतः” इत्युपपादितं चैतदुपोदघात एवेतिदिक् ॥४०॥
इति श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणमर्य्यादाधुरन्धरचतुर्धरवंशावतंसगोविन्दसूनोनीलकण्ठस्य कृतौ सोद्धूत मन्त्रभागवत व्याख्यायां मन्त्रहस्यप्रकाशिकायां वृन्दावनकाण्डो द्वितीयः ॥२।
१०६) श्रीमन्रभागवतम्
अनुवाद- कँसे ब्रह्मा का ज्ञान हुआ, इस मन्त्र मे उसका वर्णन है, “यत्र" यँ पर “सुपर्णाः” प्रियतम गोपगण, “अमृतस्य भागं" अन्न का ग्रास ग्रहण करते “अनिमेषं” निमेष मात्र काल अतिक्रान्त न करके ही “विदथा स्व स्व प्रतीति अथवा ज्ञान के द्वारा मनन करके “अभिश्वरन्ति" गोगण के अन्वेषणार्थं दूरस्थित श्रीकृष्ण को, कृष्ण ! आज, कृष्ण } आओ, कहकर आह्वान करने लगे। “अत्र इस स्थान मे जो “विश्वस्य भुवनस्य" निखिल भुवन के “दनः” स्वामी “गोपाः” पालक “सः” उस वेदान्त प्रसिद्ध “धीरः” प्राज्ञपरमेश्वर “मा” मेरे द्वारा “पा" वत्सधारण व्यापार मे व्याकुलीकृत होकर भी अव्याकुल भाव से “क शुद्धान्तःकरण का “आविवेश” मेरे में प्रवेश कराए थे। अर्थात् उन्होने मुञ्धे स्वीय आत्मज्ञान प्रदान एवं स्वलीला तातुपर्य्य प्रदर्शन किया था। यहं “द्रासुपर्णा" इस मन्त्र का तातुपर्य्य सूचित हुआ हे। यास्क कहते है जीव एवं ईश्वर दो पक्षी स्वरूप हे । देहवृत्त जीव अभिमान मुक्त होने से देहगत दुःख नहीं रहता है। तब परमात्मा ईश्वर मे दुःख का अस्तित्व एकान्त असङ्गत तथा असम्भव है। अतएव आलोच्य ऋक् में अध्यात्म एवं अधिदैव उभय तात्पर्य्य गृहीत होना ही समीचीन है। यदि कहो, कि मन्त्र कौ दो प्रकार व्याख्या कौ प्रसिद्धि कहँ है ? उत्तर- केलास संहिता की दहर विद्या आख्यान मे कथित हे- दहर विद्या दो प्रकार है। प्रथमा आध्यात्मिकी, अपरा आधिभौतिकौ । आध्यात्मिक विद्या अति दुष्करा, अतएव मोक्ष के निमित्त आधिभोतिकौ विद्या का आचरण करे। केलास के सानुदेश मे दर्भ सभा के मध्यमे नृत्यमान महादेव का दर्शन ही मुक्ति है, अन्य कुछ नहीं । मेने इसका सम्यकरूप मे वर्णन किया । उसमे “दहं विपाप" इत्यादि जो वाक्य दृष्ट होता हे, यजुर्वेद के वाक्य मे उसका उदाहरण है । इस प्रकार अपर शाखान्तर मे भी दृष्ट होता है। ये सब आलोचना करके प्रयत्नपूर्वक व्याख्या कौ गई है। इस प्रकार सब मन्त्र मे ही द्विविध व्याख्या का अतिदेश अर्थात् आरोप किया गया है। अतएव जो लोक अध्यात्म विद्या का अधिकारी नहीं है, अर्थात् निरोध समाधि मे अधिकारी नही हे, उसके सम्बन्ध मे ही आधिभोतिकी भगवट्ीला, हदयाधिष्ठित चित् समाधि फल लाभ के निमित्त विहित है। इस अभिप्राय से ही श्रीमदभागवत मे उक्त है, “आच्छिद्य कौत सुश्लोकांवितत्य
श्रीवृन्दावन काण्डः ( १०७
ह्यञ्जसा नु को तमोनया तरिष्यन्ति इत्यगात् स्वं पदमीश्वरः॥ अर्थात् स्वीय पादपद्म के द्वारा पादपद्म स्मरणकारियों कौ गमन क्रिया निवृत्त करके एवं पृथिवीमय शोभन कौत्ति विस्तारपूर्वक शोभन कौर्चिरूप तरणी के द्वारा लोक सुख से अज्ञानमय समुद्र उत्तीर्णं होकर तदीय पद प्रान्त प्राप्त होगा, भविष्यत् जीव के लिए इस प्रकार करुणा की व्यवस्था कर परमेश्वर श्रीकृष्ण स्वधाम गमन किए थे। पुराणान्तर में इस आधिभौतिकांश अर्थात् भगवद्टीलांश का वर्णन विस्तृत रूप में हे, अतः वेद स्पष्टतः घोषणा करते हँ कि~ “विष्णोः कर्माणि पश्यतः" यह ही उपसंहार है, ओर यह ही उपोदघात अर्थात् उपक्रम है ॥४०॥
इति श्रीमद्मन्त्रभागवते श्री वृन्दावन काण्ड नाम द्वितीय काण्डानुवाद ॥२॥
तृतीयः काण्डः
अक्रूर काण्डः
देवानां दूतः पुरुध प्रसूतो नाऽगान्नोवोचतु सर्वताता। श्ृणोतु नः पृथिवी द्यौरुतापः सूर्य्यो नक्षत्ररु्वन्तरिक्षम्॥९॥ ऋ. ३।३।२७/ ३।५४।१९
अथ अक्रूरकाण्ड आरभ्यते । तत्र “देवानां दूतः” इत्यादयः षड़ूविशति- मन्त्रा प्रजापतिना दृष्टाः अक्रूरस्य व्रजे गमनं गोपीविलापं च प्रतिपादयन्ति, तान् व्याकूर्म्मः। तत्र चत्वारो मन्त्राः अक्रूरवाक्यरूपा इत्याह । देवानामिति। अहं देवानां कसवागाद्यधिमानिनामगन्यादीनां दूतोऽस्मि पुरुध बहुप्रकारेण प्रसूतः कस बधार्थिभिस्तैः कृष्णमानेतु व्रजं प्रति प्रेषितोऽस्मि। अतो नोऽस्मान् अनागान् निर्दोषान् प्रति सर्वताता विश्वस्य पिता श्रीकृष्णः वोचतु वचनेन सम्भावयतु। तातेति सुपो डदेशः। तदिदं नोस्माक प्रार्थना वाक्यं पृथिवीद्यौरुत आपः सूर्य्यश्च नक्षत्रैः सह उरु महत् अन्तरिक्षम् अन्तरिक्षस्थ देवतायूथमिन्द्रवाय्वादिक च शृणोतु । एते देवा समानुकूला भवन्त्वित्यर्थः ॥१॥
अनुवाद- अनन्तर अक्रूर काण्ड आरम्भ कसते है। “देवानां दूतः” इत्यादि प्रजापति द्वारा दृष्ट षड्विंशति मन्त्र मे अक्रूर का व्रजगमन एवं गोपी विलाप प्रतिपादित हुआ है। सम्प्रति उसको व्याख्या करेगे । तन्मध्य मेँ चार मन्त्र मे अक्रूर कौ उक्ति है। अक्रूर कहते है, मे “देवानां' कस को वागादि- अभिमानी अग्नि प्रभृति देवगण का “दूतः” दूत रूप मे प्रेरित हूं। “पुरुध प्रकारान्तर में “प्रसूतः” कस एवं वधार्थिगण द्वारा श्रीकृष्ण को ले आने के लिए व्रजधाममें मे प्रित हूं। अतएव “नः अनागान्" मादृश निर्दोष गणे के प्रति “सर्वताता” विश्वपिता कृष्ण “वोचतु" कृपा वाक्य कहें । “नः” यदी मेरी प्रार्थना है । ^पृथिवीद्यौः उव आपः सूर्य्यश्च नक्षत्रैः" पृथिवी, आकाश, जल, सूर्य ओर नक्षत्र समूह के साथ “उरुः अन्तरिक्षः” महान् अन्तरिक्ष अर्थात् अन्तरिक्षचारि इन्दर वायु प्रभृति देवगण
श्रीअक्रूर काण्डः ( १०९
इसे सुने। यह सब देवता मेरे अनुकूल होवें, यही तात्पर्य है ॥१॥
शृण्वन्तु नो वृषणः पर्वतासो ध्रुवक्षेमास इलया मदन्तः। आदित्यैर्नो अदितिः शृणोतु यच्छन्तु नो मरुतः शर्मभदरम्॥२॥ ऋ. २३।३।२७/ ३।५४।२०
शृण्वन्त्विति। नोऽस्माक वाक्यं वृषणः मनोरथवर्षिणः पर्वतासः पर्वताः धरुवक्षेमासः नित्य कल्याणा इलयान्नेन मदन्तः पुष्यन्त आदित्यैः सह अदितिश्च नः शृणोतु मरुतश्च शर्म्मभद्रम् अनिष्ठानानुबन्धि कल्याणं यच्छन्तु ददतु मह्यम् ॥२॥
अनुवाद- “नः” हमारी यह प्रार्थना वाक्य “वृषणः” मनोरथवर्षी अर्थात् अभिमत फलवर्षीं “पर्वतासः” पर्वत समूह “शृण्वन्तु" श्रवण करें । “ध्ुवक्षेमासः" नित्यकल्याणकामिगण “इलया” अन्नद्रारा “मदन्तः” हमारे पुष्टि वर्द्धन करें, "आदित्ये" अपत्यभूत आदित्यगण के सहित “अदितिः” देवमाता अदिति “नः” हमारी यह स्तुति श्रवण करे । “मरुतः” मरुतगण “भद्रं" अविच्छेद कल्याण स्वरूप “शर्म” सुख “नः” हम सबको “यच्छन्तु" प्रदान करें ॥२॥
सदा सुगः पितुमां अस्तु पन्था मध्वा देवा ओषधीः सम्पिपुक्त। भगो मे अग्नेन सख्ये मृध्या उद्रायो अश्यां सदनं पुरुक्षोः ॥२३॥ ऋ. २।३।२७/ ३।५४।२१
सदेति। सदा नित्यं सुगः शोभनगमनः पितुमान् अन्नवान् पन्थाः मार्गः अस्तु । मध्वा मधुना भो देवाः ओषधीर्मर्गस्थाः सम्पिपृक्त सञ्जो जयत । हे अग्ने मे मम भगः षड्विधमैश्वर्य्यमस्तु सख्ये परमात्मलाभाय न मृध्याः मृधं संग्रामं मा कुरु। संग्रामफलेन स्वर्गलाभेन तत्र कृष्णलाभे विघ्नं मा कूरु। सग्रामफलेन स्वर्गलाभेन तत्र कृष्णलाभे विघ्नं मा कूर्वित्यर्थः। पुरु वहु क्षुवतः विश्वसृजः कृष्णस्य सदनमश्यां प्राप्तुयाम्। कौदृशस्य । उद्रायः उत्कृष्ट सम्पदः ॥२॥
अनुवाद- हमारे “पन्था” मार्ग अर्थात् गमन पथ “सदा सुगः” नित्य सुगम एवं “पितुमाम्" अन्नवान् अर्थात् अन्न विशिष्ट “अस्तु" होवे । “देवाः” हे
११० ) श्रीमन्रभागवतम्
देवगण! “मध्वा” मधु द्वारा अथवा माधुर्यययुक्त उदक के द्वारा “ओषधि मार्गस्थ ओषधि समूह को “सम्पिपृक्त" अभिषिक्त करें । “अग्ने” हे अग्नि, “मे मेरा “भगः” एेश्वर्य्य, वीर्य्य, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य स्वरूप आप बने । “सख्ये” परमात्म लाभ के निपित्त “न मृध्याः" संग्राम न कसे, अर्थात् श्रीकृष्ण प्राप्ति के निमित्त बाधक न बनो, अर्थात् संग्राम के फल से स्वर्ग लाभ होता है, सुतरां उससे श्रीकृष्ण लाभ से वञ्चित होना पड़ता है, अतएव संग्राम उपस्थित कर् श्रीकृष्ण प्राप्ति मे विघ्न उपस्थित न करो । “पुरुक्षोः" विश्वस्नष्टा श्रीकृष्ण के “उदरायः” उत्कृष्ट सम्पदशाली “सदनं व्रजधाम “अश्या” गमन करेगे ॥३॥
स्वदस्व हव्या समिषो दिदीहयस्मद्यक् सम्मिमीहि श्रवांसि। विश्वँ अग्ने पृत्सु ताञ्चेषि शत्रूनहा विश्वा सुमना दीदिही नः ॥४॥ ऋ. २।२।२७/ ३।५४।२२
एवं मनोरथं कूर्वन्नक्रूरः श्रीकृष्णं प्राप्याह । स्वदस्वेति। हे अग्नेः सर्वदिवतामुखभूतागन्यभिमानिन् विष्णो ¦ हव्या शुचीनि भक्तजनाहतानि उपायनानि स्वदस्व आस्वादय इषोऽजन्नानि संदिदीहि सम्यक् दीपय बरदधयेत्यर्थः। अस्मद्रयक् अस्माभिः सह अञ्चति गच्छतीत्यस्मद्रयक् अस्मतूपक्षीयो भूत्वेत्यर्थः । श्रवांसि परेषां यशांसि सम्मिमीहि परिमापय स्वीयेर्यशोभिरतिक्रमस्वेत्यर्थः। पृत्सु संग्रामेषु विश्वान् शत्रून् तान् प्रसिद्धान् कसादीन् ज्येषि जयसि जयेति वा। न: अस्माकम् । क्रतून् संकल्पान् विश्वान् सर्वान् सुमनाः प्रसन्नः सन् दिदीति प्रकाशय ॥४॥
अनुवाद- इस प्रकार अभिलाष करते करते अक्रूर श्रीकृष्ण दर्शन लाभ कर कहते है- “हे अग्ने !” हे सर्वदेवता कं मुख स्वरूप अग्न्यभिमानी हे विष्णो ! “हव्या" भक्त जनाहत यह पवित्र उपहार समूह का ^स्वदश्व'" आस्वादन करें । हमारे “इषः" अन्न समूह को “सम्दिदीहि" सम्यक् रूप से दीप्तमान करें । “अस्मद्रयक्" हमारे सहगामी अथवा अस्मत् पक्षीय होकर श्रवांसि" अपर को यशोराशि का “सम्मिमीहि" परिमाप करे अर्थात् स्वीय यश को तुलना से उसको अतिक्रम कर । उसके पश्चात् “पुत्सु" संग्राम मे “तान् विश्वन् शत्रून्" उस प्रसिद्ध कसादि निखिल शत्रु को “ज्येषि" जय करें । अनन्तर “नः”
श्रीअक्रूर काण्डः ( १११
हमारे “विश्वा अहा" यागादि सङ्कल्प समूह को “सुमना” सुप्रसन्न होकर "दिदीहि" प्रकाशित करें ॥४॥
उषसः पूर्वा अधयदव्यूषूर्महदविजज्ञे अक्षरं पदे गोः। व्रता देवानामुप नु प्रभूषन् महददेवानामसुरत्वमेकम्॥५॥ ऋ. २३।३।२८/ ३।५५।१
एवं अक्रूरेण प्रार्थनापूर्वकं कृष्णे व्रजात् मथुरां प्रतिनीयमाने तद्वियोगेन शोचन्त्यो गोपिकाः वियोगहेतुन् देवानधिक्षिपन्ति सुपर्णेन सूक्तेन । प्रजापतेरारष वैश्वदेवं चैततूसूक्तम्। उषस इति। अध अहो यत् यदा पूर्वा ऊषसः व्यूषुः इतः ्राक्ततनाः ऊषः कालाः प्रादर्बभूवुः तदा गोः व्रजाद्नंप्रतियातुः प्राक् प्रतिष्टन्त्याः पदे महदक्षरं परमं पदं विजज्ञे जनयामास । कः देवानामिन्द्रादीनां व्रता व्रतानि “एकशतं ह इव वर्षाणि मघवान् प्रजापतौ ब्रह्मचर्य्यमुवास'" इत्यादि श्रुति प्रसिद्धानि आत्मन्ञानार्थं कृतानि ब्रह्यचर्य्याणि उप नु समीपे एव अविलम्वितमेव प्रभूषं प्रभूषयन् प्रकर्षेण भूषयन् अनेककोटिजन्माराधन प्राप्योपि अल्पेनैव कालेन दर्शनं दत्वा तेषां सुत्रतत्वमापादयत्नित्यर्थः। यो देवानां महता व्रतेन स्वमक्षरं पदं “तद्विष्णो परमं पदं” इति वेदान्त प्रसिद्धं दर्शयति, स महाकारुणिकतया तदेव नित्यं गोनुगामी सन् गोष्पदे निहितं दर्शयति। तादृशदेवमस्मत्तः उपनयतां देवानां महदेकमद्वितीयमसुरत्वम्। नृशंसमूर्धन्या देवा इत्यर्थः । अयं भावः । प्रणवादि प्रतीकं महतामपि चिरमुपासितं तर्य्यप्रतिपत्तिेतुः। नन्दकुमार पदं तु गोष्पदगततया ह्यत्यल्पकालं च सकृद् दृष्ट्या “ब्रह्म यदोङ्कारः" इति परापरब्रह्मत्वमेवं कृष्णपदे महदक्षरत्वं च। तत्प्रतिपत्त्युपायत्वादिति ध्येयम् ॥५॥
अनुवाद्- इस प्रकार प्रार्थना करके अक्रूर जब श्रीकृष्ण को मथुरा ले जाने के लिए उद्यत हुए त श्रीकृष्ण विच्छेद से शोकात्ती गोपिकागण विच्छेद के हेतुभूत देवगण के प्रति इस प्रकार आक्षेप प्रकट करने लगीं । यह सूक्त, आद्यन्त उस सुकरुण विलास कथा से पूर्णं हे। इस सूक्त के ऋषि प्रजापति है, देवता वैश्वदेव ह । आलोच्यऋक् मेँ कोई गोपी इस भाव को अभिव्यक्त कर रही है। यथा “अधः” अहो ! “यत् पूर्वा उषयः” इस समय के पहले जब
११२) श्रीमन्त्रभागवतम्
स उषाकाल “व्युषुः” प्रादुर्भूत हुआ था, उस समय “गोः” व्रजधाम से वृन्दावन की ओर गमनशील धेनु के “पदे" पूर्व प्रतिष्ठित पद मे जो “महदक्षरं" परमपद को "विजज्ञे" उत्पादन किए थे, एवं जो “देवानां” इन्द्रादि देवगण के “व्रता आत्मज्ञान लाभ के निमित्त अनुष्ठेय ब्रह्मचर्यव्रत “उपनु" अविलम्बित रूप मेँ "प्रभू" प्रकृष्ट रूप मे विभूषित किए थे। दनद्रादि देवगण के ब्रह्मचर्यव्रत का विवरण छन्दोग्योपनिषद् मे है। यथा “एक शतं ह वै वर्षाणि मघवान् प्रजायत ब्रह्मचर्यमुवास" फलतः जो अनेक कोटि जन्म कौ आराधना कं द्वारा लभ्य होते दै, आप स्वल्पकाल मेँ ही दर्शन देकर उन सबके सुत्रतत्व प्रतिपादन किए थे। एवं देवगण के अनुष्ठेय यह महातव्रत द्वारा स्वीय अक्षरपद अर्थात् “तद्विष्णो परमं पदं" इस वेदान्त प्रसिद्ध परम पद का प्रदर्शन करते ह। आप ही महाकारुणिक रूप मे उस उषा काल में नित्य गोगण के अनुगामी होकर वेदान्त प्रसिद्ध दुर्लभ ब्रह्मपद जिस वृन्दावन कं गोष्पद में निहित है, उसका प्रदर्शन करते दँ । अहो ! बडे ही दुःख कौ बात है कि- आप उस परम देव को हमारे निकट से ले जा रहे है । अतएव यह देवगण का महान् अद्वितीय असुरत्व है, अर्थात् देवगण नृशंस शिरोमणि है । परमेश्वर के प्रतीक रूप मे जिस प्रकार प्रणव सदा ही उपासित होते आ रहे रहै, उस प्रकार श्रीनन्दकमार श्रीकृष्ण के पद गोष्पद मँ निहित होकर भी महदक्षर रूप में प्रतीत होते है । सुतरां वह साधक का साधनाङ्गं रूप मेँ अवश्य ध्येय हे॥५॥
मो षूणो अत्र जुहुरन्त देवा मापूर्वे अग्ने पितरः पदज्ञाः । पुराण्योः सदानोः केतुरन्तर्महदेवानामसुरत्वमेकम्॥६॥ ऋ. ३।३।२८/ ३।५५।२
मोषूण इति। अत्र अस्मिन् गोष्पदस्थे महत्यक्षरे पदे विषये सुशोभनान् भक्तान् नः अस्मान् देवाः मा मैव जुहुरन्त बलात् मापहरन्तु । हञ् हरण इत्यस्यरूपम्। तस्मादेषां तत्न प्रियं यदेतन्मनुष्या विद्युरिति देवानां तद्दर्शन विष्नकारित् प्रसिद्धम्। तथाह । अग्नेः पूर्वे पदज्ञाः उक्तविधस्य पदस्य वेदितारः विद्यावंशप्रवर्तकास्तेऽपि विद्यागोपनपराः सन्तोऽत्र नोस्मान्। जुहुरतेत्यनुषङ्गः। कोऽसौ, यस्य पदमतिरहस्यमत आह । पुराण्योरिति अकारलोप आर्षः। ऋणो
श्रीअक्रूर काण्डः ( ११३
रक्षणचक्रि योरितिवत्चक्र योरित्यपेक्षिते। सदानोरुपाध्योः कार्य्यकारणरूपयोरित्यर्थः। अन्तर्मध्ये सन् केतुर्ञपकः। यत् प्रसादात् उपाध्योः स्वरूपं सिद्धयति स चिदात्मासावित्यर्थः। महदित्यादि प्राग्वत् ॥६॥
अनुवाद- “अत्र” इस गोष्पदस्थित महदक्षरपद के विषय में “नः” हमारे समान सुशोभन भक्तगण को “देवाः” देवगण जैसे “मा जुहुरन्त" उस श्री चरण सान्निध्य से बलपूर्वक अपहरण न करे, क्योकि मनुष्यगण जिस प्रकार उस परमपद को प्रिय रूप से जानते है, उस प्रकार वह पद देवगण का प्रिय नहीं है। वरं उसके दर्शन से देवगण का विघ्न ही होता है। अतएव “हे अग्नेय ' हे अग्नेः अधिष्ठातृदेव ! “पूर्वे पदज्ञाः" उक्तविध पदवेत्ता-“पितरः" विद्यावंश प्रवर्तकगण जिस प्रकार विद्या को गोपन कर पूर्वोक्तं विषय में हमारी हिसा न करें । जिनका पद इस प्रकार अति रहस्यमय है, वह कौन है ? अनन्तर उसका विवरण देते हे । आप “पुराण्योः" रक्षण चक्र कं समान चक्रह्य के “साद्मनोः उपाधि के अर्थात् कार्यकारण रूप उपाधिद्रय के “अन्त !' मध्य मे “केतुः" ज्ञापक है । फलतः जिनके प्रसाद से कार्यकारण रूप उपाधिद्रय का स्वरूप सिद्ध होता है, उस चिदात्मा परम पुरुष को जब हमारे समीपसे ले जा रहे है, तब यह “देवानां एक महदसुरत्वं" देवगण का एक महासुरत्व समञ्चना होगा ॥६॥
वि मे पुसत्रापतयन्तिकामाः शम्यच्छादीद्य पूर्व्याणि । समिद्धं अग्नावृतभिद्वदेम महद् देवानामसुरत्वमेकम्॥७॥ ऋ. ३।३।२८/ ३।५५।३
काचिदाह । वि मे इति। मे मम कामाः भोगोपकरणसामग्रयः विपतयन्ति विशेषेण पतनं पतन्तं कुर्वन्ति ते विपतयन्ति दृष्टमात्र एव शोकेन मूर्च्छा जनयन्तो भुवि पतनं कर्वन्तीत्यर्थः। अतः पूर्व्याणि प्राचीनानि शमी सुखानि। शमिति मान्तस्य क्लीवस्य बहुवचनम्। अञ्चलन्तत्त्वान्न नुम्। अच्छा साक्षात्कृत्येति शेषः। दीद्ये दीप्त्या मूच्छिता सती कृष्णक्रौडावेशज्वरेण जीवामीत्यर्थः। अत्र शपथपूर्वक देवानुपालभन्ते सर्वा अपि समिद्धे प्रदीप्तेऽग्नौ साक्षिणि सति ऋतमित् सत्यमेव वदेम यद्देवानां महदेकमसुरत्वमिति ॥७॥
११४) श्रीमन््रभागवतम्
अनुवाद- अन्य एक गोपी कहती है, “मे पुरुता कामाः” मेरी बहुविध भोगोपकरण वस्तु “विपतयन्ति" विशेष रूप से विपर्य्यस्त हो गई हे। फलतः श्रीकृष्ण के गमन को देखकर ही मूर्च्छा मुञ्धे भूपातित कर रही है। अतएव “पूर्व्याणि समी" पूर्वकाल के सुख समूह “अच्छदीद्ये" का साक्षात् अनुभवे कर मूच्छिता होकर भी कृष्ण क्रौड़ावेश ज्वर से ही म चेतनता लाभ कर रही ह। सम्प्रति हम सब “समिद्धे अग्नौ" प्रदीप्त अग्नि को साक्षी कर शपथ पूर्वक “ऋतं इत् वदेम" सत्य ही कह रही हूँ कि- “देवानां एक महदसुरत्वं" यह देवगण का एक महान् असुरत्व हे ॥७॥
समानो राजा विभूतः पुरुत्रा शये शयासु प्रयुतो वनानु । अन्या वत्सं भरति क्षेति माता महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥ ८ ॥ ऋ. ३।३।२८/ ३।५५।४
समान इति। समान एक एव सन् राजा गोपीगणस्य रङ्कः पुरुत्रा अनेकधा विभृतः विविधेन रूपेण भृतः पोषितो गोवत् सरूपी सन्। कस्मिन्निमित्ते इदं बभूव । शये शेरतेऽस्मिन्निति शयो व्यामोहः तस्मिन् सति शयासु व्यामोह- वतीषु गोपीषु कृष्ण एवाय वत्स- वत्सपरूपेण अनुपत्य नन्दयतीत्यजानन्तीषु प्रयुतः प्रकर्षेण स्नेहातिशयेन संलग्नः । कदाचन अन्योपरि आक्रम्य वत्सरूपेण गतः सन्नित्यर्थः । ब्रह्मणानीतेषु वत्स-वत्सपेषु तन्मातुरानन्दयितुं स्वयं यथा तत्तदूपो बभूव एवमक्रूरेण आहूतोऽपि अस्मानानन्दयितु द्वितीयं रूपं कतो न धते इत्यहो दौर्भाग्यमस्माकमिति भावः। आस्तामस्मतूसदृशीनां दासीनां कथा, मातरमपि कथमसावुपेक्षत इत्याहुः । अन्येति । अन्या देवको मथुरायां वत्समिव वत्सं स्वसखीपुत्रमेक भरति पुष्णाति । माता यशोदा क्षेति वियोगदुःखेन क्षीयते। अतोऽयमेव निर्घूणः किमुत सहचराणां देवाना नेष्दुर्य्यमित्यर्थः॥८ ॥
अनुवाद- वह “समानः” एक अद्वितीय होकर भी “राजा हमारे हदय रञ्जक एवं “पुरुत्रा विभृत" बहुरूप मे एवं विविध रूप मे परिपुष्ट गोवत्सादि रूप धारण किए थे। आप किस प्रयोजन से इस प्रकार बहुरूप धारण किए थे, वह भी कहते ह । “स्वये स्वयासु" भगवन्मायाभिभूता गोपिकागण के मध्यमे श्रीकृष्ण ही उनके वत्स एवं वत्सपाल गोपबालकों के अनुरूप रूप
श्रीअक्रूर काण्डः ( ११५
एवं मूर्ति धारण कर अवस्थित है, एवं “वनानु” वन वन में विचरण पूर्वक उन सबका आनन्द विधान कर रहे है, यह वृत्तान्त गोपीगण जान न सर्कौँ । अथच आप “प्रयुतः” प्रकृष्ट स्नेहातिशस्य वशतः उन सबके सहित संश्लिष्ट अथवा सम्मिलित थे। एक समय दूसरे के ऊपर आक्रमण करके ही श्रीकृष्ण इस प्रकार वत्स एवं वत्सपाल रूप धारण किए थे। एकदा ब्रह्मा एेश्वर्य्यदृप्त होकर वृन्दावनस्थ वत्स एवं वत्सपगण को अपहरण करने से उन सबकी जननी को आनन्दित करने के निमित्त स्वयं जिस प्रकार उन सबके अनुरूप मूत्तिं धारण किए थे, उस प्रकार अक्रूर के आह्वान से जब आप वृन्दावन को छोडकर जा रहे है तब गोपीगण को आनन्दित करने के निमित्त क्यो द्वितीय रूप धारण नहीं कर रहे है । अहो यह हमारे परम दौरभाग्य है । अस्तु, हमारी भाति दासीगण कौ बात ? किन्तु कैसे जननी कौ उपेक्षा कर रहे है 2 कारण- “अन्या" देवकौ मथुरा मे “वत्सं भरति" निज सखी पुत्र को निज पुत्र मानकर आदर पूर्वक लालन पालन करेगी, ओर माता श्रीयशोदा “क्षति" उनका दर्शन न प्राप्त कर कषिण्वा होगी । अतएव आप स्वयं ही जब उस प्रकार निर्दय निष्ठुर है, तब उनके सहचर देवगण कौ निष्ठुरता कौ कथा ओर क्या कहूंगी ? सत्य ही यह “देवानां एक महदसुरत्वं" देवगण का एक महा असुरत्व है ॥८॥
आक्षित् पूर्वास्वपरा अनूरुत् सद्यो जातासु तरुणीष्वन्तः । अन्तर्वतीः सुवते अप्रवीता महदेवानामसुरत्वमेकम्॥ ९ ॥ ऋ. ३।३।२८/ ३।५५।५
जारधवोऽप्ययमतिरूक्ष इत्याहुः। अक्षिदिति । पूर्वासु पूर्व प्रतिगृहीतासु युवतिषु विषये आक्षित्। आसमन्तात् क्षिणोतीति सर्वप्रकारेण वियोगदुःखद इत्यर्थः। अपरासु तरुणीषु निमित्तभूतासु अनूरुत् अनुरुध्यते इत्यनुरुत् तासामनुरोधं करोति ताः परित्यज्य अस्मान् प्रति नायातीत्यर्थः। कौदृशीषु 2 सद्यो जातासु । कब्जादयो हि जरठः कसदास्यः स्वामिद्रोहिण्यः कसस्य अनुलेपनं किञ्चित् दत्तं सद्य स्तरुण्यः ऋज्व्यश्च जाताः। वयं त्वन्तर्वती:। अन्तर्नित्यमेनमेव ध्यायन्त्यः अवीताः अनन्यगामिन्यः लज्जा-यवनिकामुन्मुच्य स्वपतिपुत्रादीनविगनय्य प्रकाशमेव एनमभिसृताः स्वैकशरणाः तादृशीरस्मान् सुवते हिनस्ति। सुवते
११६ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
इत्यात्मनेपदेन अस्मद्धिसाजन्यं दोषं अद्ौकूर्वाणोऽयं शरणागतोपक्षादोषादपि न विभेतीति उक्तम्। तत्र हेतुभूतानां देवानामिति प्राग्वत् ॥९॥
अनुवाद - प्रियतम श्रीकृष्ण जार होने पर भी जब हमारे हदयस्वामी दहै, तब क्यो हमारे प्रति इस प्रकार रुक्ष व्यवहार कर रहे है ? आप “ूर्वासु" इति पूर्व मे जिन सबको प्रेयसी रूप में ग्रहण किए थे उन युवतीगण के सम्बन्ध मे सम्प्रति “आक्षित्" सब प्रकार से दुर्वार वियोग प्रद हो रहे है । “अपरासु सद्यो जातासु तरुणीषु" अपर स्वामिद्रोहिणी जरा ग्रस्त कसदासी कब्जादि कस का अनुलेपन किञ्चित् देकर ही ततुक्षणात् चारवद्धी तरुणी हो गई थीं । उसकी भाति अपरा तरुणीगण जो “अनुरुत्" अनुरोध करेगी, उसको परित्याग कर हमारे निकट तो ओर नहीं आयेगे। किन्तु हम सब “अन्तः अन्तर्वत्ती “हदय के मध्य मे उनका ध्यान नित्य करती हूँ, एवं “अप्रवीत'" अनन्यगामिनी, अर्थात् श्रीकृष्ण को छोडकर अपर किसी को हम सब स्वामी नहीं जानती । हमने लज्जा यवनिका को उन्मोचन कर निजपति पुत्र को उपेक्षा कर प्रकाश्य भाव से उनको अभिसारिणी बन गई एवं एकमात्र निजजन जानकर उनकौ शरण ली है। अथच आप ही हमें “सुवते” इस प्रकार दुःख सागर मे निमग्न कर रहे है । वरं आप हमारे प्रति हिंसा जनित अपराध को अद्गीकार कर लेते है, अथच शरणागतजन कौ उपेक्षा जनित अपराध से उरते नहीं हे । अतएव इससे सुस्पष्ट बोध होता है कि यह “देवानां एक महदसुरत्वं' उनके निमित्तभूत देवगण का एक महा असुरत्व हे ॥९॥
शयुः परस्तादध नु द्विमाताऽबन्धनश्चरति वत्स एकः। मित्रस्य ता वरुणस्य व्रतानि महदेवानामसुरत्वमेकम्॥ ९०॥ ऋ. ३।३।२९/८ २।५५।६
ननु उपमातरं यशोदां परित्यज्य साक्षाजूजननीमानन्दयतो मम को दोष इति “अन्या वत्सं भरति क्षेति माता” इत्ययुक्तमुक्तम्। तथा कोमारे अविचारेण चरतोऽपिप्रोढृतायां वर्णाश्रमधर्मानुरोधात् पूर्वासु खीष्वरुचिरुचितैवेति “आक्षित् पूर्वासु" इत्युक्तोऽपि दोषो नास्तीत्याशङडन्य तमेव दोषं द्रटयति शयुरिति । "द्विमाता" द्रयोमात्रोरपत्यभूतस्त्वं शयुः शेते एव न तु किञ्चित् चलति तादृशः उत्तानशायी त्वं परस्तादभुतो जातः। अध इति पक्षान्तरशङ्कायाम्। नु निश्चितं एक एव
श्रीअक्रूर काण्डः ( ११७
वत्सो भवान् अबन्धनः स्नेहकारुण्यबन्धहीनश्चरति। अयं भावः। बलरामरूपेण सामिगर्भं एव मातृस्त्यक्तवान्, कृष्णरूपेण जातमात्र एव इति अत्यन्तं त्वं निरनुक्रोशोसीति। अहो आश्चर्ययं ताः तानि सत्वं मित्रस्य वरुणस्य व्रतानि व्रतफलरूपोऽसि । ता इति विधेयापेक्षं बहुत्वम् । मतिर्य्यपि निर्दयत्वं प्राप्त देवाः व्रतानि कर्वन्ति इति आश्चर्य्यमिति भावः ॥१०॥
अनुवाद- यदि कहो कि उपमाता यशोदा को परित्याग कर साक्षात् जननी श्रीदेवको को आनन्दित करने मे दोष क्या है ? सुतरां “अन्या वत्सं भरति षेति माता" यह जो कह रहा हूँ असद्गत नहीं हे। ओर भी कौमार काल मे अविचार से जो आचरण किया हे, वह इस वयः प्राप्ति होने पर अर्थात् प्रोढकाल मे वर्णाश्रम धर्म के अनुरोध से पूर्वं गृहीता रमणीगण के प्रति अरुचि प्रकाश करना भी दोषकर नही हे । सुतरां "आश्षत् पूर्वासु" इस उक्ति मे भी कोई दोष नहीं है। इस प्रकार संशय कर पुनर्वा श्रीकृष्ण के प्रति दृढ रूप से दोषारोप करती है । “हे व्रजवह्छभ !' तुम “द्विमाता” दो माता के अपत्य होकर “शयुः” विराजित हो । किन्तु विचलित होने की सम्भावना नहीं है। इस प्रकार उत्तानशायी होकर ही तुम “परन्तात्" परवशवत्ती होकर जन्म ग्रहण किए हो| “अध'' पक्षान्तर में तुम हो “एकः नु वत्सः" एकमात्र पुत्र रूप मे “अवन्धनश्चरति" स्नेहकारुण्य बन्धन से मुक्त होकर विचरण कर रहे हो। तुमने बलराम रूप मे अर्ध गर्भ मे ही जननी को ल्ञेड दिया हे, श्रीकृष्ण रूपमे जन्ममात्र से ही जननी को परित्याग किया हे। अतएव तुम अत्यन्त निर्दय भाव प्रकट कर रहे हो। अथच आश्चर्य्य कौ बात हे “ताः मित्रस्य वरुणस्य व्रतानि" उस मित्र वरुण के व्रतफल के रूप मे विराज कर रहे हो । अहो! मां के प्रति निर्य भाव प्रकाशकारी देवगण त्रताचरण कर रहे है, यह त्रत हे ? नही, यह “देवानां एकं महदसुरत्वं' देवगण का एक महान् असुरत्व हे ॥१०॥
द्विमाता होता विदथेषु संम्राटन्वग्रञ्चरति क्षेति बुध्नः। प्ररण्यानि रण्यवाचो भरन्ते महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥ ११॥ ऋ. ३।३।२९/ २।५५।७ द्विमातेति। पुनस्त्वं द्विमाता होता धर्मसम्प्रदाय प्रवर्तकः विदथेषु संग्रामेषु सम्रार् स्वतन्त्रः ईदृशोऽपि अग्र पश्चाद् भवनन्दादि अनुचरति भवान् नुध्नश्च
११८ ) श्रीमन्रभागवतम्
वसुदेवादि यादववंशमूलभूतः क्षेति क्षीयसे। एवं विपरीत कर्मणोऽपि भवतः रण्यानि रमणीयाणि कर्माणि रण्यवाचः रमणीयवाचः कवयो मन्त्रा वा भरते प्रकर्षेण संचिण्वति एतदेवाश्चर्य्यमित्यर्थः ॥११॥
अनुवाद- फिर से गोपीगण कहती है, तुम "द्विमाता" उभय जननी के अपत्य हो, अथवा भूलोक, देवलोक, लोकद्रय के निर्माता हो, “होता” धर्म सम्प्रदाय प्रवर्तक, “विदथेषु सम्राट्" युद्ध मे सम्पूर्णं स्वतन्त्र अर्थात् स्वाधीन रूप मे विराजित हो, तुम एतादृश होकर भी “अग्रं " अग्रभव श्रीनन्दादि के “अनुचरति” पश्चात् विचरण करते हो । तुम ही “बुध्नः" वसुदेवादि यादववंश के मूलभूत होकर भी "क्षेति" उस यदुवंश को ध्वंस किये हो । इस प्रकार विपरीत कर्मा होने पर भी तुम्हारे “धन्यानि” उस रमणीय कर्म समूह को “रण्यवाचः" रमणीय वाक्य कविगण अथवा मन्त्रसमूह “प्रभरन्ते" प्रकृष्ट रूप मे चयन करते है, यह आश्चर्य कौ बात है। किन्तु सम्प्रति हमारे सम्बन्ध में तुम्हारे उस कर्माङ्गभूत “देवानां एक महदसुरत्वं" देवगण का यह एक महान् असुरत्व हे ॥११॥
शूरस्येव युध्यतो अन्तपस्य प्रतीचीनन्ददृशो विश्वमायत्। अन्तर्मतिश्चरति निःषिधं गोर्महददेवानामसुरत्वमेकम्॥ १२॥ ऋ. ३।३।२९/ ३।५५।८
ननु अशक्ततयाहं बाल्ये मातापित्रोः सेवां कर्तुं सन्निधौ वा स्थातुं न समर्थोऽभूवम्। इदानीं तु तथा कर्तुमनुचितमित्याशङ्क्य बाल्येऽपि महान्ति कर्माणि कूर्वतस्तव किमप्यशक्यम् नासीदित्याहुः। शूरस्येवेत्यादिना । अमि गत्यादिकर्मणि तम्यन्ति ग्लायन्तीत्यन्तमः उत्तानशायी । अमगत्यादिषु एतत् पूर्वकात्तमुग्लानौ इत्यतः पचाद्यच्। तस्य शिशोरपि तव अन्तर्मुखमध्ये विश्वं ददृशे । दृशं प्रतीचीनं प्रतीचि भवं त्वत् शरीरे एव स्थितं न तु दर्पण इव परावृत्त नयनेन बर्हिष्ठ सदृदृष्टमित्यर्थः। आयत् आभिमुख्येन प्रविशतीत्यायत्। त्वया स्वात्मन्युपसंहतम्। एतेन जगदुत्पत्तिलयाधिष्ठानत्वं स्वतन्त्रत्वं च बाल्येऽपि आसीत् इत्युक्तम् । कौदृशस्य शूरस्य ? रामादेरिव युद्ध्यतः प्रहरतः पूतनादीत्रिघ्नते इत्यर्थः । यतस्त्वमेवम्बिधो हतस्त्वयि गोर्मतिः निष्विध यथा स्यात् तथा चरति
श्रीअक्रूर काण्डः ( ११९
गोस्तत््वमस्यादिवाचः सम्बन्धिनीमतिः ब्रह्मविद्याख्या चेतो वृत्तिः निषेधतिर्गत्यर्थः। अवगतिरहितं यथा स्यात्तथा प्रचरन्ति । वृत्तिविषत्वेप्येवम्विध इति शृद्कग्राहिकया गृहीतुं न शक्यते । फलात्मत्वेन तद्व्याप्यत्वाभावादित्यर्थः। त्वं त्वां परमपुरुषार्थभूतमपि अपहरतां देवनापिति । प्राग्वत् ॥१२॥
अनुवाद- यदि कहो कि बाल्यकाल में अशक्ता हेतु मातापिता कौ सेवा करने अथवा उनके सान्निध्य मे अवस्थान करने मे असमर्थ रहा । किन्तु सम्प्रति उस प्रकार आचरण करना उचित नहीं हे । इस प्रकार आशङ्का कर कहते हैं, बाल्यकाल में भी महान् कार्य समूह सम्पादन किए है, अतएव बाल्यकाल मे असाध्य कुछ भी नहीं था, जब “अन्तमस्य गमनादि कर्म में ग्लानियुक्त होकर अर्थात् गमनागमन मे अशक्त उत्तानशायी थे, तव तुम्हारे मुख विवर मे “विश्वं ददृशे" निखिल विश्व परिदृष्ट हए थे । वह दर्शन “प्रतीचीनं प्रतीचीभव अर्थात् पश्चिमदिग्वर्ती चन्द्र के समान तुम्हारे शरीर मे निखिल विश्व दृष्ट हुए थे। दर्पण में प्रतिविम्ब कौ भाति नहीं हे । फलतः उन्मुक्त नयन से प्रोज्ज्वल अथच सुन्दर रूप से ही परिदृष्ट हुए थे । अनन्त विश्व ब्रह्माण्ड “आयत् तुम्हारे ही अभिमुख मे आकर तुम्हारे मे ही प्रविष्ट हो रहे है, ओर तुम स्वीय आत्मा मेँ उस अनन्त विश्व का उपसंहार कर रहे हो, अतएव बाल्यकाल मे भी तुम्हारे जगत् कर्चृत्व सृष्टि स्थितिलय कर्तृत्व एवं स्वतन्त्रत्व विद्यमान था। तुम ही “युद्ध्यतः शूरस्य इव” युद्धशील महाशूर श्रीबलरामादि कौ भति पूतना प्रभृति का संहार किए हो, तुम उस प्रकार अनन्त शक्ति सम्पन्न हो, अतः तुम्हारे सम्बन्ध मे “गोर्मतिः" तत्त्वमस्यादि वाक्य सम्बन्धिनी मति अर्थात् ब्रह्म विद्याख्या चित्तवृत्ति “निःषिधः" अविज्ञात रूप मे अर्थात् अवगति रहित रूप मे “चरति" प्रचार करती रहती हँ । फलतः वृत्ति के विषय रूप में आप इतना दर्ञेय है, शुङ्गग्राहिका न्याय के द्वारा भी आपको आयत्त नही किया जा सकता है, किन्तु दुर्दान्त वृषभ के एक भद्ध पकड लेने पर अपर शृद् का ग्रहण अनायास होता है । इसका तातुपर्य यह हे कि किसी दुरायत्त विषय के एकदेश आयत्त करने पर अपर देश भी आयत्त होता है, सान का विषय यह है, किन्तु फलात्म रूप मे उनका व्याप्यत्व न होने से उक्त नियमानुसार एक देश भी आयत्ताधीन नहीं होता है। उस परमपरमार्थभूत तुम्हे जब अपहरण कर ले जा
१२० ) श्रीमन््रभागवतम्
रहे है, तब वह “देवानां एक महदसुरत्वं" देवगण का यह एक महा असुरत्व हे ॥१२॥
निवेवेति पलितो दूत आस्वन्तर्महांश्चरति रोचनेन । वपुषि विभ्रदभि नो विचष्टे महददेवानामसुरत्वमेकम्॥ ९३ ॥ ऋ. ३।३।२९/ ३।५५।९
एवं विलप्यापि अक्रूरोपालम्भपूर्वक स्वस्य कृतार्थत्वमपि कूर्वन्ति। निवेवेतीति। पलितः जरटोप्ययुक्तकारीत्याक्षेपः दूतो क्रूरो निवेवेति भृश वेगेन गच्छतीत्यर्थ; । आस्विति। गम्यमानदिक् प्रदर्शनम्। एवमपि यं नयति सोऽस्माकमन्तश्चरति। रोचनेन स्वरूपेण महान् सर्वोत्कृष्टः। अतएव वपुषि वत्स-वत्सपरूपाणि विभ्रदयमेव नोऽस्मान् कर्त्रादिधर्मकान् ऋग्भिः अभिविचष्टे पश्यति प्रकाशयति । अतो यद्यप्येवं कृतार्थाः स्मः। तथापि अस्मदीयं दृष्टसुखम् अपहरतां देवानामित्यादि प्राग्वत् ॥१३॥
अनुबाद- गोपाङ्खनागण श्रीकृष्ण के उद्देश्य मे इस प्रकार विलाप करके पश्चात् अक्रूर को तिरस्कार कर अपने को कृतार्थ मान रही हैँ । यह आक्षेप का विषय हे। वह “दूतः” कस प्रेरित अक्रूर “पलितः” पक्वकेश वृद्ध होकर भी अन्याय कार्य कर रहे है । आप प्रियतम श्रीकृष्ण को लेकर “निवेषेति" अतिशय वेग से गमन कर रहे हँ "आसु" ( गम्यमान दिक् को दिखाकर) उस दिक् मे जिनको ले जा रहे है, वह हमारे "अन्तश्चरति" हदय कं मध्य में सर्वदा विराजित हे, एवं “रोचनेन महान्" स्वीय रूपमाधुर््य मे सर्वोत्कृष्ट हे । “वपूषि विभ्रत्" आप ही वत्स एवं वत्सपालादि के अनुरूप देह धारण किए थे, एवं अब ' नः" हम सबको “अभिविचष्टे" कृपादृष्टि के द्वारा सर्वतो भाव से दर्शन कर रहे है । इससे यद्यपि हम सब कृतार्थ हो गई, तथापि हमारे दृष्ट सुखापहरण कारी “देवानां एकं महदसुरत्वं" देवगण का यह एक महाअसुरत्व हे ॥१३॥
विष्णुर्गोपाः परमं पाति पाथः प्रिया धामान्यमृता दधानः। अग्निष्टा विष्वा भुवनानि वेद महददेवानामसुरत्वमेकम्॥९४॥ ऋ. ३।३।२९/ ३।५५।१०
श्रीअक्रूर काण्डः ( १२१
तदेव दृश्यं सुखमुपवर्णयन्ति विष्णुरिति। विष्णुः कृष्णरूपी गोपालकात्मकः परमं पावनं पाथः यामुनं जलं कालीयविषदूषितं पाति कालीयनिरसनेन रक्षति निर्दोषं करोति । इदं च एेहिक समस्तदुःखहेतूपमर्दोप- लक्षणम् । प्रिया प्रियाणि धामानि रम्याणि स्थानानि अमृता अमृतानि ब्रह्मलोकादीनि दधानः स्वशरीरे एव धत्ते इति दधानश्चतुर्दुशभुवनानामाश्रय इत्यर्थः । अग्निष्टाविश्वाभुवनानि वेद तानि सर्वाणि धामानि अग्निरस्माकम्। विदज्ञाने इति धातर्वेद । अतोऽनेकब्रह्याण्डबीजगर्भमहाफलस्थानीयं समस्तं दृष्ट- टु :खनिवारणं भवन्तमपहरतां देवानामिति । प्राग्वत्। अत्र यो मां पश्यति सर्वत्रेत्यादि शास्त्रोक्तं भिन्नेषु अभेदानुसन्धानं केवलस्य व्यवहितम्। भवस्य प्रत्यक्षत्वादभेदस्य चाहा्य्यत्वात्। अभिन्ने तु भेदकल्पनं केवलस्याभेद प्रत्ययाधीनस्य सन्निहिततरत्वं संसारहेतोर्भदज्ञानस्य अस्मिन् विप्रकर्षोस्तीति। एतदेव “सर्व च मयि पश्यति" इति शास्त्रप्रसिद्धमस्माभिः श्रूयते इति भावः ॥१४॥
अनुवाद- अनन्तर गोपीगण श्रीकृष्ण के उस मनोहर दृश्य का वर्णन परम सुख से करने लगीं । “गोपा विष्णुः” गोपाल वेशधारी भगवान् श्रीकृष्ण “परमपाथः” परमपवित्र यमुना जल, कालीय विष दूषित होने से “पाति" कालीय नाग को निरस्त कर उसकी पवित्रता कौ रक्षा किए थे। अर्थात् यमुना के जल को निर्दोष किए थे। आप हमारे समस्त एेहिक दुःख के कारण को विनष्ट किये थे यह उपलक्षण परिव्यक्त हुआ । आप “प्रियाणि" प्रियतम रम्यस्थान समूह व “अमृता ब्रह्मलोकादि “दधानः” स्वीय देह मे धारण करते हैँ, अर्थात् चतुर्दश भुवन का आप ही आश्रय है । “विश्वा भुवनानि" उस निखिल विश्व, उस निखिल रम्यधाम सम्प्रति हमारे पक्ष मे “अग्निष्ठा" महातापप्रद अग्नि स्वरूप “वेद जानना । अतएव अनन्त ब्रह्माण्ड बीजगर्भं महाकाल स्वरूप व समस्त दृष्ट दुःख निवारण, आपको जो लोक अपहरण कर ले जारहेरहैवे “देवानां एक महदसुरत्वं" देवगण का यह एक महान् असुरत्व हे। इस स्थल में “यो मां पश्यति सर्वत्रेत्यादि" इस भगवदुक्ति कं अनुसार भिन्न वस्तु मे अभेदानुसन्धान मोक्ष का अन्तराय हे। कारण जगत् प्रत्यक्ष है, उसमें अभेद का आरोप सिद्ध होता है, सुतरां अभिन्न वस्तु मेँ भेद कल्पना से ही अभेद प्रत्याधीन मोक्ष का सन्निकर्षं सिद्ध होता है, एवं इससे ही संसार हेतुभूत भेद ज्ञान का विप्रकर्ष
१२२) श्रीमन्त्रभागवतम्
होता है, अतएव “सर्व च मयि पश्यति" इस शाख प्रसिद्ध वाक्य का श्रवण हम सबने किया है ॥९४॥
नाना चक्राते यम्या वपुषि तयोरन्यद्रोचते कृष्णमन्यत्। श्यावी च यदरुषी च स्वसारौ महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥ १५॥ ऋ. ३।३।३०/ ३।५५।१९१
अहो महाश्चर्य्यम्। गच्छतोः रामकृष्णयोः मातुभ्यामपि निवारणं न कृतमित्याह: । नानेति। श्यावि कृष्णवर्णा यशोदा अरुषी अरुणा रोहिणी । एते उभे स्वसारौ भगिन्यावपि यतः यम्या स्वेनानयितुं योग्ये दामबन्धनवपुषी रामकृष्णशरीरे । बहुत्वं छन्दसम्। नाना पृथक् चक्राते विक्षिप्तवत्यौ । अन्यतरापि स्वं पुत्रमहं न प्रेषयामीति असहनं करोति चेदुभयोरप्यत्रावस्थानं भवेदिति भावः। तयोः स्वस्तोर्मध्ये एकस्यै यशोदायै अन्यत् एक कृष्णं वपुः रोचते । परिशेषात् अन्यदेकं वपुः अकृष्णं गौरं एकस्यै रोहिण्यै रोचते । अतस्तयोरपि स्नेहविच्छेदं कारयतां देवानाम् महदेक मसुरत्वम् ॥१५ ॥
अनुवाद- अहो बड़ा ही आश्चर्य है । राम कृष्ण मथुरा गमन कर रहे है, अथच उनकौ जननी निवारण नहीं कर रही है । “श्यावी श्यामाद्धी यशोदा, एवं “अरुषी" अरुणवयी रोहिणी, दोनों ही “स्वसारो” परस्पर भगिनी स्वरूपा है । “यत्” कारण, “यम्या” उभय ही “वपुंषि" दामबन्धनाङ्घ रामकृष्णद्य को प्रत्यावर्तन कराने मे समर्थ ह । एवं तज्जन्य उभय ही “नाशचक्राते" पृथक् पृथक् विविध कौशल जाल भी बिह सकती है। ओर भी उभय के मध्यमे यदि एक मन मे करती है कि मे निज पुत्र को भेजँंगी नहीं, यहाँ पर उस प्रकार धारणा कौ सम्भावना नर्ही है, कारण वे उभय ही एकत्र अवस्थान कर रही है । “तयो उन उभय जननी के मध्य मे एक के अर्थात् श्रीयशोदा को “कृष्णं रोचते" श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण रुचिकर है, एवं “अन्यत् श्रीरोहिणी के निमित्त एक अकृष्ण अर्थात् गौरदेह श्री बलराम रुचिकर हे । अतएव उभय जननी के स्नेह विच्छेद संघटनकारी “देवानां महदेकमसुरत्वं' देवगण का यह एक महान् असुरत्व हे ॥१५॥
श्रीअक्रूर काण्डः ( १२३
माता च यत्र दुहिता च धेनु सर्वदुघे धापयेते समीची । ऋतस्य ते सदसीले अन्तर्महददेवानामसुरत्वमेकम्॥ ९६ ॥ ऋ. ३।३।३०/ ३।५५।१२
मातेति। यत्र यस्मिन् वपुरदये सन्निहिते माता च गौः दुहिता च गौः। ते उभे अपि धेनू दोग्रयावेव भवतः, न तु मातुर्जरर्तत्वमदोगध्रीत्वं वा आयातीत्यर्थः। सर्वेदुषे क्षीरदौगक्रयौ स्वरिति म्लेच्छेषु क्षीरनामेति प्राञ्चः। सगर्भाया नामेति तु परसिद्ध । तेष्वेव तेन गर्भधारणदशायामपि क्षीरप्रदेश इति गम्यते। धापयेते लोकान् वत्सांश्च पाययतः। समीची दोग्धुणामनुकूले। तत्र माता दुहितेति च जात्यभिप्रायेणैकवचनम्। ते उभे अपि ऋतस्य वेदस्य सदसीव सदसि अधिष्ठाने श्रीकृष्णाख्ये ब्रह्मणि अन्तःस्थित इति शेषः। अतएव ईले स्तोमि। अयं भावः- कृष्णाभिध्यानानां गवादीनां जरादिकं नासीत्। अतःपरं तद्वियोगेन तत्तासां दुर्वारमिति । व्रजस्य उत्कर्षमसहमानानां गोद्रहां महद्देवानामिति। प्राग्वत् ॥१६॥
अनुवाद- “यत्न” जिस वपुर्दय कं सत्निहित अर्थात् श्रीराम कृष्ण के सन्निहित “माता च दुहिता च" गो माता एवं गोदुहिता समूह थीं, उक्त रामकृष्ण उभय ही उक्त धेनु समूह के दोगघरा अर्थात् दोहनकारी है, जननी जरग्रस्ता- दुग्ध दोहन में अशक्त होने से वे दोन दोहनकारी थे, एेसी बात नहीं है, कारण उभय ही “सर्वदुधे" क्षीर दोहन कारिणी है । “सवः” शब्द क्षीरवाची है, सम्प्रदायानुसार अर्थं होता हे । उस गोमाता एवं गो दुहिता समस्त सभी अवस्था में भी दुग्धपान करती रहती है, एवं “धापयेते" वत्सगण को लोकगण को दुग्धपान करवाती रहती है । सुतरां वे सब “समीची" दोहनकारी के अनुकूल रै । इस स्थल मेँ माता दुहिता शब्द जात्यभिप्राय से एक वचनान्त है, “ते" वे उभय ही “ऋतस्य पदसि'" वेद का अधिष्ठान अर्थात् श्रीकृष्णाख्य परम ब्रह्म मे अन्तः निहित है । अतएव “ईले” उनकौ स्तुति करती हूं। श्रीकृष्ण का अभिध्यान करने से व्रजस्थ गवादि मे जरामरणादि विद्यमान नहीं है । सम्प्रति उन श्रीकृष्ण के वियोग से व्रजस्थ गवादि के जरामरणादि अवश्यम्भावी है। व्रजके उत्कर्षं जिनका असहनीय है, वह गोद्रोही “देवानां एक महदसुरत्वं" देवगण का यह एक महा असुरत्व है ॥९६॥
१२४ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
अन्यस्या वत्सं रिहती मिमाय कया भुवा निदधे धेनुरूधः। ऋतस्य सा पयसापिन्वतेला महददेवानामसुरत्वमेकम्॥ १७॥ ऋ. २।२३।३०/ ३।५५।१३
अन्यस्या इति । अन्यस्याः धेनो: वत्सं रिहती लिहन्ती का धेनुः ऊधः क्षीराशयं निदध प्रस्विणं धृतवती । न कापीत्यर्थः । अपि च कया भुवा मिमाय मितवती स्वमुधः भूपर्य्यन्तं क देशं निनाय । क्वचिदपि देशे काले वा इदं न जातामित्यर्थः। व्रजे तु वत्सेषु वत्सपेषु च ब्रह्मणा नीतेषु मायायाः वत्सं श्रीकृष्णं लिहन्ती सर्वापि धेनुः भुवा संयुतम् ऊधो निदधे । वात्सल्यातिशयादिति भवः। सा इला ऊधस्वती धेनुः ऋतस्य सत्यस्य सम्बन्धिनां पयसा साक्षात् ब्रह्मरसानन्दात्मकेन क्षीरेण अपिन्वत अतर्पयत् । व्रजस्थं ब्रह्मास्मत्तोपनयतां देवानां महदेकमसुरत्वम् ॥१७॥
अनुवाद- कोई धेनु “अन्यस्याः वत्सं रिहन्ती" अपर धेनु कं वत्स को जिह्वा के द्वारा लेहन करती है, एवं कोई “धेनु" इवा “ऊधः दुग्धाशयको प्रस्रवण के समान “निदधे” धारण करती है? कोई धेनु ही नहीं । अपिच “कया भुवा मिमाय" किस देश कौ धेनु स्वीय ऊधः थन को भू परिमित करती रहती है । अर्थात् किस देश के धेनु का दुग्धाशय भूमि पर्य्यन्त को स्पर्शं करता हे? किसी देश में किसी काल मेँ एेसा नहीं हुआ हे । ब्रह्मा व्रज धाम में वत्स एवं वत्स पालगण को अपहरण कर लेने से समस्त धेनु ही माया वत्सरूपी श्रीकृष्ण को निज निज वत्स जानकर लेहन करने लगी, एवं उस समय में वात्सल्यातिशय्य वशतः वे सब भूतल चुम्बी ऊधः धारण किए थीं, “सा इला" उस अपूर्व ऊधः विशिष्ट धेनुसमृह “ऋतस्य पयसा" सत्य सम्बन्धि साक्षात् ब्रह्मरसा नन्दात्मक दुग्ध द्वारा “अपिन्वत" सबको तृप्त करती थीं । उस व्रजस्थ परम ब्रह्म को जो सब व्यक्ति हमारे समीप से ले जा रहे हे, बे सब “देवानामेक महदसुरत्वं" देवगण का यह एक महा असुरत्व हे ॥१७॥
पद्या वस्ते पुरुरूपा वपुष्युर्ध्वां तस्थौ त्रवि रेरिहाणा । ऋतस्य सदय विचरामि विद्वान् महद्देवानामसुरत्वमेकम्।।९८ ॥ ऋ. ३।३।३०/ ३।५५।९४
श्रीअक्रूर काण्डः ( १२५
पद्येति। पद्या या तु अभिसारिणीभिरभिसर्तुं योग्या ते तव मूर्तिरूर्ध्वा सर्वसंसारबहिर्भूतापि परजनार्थं पुरुरूपा बहुरूपाणि धते इत्यर्थः। ताभ्योन्या मृ्निरूर्ध्वा अभिसारिणीभिरस्मृष्टा मध्ये तस्थौ स्थिता। रासक्रोडाप्रसङ्खं इत्यर्थः कौदृशानि वपुषि ? त्यविरेरिहाणा त्रीन् प्रदेशान् अवति प्रकाशयतीति त्रयविं पारश्वद्यं पुरोभागश्चेति त्रयं प्रकाशयन्ती दृष्टिः तां रेरिहाणा लेलिहाना । त्रिष्वपि प्रदेशेषु स्थित्वा ग्रसमानेत्यर्थः। रासमण्डले हि एकैकस्याः गोपिकायाः पा्वद्ये कृष्णदरयमेका च मध्ये सर्वासां साधारणेति प्रदेशत्रयस्था कृष्णमूर्तेः परदेशत्रयगामिनी दृष्टः सर्वात्मना ग्रसते ततोऽन्यदगोचरं किमपि न भवतीत्यर्थः| यत एवं रूपाणि वस्ते अतः ऋतस्य वेदस्य यज्ञदेर्वा सद्म अधिष्ठानं समर्पण स्थानं वा परं ब्रह्माहं विद्वान् विचरामि, विशेषेण जानामि। विद्वानिति कृष्णतादात्म्याभिमानात् स्रीभावं विस्मृतवती गोपी आत्मानं पुंलिङ्गेन विशिनष्टि। यद्यप्येवम्। तथापि देवानां महदसुरत्वम्। अस्मत् उत्कर्षासहत्वात् ॥१८ ॥
अनुवाद- “पद्या” जो अभिसारिणी व्रजरामागण के द्वारा अभिसार योग्या हे, वह "ते" तुम्हार श्रीमूर्तिं “ऊर्द्ध सर्व संसार बहिर्भूता होकर भी साधु भक्तजन के निमित्त “पुरुरूपा” बहुविध रूप धारण करती है । रासमण्डल में बहुमृततिं प्रकाश के मध्य मेँ अपर एक मूर्षि उस अभिसारिणीगण की अस्पृष्टा रूप में मध्यस्थल मे “तस्यो” अवस्थित थी। उस “वपुंसि" तुम्हारी श्री मूर्धि ` रवि रेरिहाना" पार्वद्रय व पुरोभाग, इस प्रदेशत्रय को प्रकाश कर दृष्टि द्वार लेहन करती थीं । फलतः हम सब तुम्हारी अपाङ्ग दृष्टि के द्वारा प्रदेशत्रय से आक्रान्त हो गई थी । रासमण्डल मे एक एक गोपिका के पार्वहय मेँ श्रीकृष्ण कौ दो मृत्ति, एवं मध्यस्थल मेँ सर्वं साधारण रूप मे एक मूषि, ये प्रदेशत्रय स्थिता श्रीकृष्ण प्रदेश त्रयगामिनी दृष्टि सबकी आत्मा को ग्रास कर ली थी; सुतरां उस समय अपर कुछ भी दिखते नहीं थे। कारण तुम इस प्रकार से स्वरूप को “वस्ते” आच्छदन करते रहते हो, अतएव “ऋतस्य ' वेद का अथवा यज्ञादि का “सम'" अधिष्ठान अथवा समर्पण स्थान स्वरूप परमब्रह्य रूप में तुमहं म “विदान् ज्ञानवती “विचरामि” विशेष रूप से जानती हूं । यहाँ कृष्ण तादात्म्य अभिमानवशतः स्त्रीभाव विस्मृत होकर यह गोपी अपने को
१२६ ) श्रीमन्त्रभागवतम्
न पुरुषभाव से “विद्वान्” कहकर विशेषित करती थी । यद्यपि हम सब कृतार्थ है, तथापि "देवानामेक महदसुरत्वं" देवगणो का यह एक महान् असुरत्व है, कारण हमारे उत्कर्ष उन सबके लिए एकान्त असहनीय हे ॥१८ ॥
पदे इव निहिते दस्मे अन्तस्तयोरन्यदगुह्यमाविरन्यत्। सध्रीचीना पथ्या सा विषुची महददेवानामसुरत्वमेकम् ॥ १९॥ ऋ. ३।३।३०/ ३।५५.।१५
पदे इवेति। अस्यामेव रासक्रीडायां सर्वाः गोपीः परित्यज्य एकां गृहीत्वा किञ्चिद्दूरं गतवान् भगवान् तां च श्रान्तामालक्ष्य स्कन्धे समारोपितवान् । ततः तामपि गर्विता परित्यज्य गतवानिति स्मर्य्यते । तत्रेतरां भगवन्तं मृगयन्त्यो वदन्ति। पदे इवेति । पदे गमनसूचके पांसुषुस्पष्टीभूते द्विजान् दयोर्गमके । दृश्येते इति शेषः। कीदृशी ते। दस्मे क्रीडागृहरूपे वने अन्तःमार्गमध्ये निहिते स्थापिते। तयोर्यो; पदयोर्मध्ये अन्यदेकं पदं गुह्यं गुप्तं जातम्। तेनानुमीयते- यामसौ नीतवान् तामसौ स्कन्धे आरोपितवान् इति । अतएववान्यपदं आविः सुस्पष्टम् । भारवत्तवात्। अतः सा धन्या या कृष्णसप्रीचीना सहगामिनी, यतः पथ्या पथोनपेता कृष्णमार्गादस्मद्रदाप भ्रष्टा एवं भूतापि सा कृष्णेन त्यक्ता सती विषुची विष्वक् इतस्ततोऽञ्चति कृष्णमन्वेष्टं गच्छतीति विषूची । दृश्यत इति शेषः। अतः एकस्या अप्युत्कर्षमसहमानानां देवानामिति प्राग्वत् ॥१९॥
अनुवाद- इस रासक्रौड़ा मे सन गोपी को परित्याग कर एक प्रधाना गोपी को लेकर भगवान् श्रीकृष्ण कक दूर जाते-जाते उनको परिश्रान्त देखकर स्वीय स्कन्ध मेँ उठा लिये थे। उसके बाद उनको गर्विता देखकर श्रीकृष्ण उनको छोडकर अदृश्य हो गए्। अन्यान्य गोपीगण उनको अन्वेषण करते-करते इस प्रकार कहने लगीं, हमारे हदय व्यभ प्रियतमा के साथ गमन किए है, उन दोनों के “पदे” पदचिह स्पष्ट ही परिदृष्ट हो रहे है । वह “दस्मे अन्तः" क्रीडागृह रूप मे वन पथ क मध्य मे “निहिते” निहित हे । यह पर “तयोः” उभय के मध्य में “अन्यत्" एक का पदाङ्क “गुह्यं अदृश्य है । इससे बोध होता हे, कि जिसको आप ले जा रहे थे, उसे आपने निश्चय ही कथे में चटा लिए हयगे । “अन्यत्” अन्य पदा “आविः” भार वहन कं निमित्त सुस्पष्ट हे।
श्रीअक्रूर काण्डः स क ~ - =
अतएव “सा गोपिका ही धन्या है। जो “सध्रीचीना श्रीकृष्ण की सहगामिनी हे, किन्तु वह “पथ्या” कृष्ण मार्गं से अपभ्रष्टा हे, इस श्रीकृष्ण के द्वारा परित्यक्ता होकर हमारी भाँति कृष्णान्वेषण कर रही है। अतएव एक व्यक्ति का उत्कर्षं जिसके लिए असहनीय है, वह "देवानां एकं महदसुरत्वम्" देवतागण कं यह एक महान् असुरत्व हे ॥१९॥
आधेनवो धुनयनन्तामशिश्वीः सर्वदुघाः शशया अप्रदुग्धाः। नन्या नव्या युवतयो भवन्तीरमहददेवानामसुरत्वमेकम्॥ २०॥ ऋ. ३।३।२३१/ ३।५५।१६
आधेनव इति। येषां देवानामस्मासु महदेकमसुरत्वं तान् धेनवः आधुनयन तां आ समन्तात् कम्पयन्ते। कृष्णवियोगातुराः धेनुर्दष्ट्वापि तेषां कम्पोऽभूत्। एता उदीक्ष्य वा ते दयां कूर्व्वत्विति भाव;। कोद श्यः। अशिश्वीः आवालाः। सर्वदुघा इति । पूर्ववत्। शशयाः। शे देवानां कल्याणे निमित्ते शेरते ताः शशयाः। दशविधहविः प्रदानेन देवास्तर्पयन्त्य इत्यर्थः । नव्या नव्याः । स्तुत्यास्तुत्याः युवतयश्च भवन्तीर्भवत्यः अत्यन्त गुणवत्यः। उपकाराच्च धनूिंषन्तो देवाः कृतप्नत्वभयाह्ा उद्विजतामित्यर्थः ॥२०॥
अनुवाद- जो देवगण हमारे प्रति महा असुरत्व प्रकाश कर रहे है उनको ही “धेनवः” धेनु समूह “आधुनयन्तां" सम्यक् रूप से कम्पान्वित कर रही है अर्थात् कृष्ण वियोग विधुरा धेनुगण को देखकर वे सब कम्पित हो रहे है । सुतरां उन सबको देखकर भी दया करना कर्तव्य हे। धेनु समूह “अशिश्वी" अल्प वयस्का नहीं हे, सवत्सा, “अप्रदुग्धाः” अक्षीण रसा अर्थात् प्रचुर रसवती सर्वदुघाः” दुग्ध दोहनयोग्या अर्थात् दुग्धवती एवं “शशया” देवगण के कल्याण के निमित्त वर्तमाना अर्थात् दशविध हविः प्रदान द्वारा देवगण कौ तृप्ति विधानकारिणी रूप में विद्यमाना है । “नव्या नव्याः" प्रशंसार्ह व अप्रवीणा है, सुतरां “युवतयः” तरुण वयस्का एवं "भवन्ती" अत्यन्त गुणवती हँ, इस प्रकार उपकारी धेनुगण के प्रति कृतघ्नता के भय से विद्रेष प्रकट कर रहे रहै एवं हमं भी उद्विग्न कर रहे है यह “देवानामेकं महदसुरत्वं" देवगण का एक महा असुरत्व है ॥२०॥
१२८ ) श्रीपन्त्रभागवतम् यदन्यासु वृषभो रोरवीति सो अन्यस्मिन् यूथे निदधाति रेतः। स हि क्षपावान् सभगः सराजा महददेवानामसुरत्वमेकम्॥ २९ ॥ ऋ. २।२३।३१/ ३।५५।९७
योऽस्माकं वह्न्भः स एवास्मासु प्रतिकूलो जातः। देवास्तदेकाकाराः सर्वा अस्मदिन्दियवृत्तीः पश्यन्तोऽपि न तमस्मदर्थ प्रार्थयन्त इत्येतावतेवोपालभ्यन्ते- ऽस्माभिरित्याहुः। यदन्यास्विति। यत् यः वृषभो महान् अन्यासु वृषस्यन्तीषु गोष्विव अस्मासु रोरवीति मुरलीवादनादिशब्दं करोति । तेनास्मान् रत्युन्मुखीः करोति। स एवास्मान् विहाय अन्यस्मिन् यूथे स्त्रीकदम्ने रेतो निदधाति, अन्याभ्यो रति प्रयच्छति । तेन प्रभुणा वञ्चिताः वयं कमन्यं शरणं व्रजेमहि। यतः स एव क्षपावान् चन्द्र, स एव भगः सूर्यः, स एव सर्वासां प्रजानां राजा स्वतनत्रः। तस्मादवयवभूतांस्तत्परिसरवर्षिनो देवानेव उपालभामहे इत्यर्थः ॥२९॥
अनुवाद- जो हमारे हदयवह्लभ ह वह ही हमारे प्रति प्रतिकूल रै, यद्यपि उनके अङ्गीभूत देवगण सब ही हमारी इन््रियवृत्ति है, तथापि वे सब उन प्रियतम के निकट हमारे लिए कुछ भी प्रार्थना नहीं करते दै । इस प्रकार अनुयोग कर गोपीजन बोलती है, “यत् वृषभः" जो महान् होकर भी “अन्यासु अपर वृषसद्काभिलाषिणी धेनुगणो के समान हमारे उदेश्य से “रोरवीति मुरलीवादन करते है एवं उस मुरली शब्द से हम सबको प्रमोन्मुखी करते है, “सः" वह हीहमें छोडकर “अन्यस्मिन् यूथे" अन्य रमणीगण के युथ मै “रेतः निदधाति" रति प्रदान करते है। उन प्रभु के दवारा वञ्चिता हम सन किसको शरण में जाऊंगी ? कारण- “स हि क्षपावान्" आप ही चन्र दै, “सभग” आप ही सूर्य है, एवं “सः” आप हौ निखिल जीवों के राजा है, सुतरां आप किसी से वशीभूत नहीं, स्वतन्त्र है। अतएव उनके अवयव भूत देवगण को हम सब अनुयोग करती है, उन सबने हमारे लिए श्रीकृष्ण के निकट कु भी प्रार्थना नहीं को हे," "देवानामेक महदसुरत्वं" देवगण का यह एक महा असुरत्व है ॥२१॥
वीरस्य नु स्वश्व्यं जनासः प्र नु वोचाम विदुस्य देवाः । घोलूहा युक्ताः पञ्चपञ्चा वहन्ति महददेवानामसुरत्वमेकम्॥ २२॥ ऋ. ३।३।२३१/ २।५५।१८
श्रीअक्रूर काण्डः ( १२९
यस्मादयं स्वतन्त्रस्तस्मादेनमनुकूलयितुम् अस्यैव गुणान् कौर्तयाम इत्याहुः । वीरस्येति अस्य वीरस्य नु निश्चितं स्वश्व्यं शोभनाश्वत्वमित्युपलक्षणं शोभनायुधत्वादेः। भो जनासः प्रकर्षण नु निश्चितं किं वोचाम कास्माकं शक्तिरस्तीत्याशयाः किं तहिं अयमस्तुत्य एव नेत्याहुः। अस्य एनं देवाः विदुः न तु वयं तत्त्वतो विद्य इत्यर्थः। यत एनं षोलूहायुक्ता पञ्चपञ्चावहन्ति पञ्च- पञ्चविशतिसंख्याभिमतभोक्त्रात्मसहिताः तत््वाभिमानिनो देवाः षोढा षड्भिः प्रकार्युक्ताः रथिरथ सारथि-ग्रग्रह हय -गोचररूपेण बद्धाः सन्त्र: एनं साक्षिणम् आवहन्ति तं तं विषयदेशं प्रापयन्ति। तथा च श्रुतिः “आत्मानं रथिनं विद्धि शरीर रथमेव तु बुद्धि तु । बुद्धिं तु सारथि विद्धि मनः प्रग्रहमेव च । इद्धियाणि हयानाहूर्विषयां तेषु गोचरान्। आत्मेन्दरियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः” इति। आत्मादिभोक्त्रातानां मिथः सम्बन्धं दर्शयति । एवमेव विद्वांसो देवाः अस्मभ्यम् अप्येतद् विज्ञाना प्रयच्छस्तीति। महदित्यादि पूर्ववत् ॥२२॥
अनुवाद- जब आप स्वतन्त्र राजा है, तब आपका अनुकूल करने के लिए गुण कीर्तन करना कर्तव्य है, यह मानकर गोपीगण कहती है, *भो जनासः! हे जनगण ! “वीरस्य नु स्वश्व्यं" हम सब उस वीर के शोभन अश्व, आयुध आदि का वर्णन कथा कर सकती है, उस प्रकार शक्ति हम सव मेँ नहीं है। तब क्या आप अस्तुत्य है, अर्थात् हमारी स्तुति का विषय नहीं है ? नही वैसा नहीं है । “अस्य इनको “देवाः विदुः" देवगण जानते है, किन्तु तत्त्वतः हम सब नहीं जानती ह कारण “षोलूहा युक्ताः पञ्च पञ्चा वहन्ति" पञ्च विंशति संख्याभिमत कर्मफल भोक्ता आत्मा समन्वित तत््वाभिमानीदेवगण, षड्विध रूप मे अर्थात् रथ, रथी, सारथी, प्रग्रह, अश्व व गोचर रूप में आबद्ध होकर इस साक्षीरूप भगवान् श्रीकृष्ण को वह वह विषय प्राप्त करा देते है । अतः कठोपनिषद् मे उक्त है, “आत्मानं रथिनमित्यादि” अर्थात् जीवात्मा को रथी, देह को रथ जानना, बुद्धि को सारथी, सङ्कल्प विकल्पात्मक मन को प्रग्रह जानना। इन्दरियगण को अश्व जानना, एवं इद्धियगण विषय पथ में विचरण करती है । विवेकीगण देहेन्दिय मनोयुक्त आत्मा को ही भोक्ता मानते हैँ । इस वाक्य मे आत्मा एवं भोक्ता का परस्पर सम्बन्ध प्रदित हुआ है, इस प्रकार सुविन्ञ देवगण हमें विज्ञान प्रदान करते है । किन्तु देवगण जब हमारे लिए
१३० श्रीमन््रभागवतम्
किसी प्रकार प्रार्थना नहीं करते है, तब वह ही “देवानामेकं महदसुरत्वं" देवगण का यह एक महा असुरत्व हे ॥२२॥
देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः पुपोष प्रजाः पुरुधा जजान। इमा च विश्वा भुवनान्यस्य महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥ २२३॥ ऋ. ३।३।३१/ ३।५५।१९
अनुवाद- भगवजूज्ञानं लब्धुं शक्तिर्नास्तीत्याशङ्न्याहुः। देव इति। अस्य सम्बन्धी एको देवः त्वष्टा सविता जगतूप्रसवकर्त्ता अतएव विश्वरूपः पुरुधा बहुप्रकारेण प्रजाः भोतिकौः इमाः इमानि विश्वाः सर्वाणि चतुर्दशभुवनानि जजान पुपोष च । यस्मादेक एव देवोऽस्य फलोपमस्यावयवः। स ईदूृक्कर्मा किमुत स्वे यदनुग्रहं कूर्ययुस्तदा तजूज्ञानं सुलभमेव स्यात्। अतो निरनुग्रहाणां देवानां महदेकमसुरत्वमेकम् ॥२३॥
अनुवाद- भगवज् ज्ञान प्राप्त करने की शक्ति हम सबकौ नहीं है। कहते है- “देवः” इनके सम्बन्धीय एकदेव “त्वष्टा है त्वष्ट नामक देवता, “सविता जगत् प्रसवकर्ता, अतएव “विश्वरूपः" निखिलविश्व उनका ही रूप हे, “पुरुधा प्रजाः” बहुविध भौतिक जीव के स्वरूप “इमा च विश्वाः भुवनानि" यह निखिल चतुर्दश भुवन “जजान पुपोष च" उत्पादन किर है, एवं पोषण करते हँ । अतएव यह एक ही देवता फलोपम श्रीकृष्ण के अङ्ख स्वरूप मात्र होकर भी जब ईदृश कर्म करते रहते टै, तब दूसरे कौ बात ही क्या हे। वे सब यदि अनुग्रह करते है तो भगवत् ज्ञान लाभ निश्चय ही सुलभ होता हे! अतएव वे सब जब अनुग्रह नहीं करते ह तब वह “देवानामेकं सहदसुरत्वं" देवगण का यह एक महा असुरत्व है ॥२३॥
मही समेरच्चम्वा समीची उभे ते अस्य वसुनान्युष्टे। शृण्वे वीरो विन्दमानो वसूनि महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥२४॥ ऋ. ३।३।३१/ ३।५५।२० दिव्यदृष्ट्या पश्यन्तो भाविनापि कर्मणा भगवन्तं स्तुत्वोपालम्भते। महीति । महत्यौ चम्बौ कौरवपाण्डवसेने समीची अन्योन्यं सम्मुखे सभैरत् सम्यक्
श्रीअक्रूर काण्डः ( १३१
पररितवान् ते उभे अपि अस्य वसुना बलेन न्यृष्टे प्रचलिते एवं सर्वचालकोऽप्ययं वीरः वसूनि संग्रामे जयलब्धानि धनानि विन्दमानो लभमानः शृणवे श्रुत इति महत् महान्तमीश्वरे अभिन्नेऽपि भेदं कल्पयतां । देवानामित्यादि पूर्ववत् ॥२४॥
अनुवाद- दिव्यदृष्टि कं द्वारा भगवान् कं भावी कर्म को सूचित करके भगवान् कौ स्तुति के छल से इस प्रकार आक्षेप प्रकाश करते है, “महीचम्वा” महती कौरव पाण्डव सेना के सम्मुख में “समीची" परस्पर सम्मुख मे “समैरत्” जो प्रेरित थे, “ते उभे" उस उभय सेनादल ही “अस्य" इस भगवान् श्रीकृष्ण के “वसुनान्यृष्टे" बलद्वारा परिचालित होते थे। एवं सबके परिचालक होकर भी “वीरः” वीर पुरुष, “वसुनि"' युद्धे जय लब्ध धन समूह “विन्दमानः” प्राप्त किये थे। “शृणवे" यह हम सब सुने है, यह महापुरुष परमेश्वर के साथ अभिन होने पर भी जो भेद कल्पना करते है, वह “देवानामेकं महद सुरत्वं” देवगण के यह एक महा असुरत्व है ॥२४॥
इमाञ्च नः पृथिवीं विश्वधाया उपक्षेति हितमित्रा न राजा। पुरः सदः